– दिलीप वसंत बेतकेकर
“द सीक्रेट ऑफ गुड एजुकेशन इज रेस्पेक्टिंग द चाइल्ड” इमर्सन का यह विचार एक विजिटिंग कार्ड पर पढ़ा और विचारों को गति मिली। वास्तव में इस छोटे से वाक्य में शिक्षा का रहस्य छिपा हुआ है। शिक्षा एक उलझनयुक्त प्रक्रिया है। वह निरंतर चलती रहती है। जरा सी भी भूल हुई, असावधानी से ढील हुई कि वांछित परिणाम नहीं प्राप्त होते। अनेक कारक घटकों का परिणाम शिक्षा प्रक्रिया पर होता है। सभी बातों का यदि समन्वय हो पाया तो आश्चर्यजनक तथा यशस्वी परिणाम प्राप्त होते हैं।
विद्यार्थियों की मानसिकता अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। वह सदैव एक सी नहीं रहती, परिवर्तनशील है। उसी के अनुसार शिक्षा की प्रक्रिया में भी परिवर्तन होता है। बाह्य भौतिक परिस्थितियों का मनःस्थिति पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इसलिये उसे वश में रखना, संभालना यह एक महत्वपूर्ण कार्य है। लेख का शीर्षक पढ़ने पर कुछ लोगों की भौहें तन जायेंगी, कुछ लोगों को बच्चों पर तरस आयेगा, तो कुछ को ये अनावश्यक लाड़-प्यार अनुभव हो सकता है! अब क्या शिक्षक ओर पालकों को बच्चों के सामने झुकना होगा? ऐसा ताना मार प्रश्न भी कोई पूछ सकता है? अतः प्रारम्भ में ही यह बताना उचित रहेगा कि ऐसा कुछ नहीं करना है।
शिक्षा के द्वारा ही व्यक्तित्व का विकास होता है। यही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य भी है। प्रत्येक बच्चे का अपना स्वयं का व्यक्तित्व होता है। उसमें एक ‘स्व’ की भावना होती है। ‘स्व’ की भावना यदि योग्य प्रकार की हो तो उसका जीवन उत्कर्षमय हो जाता है। इस ‘स्व’ की अन्य लोगों द्वारा उचित स्वीकृति हो तो परिणाम अच्छे मिलते हैं। परन्तु यदि इस ‘स्व’ को दुःख पहुंचाया जाए तो व्यक्तित्व बिगड़ भी सकता है। इसलिये प्रत्येक व्यक्तित्व का उचित आदर करना आवश्यक है।
उनके व्यक्तित्व का सम्मान किया जा रहा है, ये बात विद्यार्थियों के ध्यान में आना भी आवश्यक है। इसका अर्थ ऐसा नहीं कि बच्चों के दुर्गुणों, दोषों का अथवा प्रत्येक कृति का समर्थन करें! परन्तु पालक, शिक्षक, विद्यार्थियों के जैसा व्यवहार करते हैं, उनके साथ जैसी भाषा का प्रयोग करते हैं, उसी से सम्मान अथवा अपमान व्यक्त हो जाता है, भावना व्यक्त हो जाती है। बड़ों ने अपनी बाल्यावस्था की यादें, प्रसंग स्मृतिपटल पर लाने का प्रयास किया तो अपने साथ किस प्रकार का व्यवहार हुआ था, किस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया गया था, और उसका अपने मन पर क्या प्रभाव पड़ा था, ये समझ सकेंगे। थोड़ा विगत समय का अवलोकन करें तो ‘स्व’, ‘मान-अपमान’, ‘आनंद-दुःख’ आदि सब समझने में आसानी होगी। जो शब्द हमें चुभे थे, जो भाषा हमें पसन्द नहीं आती थी, उस प्रकार का प्रयोग अपने बच्चों पर न करें, इतना भी समझ में आ जाए तो बच्चों का मान रखा जाएगा।
प्राणिमात्र में ईश्वरीय अंश है, ऐसा मानने वाली हमारी संस्कृति है। हम यदि इस संस्कृति के पूजक हों, स्वाभिमानी हों, तो बच्चों में और स्वयं में भी ईश्वरीय अंश है, ऐसी आस्था का अनुभव होगा। स्वाभाविक रूप से उस बच्चे को सम्मान अर्थात् ईश्वर को सम्मान देने जैसा होगा।
अवसर मिलने पर यह भावना व्यक्त करनी चाहिये। दुर्भाग्य से अनेक अवसर पर हम खुले मन से किसी की सराहना करने, किसी अच्छी बात पर उसकी प्रशंसा करना, कोई बात पसंद आने पर उसे व्यक्त करना, में हम कंजूसी कर जाते हैं। मन में बात पसंद आने पर भी हम उसे व्यक्त नहीं कर पाते। निरपेक्ष रूप से गुणों की प्रशंसा करना और केवल दिखावटी रूप से तारीफ़ करना, इनमें अंतर है। दिखावटी तारीफ करने वाले अनेक मिलेंगे।
शिक्षक बच्चों की उपस्थिति अंकित करते हैं। उपस्थिति पंजी में बच्चों के नाम के समक्ष उसकी जन्म दिनांक लिखी होती है। अतः यदि बच्चे का जन्मदिवस हो तो उपस्थिति लेते समय बच्चे को शुभेच्छाएं व्यक्त करना शिक्षक के लिये उचित नहीं होगा क्या? परन्तु ये तब होगा जब बच्चे के प्रति वात्सल्य, स्नेह, ममत्व का भाव मन में हो। यह शुभेच्छा व्यक्त करने की कृति भी मान रखना है। अनेक शिक्षक उपस्थिति लेते समय बच्चों के नाम न पुकारते हुए क्रमांक बोलते है। विद्यार्थी को उसके क्रमांक से सम्बोधित करना – इसका अर्थ मानवी चेहरा लुप्त होना नहीं है क्या? मनुष्य की क्रमांक द्वारा पहचान अस्पताल अथवा कारागार में होती है। शाला को कारागार बनाने वाले से क्या अपेक्षा की जाये? दुनिया में, सभी भाषाओं में, मधुर और चाहतभरी आवाज यदि कोई है तो वह है व्यक्ति का स्वयं का नाम! प्रत्येक व्यक्ति को अपने नाम का उल्लेख, उच्चारण अत्यंत मधुर लगता है।
घर की बातों के सम्बन्ध में बच्चे का क्या विचार है, उनका अभिमत आदि पालकों द्वारा जानने का प्रयास करने से घर का वातावरण शांतिपूर्ण रहेगा। प्रत्येक बात में उनके विचार उचित होंगे ही यह आवश्यक नहीं, फिर भी उन्हें पूछा जा रहा है, अपने से बात हो रही है, इससे बच्चों की स्वंय के बारे में योग्य धारणा निर्मित होती है। उनके ‘स्व’ विषयक विकास के लिये यह उचित है। परीक्षा, स्पर्धाएं वार्षिकोत्सवों में सहभाग, उनमें प्राप्त पुरस्कार आदि ऐसे अवसर आते है, जब पालक, शिक्षक बच्चों को शुभेच्छाएं व्यक्त कर उनका उत्साहवर्धन कर सकते हैं । ऐसे अवसरों का उपयोग कर पालक, शिक्षक, विद्यार्थी का आपस में स्वस्थ नाता निर्मित हो सकता है।
ऐसे नाते के आधार पर ही बच्चों के सर्वागीण विकास की दिशा और गति का समन्वय हो सकेगा।
(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)
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