फुलेश्वरी का बलिदानी नेतृत्व

✍ गोपाल माहेश्वरी

होती जिनके खेलों में भी राष्ट्र भक्ति की प्रबल भावना

वे बच्चे इतिहास बनाते चुनें चुनौती करें सामना।

खेल तो बचपन का अभिन्न हिस्सा ही है पर मन में राष्ट्र भक्ति के संस्कार भरे हों तो खेल भी सामान्य नहीं रह जाते। ऐसे बच्चे भी होते हैं जिनके खेल इतिहास का प्रतिबिम्ब और भविष्य का चित्र दिखाते हैं, तब खेल भी मात्र मनोरंजन नहीं भविष्य की तैयारी बन जाता है।

असम के तेजपुर से लगभग 18 कि.मी. दूर ढोकाईजुली गाँव में एक छोटी बालिका अपनी सहेलियों के साथ ऐसा ही खेल खेल रही थी। वैसे तो खेल वही था, जिसे प्रायः सभी बच्चे हमेशा खेलते हैं ‘रेत में घर बनाने का’ लेकिन जिस बालिका का यह प्रसंग है उसे रेत का यह घर भी अंग्रेजों की छावनी दिख रहा था। घर से एक नीले कपड़े का झण्डा लेकर यूनियन जैक मान कर उस घर पर लगा दिया गया था। वह अपनी सहेलियों को समझा रही थी। हम में से कुछ लड़कियाँ बनेंगीं अंग्रेजी फौज और कुछ मेरे साथ आजादी की सिपाही। अंग्रेजी फौज से हमें यह छावनी छीनना है, उसे मिटा देना है?”

“पर हम तो खेल रहे हैं, हमें क्यों लड़ना है? क्यों छीनना है यह छावनी?”

“हमें बदला लेना है। जैसा वीर शंभुध्न फुंगलो जी के साथ अंग्रेजों ने किया, हम उसका बदला लेंगे। हम भी अंग्रेजों की छावनी नष्ट कर देंगे या जीत लेंगे।” उसने वीर शंभुध्न और अंग्रेजों के वनवासी क्षेत्रों में भीषण संघर्ष की सच्ची कहानी सुनी थी अपने बड़ों से। खेल में ही सही पर संघर्ष हुआ और भारतीय स्वतंत्राता के सैनिकों ने यूनियन जैक को चिन्दी-चिन्दी कर फेंक दिया।

अगस्त 1942 ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ प्रचण्ड रूप ले चुका था। ‘करो या मरो’ का नारा स्वतंत्रता के सिपाहियों में अदम्य साहस व बलिदान का भाव जगा रहा था। स्थान-स्थान पर शासकीय भवनों से यूनियन जैक उतार कर तिरंगा फहराने की प्रतियोगिता सी छिड़ गई थी।

यह बालिका अब बारह वर्ष की हो चुकी थी। उसने निश्चय किया कि अपने ढोकाई जुली के थाने पर भी तो तिरंगा फहराना चाहिए। तिरंगे के रंगों के कपड़े हाथों से सिल कर झण्डा बनाया। उस पर कोयले से रेखाएं खींच चरखा भी बना दिया; उस समय तिरंगे पर अशोक चक्र नहीं चरखा हुआ करता था। नन्हीं वीरांगना ने अपनी बाल सेना का आह्नान किया और देशभक्ति के नारे लगाती यह टोली सड़क पर निकली तो अन्य ग्रामवासी भी उनके साथ होते गए और छोटी सी बच्चों की टोली ने अच्छे-खासे जुलूस का रूप ले लिया। सबसे आगे थी यह बालिका सेना।

थाने में हलचल मच गई। थानेदार गरजा ‘रुक जाओ। कौन हो तुम और क्यों आए हो यहाँ?’

“हमें पुलिस स्टेशन पर तिरंगा फहराना है।” बेझिझक सपाट उत्तर दिया उस बच्ची ने। पुलिस ने चेतावनी दी पर उनको बिना डरे आगे बढ़ते देखा तो गोली चलाना आरंभ कर दिया। पहली गोली खाने का सम्मान तो नायक ही प्राप्त करता है। इस जुलूस की नेता तो यह नन्ही बच्ची ही थी आज। पहली गोली उसके शरीर को भेद गई। एक-एक कर बीस बच्चे और किशोर मातृभूमि की गोद में सदा के लिए सो गए।

उनका बलिदान व्यर्थ न गया। इन बच्चों के रक्त का गिरना मानो लोगों के मन के हवन कुण्ड में घी की धराएँ गिरी हों। देशभक्ति की वे लपटें उठीं कि जगह-जगह पर यूनियन जैक पैरों में कुचला जाता रहा और तिरंगा लहराने लगा। हर बार कुछ प्राणपुष्प भी चढ़ाए जाते रहे।

बारह बरस की यह नन्ही बालिका थी फुलेश्वरी।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

और पढ़ें : शिवाजी महाराज जैसा साहसी- शिवा झा

Facebook Comments

2 thoughts on “फुलेश्वरी का बलिदानी नेतृत्व

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *