लाल बहादुर शास्त्री जी के समय राष्ट्र की प्रगति

 – डॉ० जितेंद्र कुमार

लाल बहादुर शास्त्री अपने नाम की ही तरह अपनी मिट्टी, अपने गांव और इस देश के लाल थे। आज उनका शरीर तो नहीं है परंतु देश की मिट्टी के साथ तो वे हमेशा रहेंगे। लाल बहादुर शास्त्री द्वितीय प्रधानमंत्री थे जिनका कार्यकाल अद्वितीय था। उनका व्यक्तित्व सादगीपूर्ण एवं शांत था। शास्त्री जी की कार्यशैली, व्यक्तित्व, व्यवहार एवं निर्णय क्षमता के कारण उन्हें 1966 में ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया गया। वे एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे। स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने ‘करो या मरो’ का नारा नहीं अपितु ‘मरो नहीं मारो’ का नारा दिया जिसने पूरे देश में स्वतंत्रता की अलख जगा दी थी साथ ही हर दिल में स्वतंत्रता की ज्वाला को तीव्र कर दिया था।

शास्त्री जी का जन्म 2 अक्टूबर 1904 में उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव था जो कि प्राथमिक विद्यालय के अध्यापक थे। शास्त्री जी के पिता का स्वर्गवास बचपन में हो जाने के कारण उनका बचपन गरीबी में गुजरा था। शास्त्री जी की प्राथमिक शिक्षा ‘मिर्जापुर’ में हुई थी और उच्च माध्यमिक शिक्षा ‘हरिश्चन्द्र हाई स्कूल’ और ‘काशी विद्यापीठ’ में हुई थी। उन्होंने संस्कृत भाषा में स्नातक किया था। वे बहुत ही मेधावी छात्र थे। काशी विद्यापीठ ने उन्हें ‘शास्त्री’ की उपाधि दी थी। इसके बाद उन्होंने शास्त्री शब्द अपने नाम से जोड़ लिया था और फिर वे शास्त्री के नाम से जाने, जाने लगे।

शास्त्री जी आजाद भारत के ईमानदार, कर्मठ और गरीबों के नेता थे। उनकी ईमानदारी के कारण ही उनका कार्यकाल बहुत कठिन रहा। उनका कार्यकाल बतौर प्रधानमंत्री केवल 18 महीने का रहा। परंतु उनके कार्यकाल में दुनिया ने एक सशक्त भारत की छवि देखी। उन्होंने 9 जून 1964 को भारत के प्रधानमंत्री का पद ग्रहण किया। उन्होंने अपने प्रथम संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि उनकी शीर्ष प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है और वे ऐसा करने में सफल भी रहे। उस समय पूंजीपति, देश पर आधिपत्य स्थापित करना चाहते थे और दुश्मन देश हम पर आक्रमण करने की फिराक में थे। 1965 में अचानक पाकिस्तान ने भारत पर हवाई हमला किया। शास्त्री जी ने तीनों सेना प्रमुखों को बैठक में तत्काल कहा कि “आप देश की रक्षा कीजिए और मुझे बताइए कि हमें क्या करना है” शास्त्री जी ने इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया।

उन्होंने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया। इससे भारत की जनता का मनोबल बढ़ा और देश एकजुट हो गया। भारतीय सेना ने पाकिस्तान को युद्ध में धूल चटा दी और सेना लाहौर तक पहुंच गई थी। उस समय संसार को एक निर्भीक और सशक्त भारत के दर्शन हुए। सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि को समाप्त करने के लिए उन्होंने कई कठोर कदम उठाए साथ ही निष्ठा पूर्वक ईमानदारी के साथ उन्होंने कर्तव्यों के निर्वाह को प्राथमिकता दी।

