वाल्मीकि के राम

विजयादशमी (24 अक्टूबर) तथा महर्षि वाल्मीकि जयंती (28 अक्टूबर) पर विशेष

✍ अवनीश भटनागर

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आदिकवि वाल्मीकि जी के जीवन के सम्बन्ध में विष्णु पुराण, पद्मपुराण तथा अध्यात्म रामायण आदि में अनेक प्रकार की कथाएँ आती हैं, जिनमें उनका प्रारंभिक जीवन अत्यन्त हीन चरित्र का बताया जाता है। अध्यात्म रामायण (अयोध्या काण्ड – 6/65) में स्वयं वाल्मीकि का कथन है –

अहं पुरा किरातेषु किरातैः सह वर्द्धितः।

जन्ममात्र द्विजत्वं मे शूद्राचाररतः सदा।।

अर्थात् जन्म मात्र से ब्राह्मण परन्तु किरातों के साथ पलने-बढ़ने के कारण शूद्राचार परायण। किन्तु यहाँ शूद्र का उल्लेख जाति के रूप में नहीं, कर्म या चरित्र के रूप में है। ब्रह्मसूत्र (1.3.34) के भाष्य में शूद्र की व्याख्या है – “शुचा अभिदुद्रुवे इति शूद्रः” – जो बात-बात में स्वयं दुखी हो जाए और दूसरों को दुखी करे, रुलाए, शूद्र है।

प्रचलित पुराण कथाओं में कहीं वाल्मीकि के सप्तर्षियों से और कहीं नारद जी से मिलने की चर्चा आती है, जिन्हें दस्युकर्मरत वाल्मीकि ने लूटने का प्रयास किया, और उनके यह कहने पर कि तुम्हारे इस प्रकार के पाप कर्म में तुम्हारे परिवार के सदस्य भागी होंगे क्या, जिनके लिए तुम यह करते हो, वाल्मीकि परिजनों का नकारात्मक उत्तर सुन कर सप्तर्षियों अथवा नारद जी के शरणागत हो कर उनसे ‘राम-राम’ के जप की शिक्षा प्राप्त करते हैं किन्तु अपने संचित संस्कारों के कारण ‘मरा-मरा’ का उच्चारण करते हैं। ध्यानस्थ होकर नाम जप करते हुए उनके शरीर में दीमकों ने बाँबी बना ली और उसी के कारण वे ‘वाल्मीकि’ नाम से प्रसिद्ध हुए।

यही तपःसिद्ध वाल्मीकि नारद जी से पुनः भेंट होने पर उनसे संसार में श्रेष्ठ गुणवान् मनुष्य के विषय में प्रश्न पूछते हैं –

कोऽन्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान कश्च वीर्यवान्।

धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः॥

चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः।

विद्वान् कः कः समर्थश्च कश्चैक प्रियदर्शनः॥

आत्मवान् को जितक्रोधो द्युतिमान कोऽनसूयकः।

कस्य विष्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे॥  

(वा. रा. बालकाण्ड 1/2-5)

प्रश्न में ‘साम्प्रतं’ अर्थात् इस समय और ‘अस्मिन् लोके’ यानी इस धरती पर गुणवान्, वीर्यवान्, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवक्ता, दृढ़प्रतिज्ञ, सदाचार परायण, सबका हितसाधक, विद्वान्, सामर्थ्यवान्, प्रियदर्शन, मन पर नियन्त्रण रखने वाला, क्रोधजयी, कान्तिमान्, ईर्ष्यारहित – इन सब गुणों से युक्त मनुष्य है – एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे। – मुझे जानने की परम् उत्सुकता है।

इसके उत्तर में नारद जी कहते हैं-

इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः।

नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान् धृतिमान वशी॥

(वा० रा० बाल. – 1/8)

लोकव्याप्ति में श्रीराम स्वयं भगवान् हैं, नारायण के अवतार हैं। आध्यात्मिक विचारकों के अनुसार राम तुरीय तत्व हैं, हृदय में ज्ञान रूप में स्थित हैं और मोहरूपी रावण का वध करते हैं। कालान्तर में ‘तुलसी के राम’ ‘ब्रह्म अनामय अज भगवंता। व्यापक अजित अनादि अनंता’ के साकार रूप में हैं तो निराकार के उपासक, कबीर, ‘ऐसे घट-घट राम हैं’ का निरूपण करते हैं। किन्तु उपर्युक्त नारद-वाल्मीकि संवाद को देखें तो वाल्मीकि किसी अवतारी पुरुष के विषय में नहीं पूछते हैं – “महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवंविधं नरम्।”- वे ऐसे आदर्श नर को जानना चाहते हैं, जिसमें ये सारे गुण हैं। उत्तर में देवर्षि नारद भी ‘इक्ष्वाकुवंशप्रभवो’ अर्थात इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न, साम्प्रतम् और अस्मिन् लोके का ही वर्णन करते हैं, अपने परमाराध्य वैकुण्ठवासी श्री विष्णु का नहीं। और यही मानव राम ही ‘वाल्मीकि के राम’ हैं। वाल्मीकिकृत रामायण महाकाव्य में वे मनुष्यरूप मे ही वर्णित हुए हैं।

वाल्मीकि हमें वैकुण्ठ ले जाकर श्रीराम से नहीं मिलाना चाहते। अज्ञानान्धकार से निवृत्त आत्मा और ब्रह्म की एकता के रूप में, तुरीय तत्व के रूप में भी नहीं। वैकुण्ठ जाना दुर्लभ है। परमात्मतत्व के रूप में अनुभव करने के लिए साधन-चतुष्टय सम्पन्न परमज्ञानी होना पड़ेगा। सामान्य व्यक्ति के लिए यह कठिन है। यह पता लग जाए कि वे साक्षात नारायणावतार हैं, तो उनके समान बन पाना तो मनुष्य के लिए असंभव ही है। इसलिए वाल्मीकि इसी धरती की अयोध्या नगरी में दशरथ-कौसल्या के पुत्र, मनुष्य रूप में ऐसे सद्‌गुण-सम्पन्न चरित्र वाले राम से हमारा परिचय कराते हैं जो भूत-वर्तमान-भविष्य में सदा-सर्वदा मानव के आदर्श के रूप में उपस्थित रहेंगे। वे श्रेष्ठ मानव हैं, भगवान नहीं। हिन्दी में भगवान और ईश्वर पर्यायवाची हैं। संस्कृत में भगवान संज्ञा नहीं, विशेषण है इसलिए भगवान वेदव्यास, भगवान शंकराचार्य आदि शब्द प्रयोग होते हैं। वाल्मीकि रामायण में श्रीराम के लिए यदि ‘भगवान’ संबोधन का उपयोग हुआ है तो वह भी इसी रूप में, न कि ईश्वर के अवतार के रूप में। वाल्मीकि के मानव रूप राम का जीवन सामान्य व्यक्ति के जीवन जैसा है। अन्य किसी भगवान की साधना-उपासना करनी होगी, उनके विषय में ज्ञान प्राप्त करना होगा, उनके प्रति भक्ति भाव जाग्रत करना होगा किन्तु श्रीराम के मानव चरित्र को हम अपने भौतिक जीवन में उतार सकते हैं। अन्यथा, “भगवान में तो ऐसे गुण होने ही चाहिए, इसमें आश्चर्य क्या, किन्तु मनुष्य में ऐसे गुण कैसे आ सकते हैं?”- कहना सरल है।

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वाल्मीकि रामायण पर अनेक टीकाएँ मिलती हैं। उनमें से ‘धर्माकूत’ व्याख्याकार का कहना है कि समाज को समुचित दिशा देने वाले एक शास्त्र की रचना करने की वाल्मीकि को इच्छा हुई ताकि सामान्य व्यक्ति भी जाने कि माता-पिता, भाइयों-मित्रों के साथ व्यवहार कैसा होना चाहिए, धर्मनिष्ठ जीवन कैसा होना चाहिए, किन्तु यह लिखने के लिए आज्ञा या उपदेश उपयोगी नहीं होता। अतः वाल्मीकि को लगा कि इसे उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाए। श्रीराम जीवन में सब प्रकार के कष्ट सह कर भी धर्म पथ से विचलित नहीं होते। अरण्यकाण्ड (37/13) में वाल्मीकि कहते हैं-

रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्यपराक्रमः।

राजा सर्वस्य लोकस्य देवानामि वासवः।।

और, यह बात वाल्मीकि ने कहलायी है मारीचि के मुख से, जो रावण से प्राप्त स्वर्णमृग बनकर सीता को लुभाने के आदेश का पालन करने में असमर्थता व्यक्त करते समय रावण को समझाता है। वही मारीचि, जिसे किशोरवय राम ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा में बाण मार कर सौ योजन दूर फेंक चुके हैं। भयभीत शत्रु बहाने बनाता है, प्रशंसा नहीं करता, किन्तु यह श्रीराम का चरित्र है जिसके प्रशंसक शत्रु भी हो सकते हैं।

वाल्मीकि के राम ‘विग्रहवान् धर्म’ इसलिए हैं कि उनके धर्माचरण में उनका अपनी इन्द्रियों पर मन पर और संपूर्ण जीवन पर नियंत्रण है। वनवास के प्रसंग में स्वयं राजा दशरथ कहते हैं-

अहं राधव कैकेय्या वरदानेन मोहितः।

अयोध्यायां त्वमेवाद्य भव राजा निगृह्यमाम्॥

(वा. रा. अयोध्याकाण्ड 34/26)

सटीक उपाय!  खुल्लमखुल्ला प्रस्ताव!! मैं तो कैकेयी के वरदान से मोहित हूँ, मुझे अपदस्थ कर, बन्दी बना कर स्वयं सिंहासन पर बैठ जाओ। किन्तु श्रीराम यदि इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते तो राजा तो बन जाते किन्तु ‘श्रीराम’ न बन पाते।

हमारे धर्मशास्त्र धर्माचरण के उपदेशों से भरे हुए हैं। वेद मंत्रों में, गृह्यसूत्रों में यज्ञशाला के धर्म का विस्तृत वर्णन है किन्तु हमारे घर में पालन किए जाने वाले, धर्म का उल्लेख तो वाल्मीकि रामायण में राम के चरित्र के उदाहरण से ही दिखाई देता है। बाल्यावस्था में राम ‘न च तेन विना निद्रां लभते पुरुषोत्तमः’ (बालकाण्ड 18/31) – को लक्ष्मण के बिना नींद नहीं आती और युवराज बनने जा रहे राम को जब कैकेयी के दुराग्रह से वनवास मिलता है और भरत को राज्य, तो भरत बड़े भाई के होते राजगद्दी को ठुकरा कर चित्रकूट से राम को वापस लाने जाते हैं। भ्रातृप्रेम का यह अनुपम उदाहरण किस धर्मसूत्र में मिलेगा? ‘मा भ्राता भ्रातरं द्विषन् मा स्वसारमुत स्वसा।’ (अथर्ववेद 3/30/3) का उपदेश वेद के पृष्ठों में तो है किन्तु इसका पालन तो श्रीराम के परिवार में ही दिखाई देता है। वन गमन का आदेश होने पर श्रीराम सीता और लक्ष्मण को अयोध्या में रह कर माता-पिता की सेवा करने को कहते हैं, सीता को वन के कष्टों का भय दिखाते हैं किन्तु पति के प्रति सीताजी का और बड़े भाई के प्रति जो प्रेम लक्ष्मण का है वह वाल्मीकि रामायण के बाहर देखने को मिलना कठिन है।

वाल्मीकि रामायण का प्रारम्भ ही श्रीराम के गुणों के वर्णन से होता है। नारद जी ने वाल्मीकि के प्रश्न के उत्तर में जो गुण बताए, वही कथा की विषय सूची बन गए। उनकी मित्र परायणता, शरणागत वत्सलता तथा वचन दृढ़ता के गुण उन्हें पुरुषोत्तम सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं।

लोकमानस में स्थापित तुलसी के रामचरितमानस तथा उत्तररामचरित्र, प्रसन्नराघव, हनुमन्नाटकम् आदि अनेक ग्रंथों के अनेक प्रसंग वाल्मीकीय रामायणम् में नहीं हैं। उदाहरण के लिए, सीता स्वयंवर के अवसर पर श्रीराम-लक्ष्मण के विश्वामित्र के साथ जनकपुरी पहुँचने पर वहाँ घटित होने वाली घटनाओं का उल्लेख, जैसे राम-लक्ष्मण का नगर भ्रमण, पुष्पवाटिका में सीता-राम के परस्पर प्रथम दर्शन का वर्णन जैसा तुलसीदास जी ने किया है। कवि को अधिकार होता है कि वह काव्य की सज्जा के लिए प्रसंग जोड़ता या किंचित परिवर्तन करता है। शायद गोस्वामी जी यदि पुष्पवाटिका का प्रसंग न देते तो रामचरितमानस में शृंगार रस के प्रकट होने का अन्य कोई अवसर ही नहीं मिलता। इसी प्रकार, धनुषभंग के पूर्व स्वयंवर सभा में राजा जनक की उद्‌घोषणा और सभी राजाओं के असफल होने पर निराशापूर्वक ‘वीरविहीन मही मैं जानी’ कहना, लक्ष्मण का क्रोध करना और उसके बाद विश्वामित्र की आज्ञा से राम द्वारा धनुषभंग का बहुश्रुत प्रसंग वाल्मीकि नहीं लिखते। वाल्मीकि के राम विश्वामित्र के साथ जनक के महल में पहुँचते हैं, सेवक पहियोंयुक्त सन्दूक में रखे धनुष को खींच कर लाते हैं और विश्वामित्र व जनक की आज्ञा से वे धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ाने का प्रयास करते हैं –