1920 में शास्त्री जी ‘भारत सेवा संघ’ से जुड़कर आजादी की लड़ाई में पूरी तरह कूद पड़े थे। उन्होंने सक्रिय रूप से 1921 में असहयोग आंदोलन, 1930 में ‘दांडी यात्रा’ एवं 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई थी। उन्होंने 9 अगस्त 1942 को ‘मरो नहीं मारो’ का नारा देकर देशवासियों में आज़ादी की अलख जगा दी। इस दौरान वे 11 दिन भूमिगत भी रहे फिर 19 अगस्त 1942 को उनको गिरफ्तार कर लिया गया।

शास्त्री जी का पूरा जीवन देश और गरीबों की सेवा में समर्पित रहा। शास्त्री जी की महान कार्य क्षमता के कारण वे स्वतंत्र भारत में उत्तर प्रदेश के सांसद के सचिव नियुक्त किए गए। गोविंद पंत के मंत्रिमंडल की छाया में ‘पुलिस एवं परिवहन विभाग’ का कार्यभार दिया गया। शास्त्री जी के मंत्रिमंडल के दौरान ही पहली महिला को ‘कंडक्टर’ नियुक्त किया गया। पुलिस विभाग में भीड़ को नियंत्रित करने के लिए लाठी के प्रयोग की बजाय ‘पानी की बौछार’ का नियम बनाया गया। 1951 में शास्त्री जी को ‘अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ का महासचिव बनाया गया। वे हमेशा अपने काम और जिम्मेदारी के प्रति समर्पित रहा करते थे। शास्त्री जी 1952, 1957, 1962 में चुनाव में पार्टी के लिए बहुत प्रचार प्रसार किया एवं कांग्रेस को भारी बहुमत से विजयी बनाया। उनकी प्रतिभा को देखते हुए उन्हें जवाहरलाल नेहरू की आकस्मिक मौत के बाद प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया।

लाल बहादुर शास्त्री एक राजनेता ना होकर एक जनसेवक थे। जिन्होंने सादगी पूर्ण तरीके से और सच्चे मन से जनता के हित को सर्वोपरि समझते हुए निर्भीकता पूर्ण कार्य किया। वे जनता के लिए नहीं वरन आज के राजनीतिज्ञों के लिए भी एक आदर्श है। उन्होंने ‘श्वेत क्रांति’ को बढ़ावा देने के लिए ‘अमूल दुग्ध सहकारिता’ की सहायता की और ‘राष्ट्रीय डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड’ की स्थापना की। भारत को भोजन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए 1965 में उन्होंने ‘हरित क्रांति’ को बढ़ावा दिया। जिससे पंजाब, हरियाणा व उत्तर प्रदेश में अनाज की पैदावार बढ़ी। उन्होंने ‘राष्ट्रीय कृषि उत्पाद बोर्ड एक्ट’ भी पास किया जिसके कारण ‘भारतीय खाद्य निगम’ की 14 जनवरी 1965 को स्थापना हुई जो कि आज भारत में खाद्य और सार्वजनिक वितरण को सुचारू रूप से संचालित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। उनके छोटे से कार्यकाल में भारत एक सशक्त राष्ट्र के रूप में उभरा। 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व में पाकिस्तान को युद्ध में पटखनी दी। परंतु रूस और अमेरिका के दबाव में ‘ताशकंद के समझौते’ पर हस्ताक्षर करने पड़े परंतु उन्होंने अपने कार्यकाल में पाकिस्तान से जीती हुई जमीन को वापस करने से इंकार कर दिया। ताशकंद के समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घंटों बाद ही उनकी रहस्यमय ढंग से 11 जनवरी 1966 की रात को मौत हो गई।  मृत्यु का कारण हार्ट अटैक बताया गया परंतु बहुत लोगों को शक था कि उनकी मृत्यु विष देने से हुई। उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया गया।

वे एक राष्ट्रीय हीरो थे और उनकी याद में ‘विजय घाट’ पर उनकी समाधि आज भी राष्ट्र को प्रेरणा दे रही है। उनका देश के प्रति प्रेम अद्वितीय था तथा देश के प्रति सेवा भाव को देखकर आज भी देश उनको नमन करता है।

(लेखक शिक्षाविद है और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में सहायक कुलसचिव के पद पर कार्यरत है।)

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