आरोपयित्वा मौर्वीं च पूरयामास तद्धनुः।

तद् बभञ्ज धनुर्मध्ये, नरश्रेष्ठो महायशाः।।

(बाल. 67/17)

ऐसे ही, धनुर्भङ्ग के बाद स्वयंवर सभा में परशुराम‌ जी का आगमन और लक्ष्मण के साथ नोक-झोंक वाल्मीकि रामायण में नहीं है। यहाँ महर्षि परशुराम तब मिलते हैं जब विवाह के बाद बारात वापस अयोध्या लौट रही होती है। राम, महर्षि को अपनी विनय से और विष्णु के धनुष संधान के शौर्य प्रदर्शन, दोनों रूपों से प्रभावित करते हैं।

वाल्मीकि के राम ‘विग्रहवान् धर्म’ हैं। उनके जीवन में धर्माचरण है। उनका धर्माचरण यज्ञशाला या मंदिर में नहीं, व्यवहार में दिखता है। उनका योग कन्दरा में नहीं, समाज के बीच में, राजमहल में होता है। वे हर्षित-दुखित होते हैं, उनका संयोग-वियोग होता है। उनका जीवन समग्र है, एकांगी नहीं। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड के प्रथम सर्ग में तो श्रीराम के गुणों का ही वर्णन है- प्रशान्तात्मा, मृदुभाषी, स्नेह-सान्त्वना-सहानुभूति-कृतज्ञता-शीलयुक्त, प्रजानुरागी, अवसरोचित बोलने वाले, व्यवहारकुशल, स्थितप्रज्ञ, अप्रमादी, शास्त्रज्ञ और राजा के गुण-अर्थ के उपार्जन, संरक्षण और वितरण की विधि में निपुण आदि का वर्णन है। उनमें अनन्त गुण हैं किन्तु कोई ऐसा नहीं जो मनुष्य के लिए दुर्लभ हो। सभी गुण ग्रहणीय और अनुकरणीय हैं, केवल प्रशंसनीय नहीं। श्रीराम के चरित्र का अनुसरण-अनुकरण करने में, अपने चरित्र को पवित्र बनाने में किसी जाति-पंथ-संप्रदाय-भाषा-राष्ट्रीयता-लिंग का भेदभाव नहीं। मनुष्य के जीवन का आदर्श हैं श्रीराम, उनका और उनके परिजनों का चरित्र। वाल्मीकि ने जिस हृदयस्पर्शी रीति से उनको एक सामान्य मानव के रूप में प्रस्तुत किया है, वह उन्हें भगवान के अवतार या महामानव की छवि में बाँध कर नहीं रखता।

वाल्मीकि रामायण ऐतिहासिक काव्य है। इसका मुख्य रस है-करुण। वाल्मीकि के मुख से क्रौंचवध प्रसंग जनित करुणा से प्रस्फुटित श्लोक – ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः’ (2/15) से निकली हुई वह काव्यरसधारा माता सीता के निज लोक प्रस्थान तक सतत चलती है। करुणा हृदय को द्रवित करती है। पिघल जाने पर ही कठोर तत्व में सद्वचन, सद्‌विचार, सद्‌भाव और स्वानुभूति आदि का मिश्रण कर उसे उपयुक्त आकार दिया जा सकता है। आदिकवि मनुष्य जाति के सम्मुख एक जीवनादर्श के रूप में श्रीराम का चरित्र प्रस्तुत कर प्रलय पर्यन्त के लिए एक दिशा दे गए हैं।

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्।

आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्॥

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(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय महामंत्री है।)

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