बच्चे झूठ क्यों बोलते हैं?

 – दिलीप वसंत बेतकेकर

मार्च 1992 के ‘‘रीडर्स डायजेस्ट’’ के अंक में पॉल एक्मन का लेख “When your child lies”  (जब आपका बच्चा झूठ बोलता है) प्रकाशित हुआ। एक्मन प्रख्यात मानसशास्त्रज्ञ थे। उन्होंने “मनुष्य के झूठ बोलने की आदत” के विषय में बीस वर्ष तक अध्ययन किया है। “बच्चों के झूठ बोलने की आदत” के सम्बन्ध में भी गहन अध्ययन किया है। उनके अध्ययन के अनुसार बहुसंख्य बालक झूठ बोलना अपने पालक से सीखते हैं। अतः पालकों को अपनी झूठ बोलने की आदत के बारे में विचार करना चाहिये। पालक जानबूझ कर झूठ बोलते हैं, ऐसा अर्थ नहीं परन्तु बच्चों की दृष्टि से वह असत्य होता है।

इसीलिये पालकों को इस सम्बन्ध में सावधानी बरतनी होगी, जागरुक रहना होगा। एक्मन के मतानुसार झूठ बोलने वाले बालक झूठ बोलने वाले परिवार से ही होते हैं, अथवा पालक नियम भंग करने वाले होते हैं। उन्होंने अपने ही पुत्र का अनुभव लिखा है। उनके पुत्र टॉम ने झूठ बोला। परन्तु इस संदर्भ में अध्ययन करने पर ज्ञात हुआ कि टॉम की माँ ‘मेरी एन’ ने इस घटना से पूर्व आठ बार झूठ बोला था। उदाहरण के लिये – ‘नो पार्किंग’ के स्थान पर उसने अपनी गाड़ी खड़ी की और इस कारण वाहन नियंत्रक द्वारा उसे दण्ड दिया गया परन्तु उस दण्ड से बचने के लिए वह झूठ बोलीं। इसका परिणाम बच्चे पर हुआ।

बच्चों के साथ स्पष्ट बोलना उचित रहता है, ऐसा एक्मन का मत है। अपनी ग्यारह साल की बच्ची के जन्मदिन के अवसर पर उसकी सहेलियों को निमंत्रित करना संभव नहीं हो पा रहा था। परन्तु बच्ची इस सम्बन्ध में झूठ न बोले, ऐसी इच्छा के कारण उन्होंने बच्ची से स्पष्ट बात करके उन्हें बुलाने में क्यों असमर्थ हैं, यह बता दिया और वह अपनी सहेलियों को भी सत्य कारण बता दें, झूठ न बोलें, ऐसा सुझाव दिया। इससे अपने आप को हीन न समझे, ऐसा भी समझाया।

पालकों द्वारा बच्चों को विश्वास में लेने से अनेक समस्याएं हल हो जाती हैं। इसके लिये पालकों को संयम रखना और समय निकालना आवश्यक है। अनेक पालकगण बच्चों को स्वयं निर्णय लेने की सुविधा का लाभ नहीं मिलने देते। बच्चों के प्रत्येक कार्य में, छोटी-छोटी क्रियाओं में दखल देने की आदत होती है। इसका विपरीत प्रभाव बच्चों पर पड़ता है।

पॉल के मतानुसार बच्चों के मित्रगण कौन और किस प्रकार के हैं? उनका व्यवहार कैसा है? इस ओर ध्यान देना पालक के लिये आवश्यक है। झूठ बोलने वाले मित्र होने पर बच्चे भी झूठ बोलते हैं, ऐसा देखा गया है। न्यायाधीश के समान व्यवहार कर बच्चे से गलती मान्य करवाने में कुछ पालक संतोष का अनुभव करते हैं। इस दबाव से बच्चे अपनी गलती स्वीकारते तो हैं, परन्तु वे उस गलती को दोहराएंगे नहीं, ये निश्चित नहीं कह सकते।

इसलिये दबाव या जिद्द से बच्चे की भूल-चूक कबूल करवाने की अपेक्षा वे दोबारा ऐसी भूल न करें, ऐसी समझाइश देकर उनका मन तैयार करें, ये महत्वपूर्ण और उचित होगा, ऐसा एक्मन का मानना है। पाल्य और पालक, इनका आपस में विश्वास का नाता निर्मित होना चाहिये, इस हेतु पालक की भूमिका महत्वपूर्ण है, ऐसा पॉल का मत है।

अनचाहे ही किसी बात को उस समय टालने हेतु बड़े लोग बच्चे को अनायास ही झूठ कह देते हैं। बच्चे को विश्वास हो जाता है और कुछ दिनों बाद बच्चे को ध्यान में आता है कि उसे झूठ कहा गया था। तब परिस्थिति विषम हो जाती है। जैसे, बच्चा घर के वरिष्ठ सदस्य के साथ बाहर जाने के लिए जिद्द करता है। उसे साथ ले जाना उस समय वास्तव में संभव नहीं है और इस कारण बच्चे को कहा जाता है, “मैं डॉक्टर के पास जा रहा हूँ। तुम साथ आये तो डॉक्टर इंजेक्शन लगा देंगे तुमको”! बच्चा विश्वास करता है। परन्तु बाद में कभी आप डॉक्टर के पास गये ही नहीं ये बात जब उसे पता लग जाती है तो उसे ध्यान में आता है कि उसके साथ झूठ बोला गया। फिर वह स्वयं भी झूठ बोलने लगता है। इसकी अपेक्षा हम जहां जा रहे हैं उसे सच बताएं। इस पर वह जिद्द कर सकता है। ‘हम नहीं ले चलेंगे’ कहने पर रो सकता है, हंगामा मचा सकता है, परन्तु झूठ बोलना नहीं सीखेगा और हम अपना विश्वास नहीं खोएंगे!

और एक अन्य उदाहरण। पिता से मिलने कोई घर पर आता है। पिताजी उस समय अतिथि से मिलने के इच्छुक नहीं होते। ऐसे में पिता बच्चे को कहते हैं, “बाहर जाकर उनसे कहो कि पिताजी घर पर नहीं हैं।” पिता की आज्ञा का पालन बच्चा करता है। परन्तु वहीं से बच्चा झूठ बोलना प्रारंभ करता है।

पालक अथवा शिक्षक से अकारण ही भय लगता हो तब डाँट-पफटकार, पिटाई से बचने हेतु बच्चे झूठ बोलते हैं।

इसका हल क्या हो?

इसका उत्तर इतना सीधा, सरल नहीं है। एक्सन के मतानुसार पालक को चाहिये कि वे बच्चों की हर छोटी-छोटी बात में दखलंदाजी न करें। थोड़ा स्वातंत्रय उन्हें भी दें। बच्चों से मित्रता का व्यवहार करें। विश्वास का वातावरण निर्मित करें। आवश्यकतानुसार अधिक शिथिलता न करते हुए उसकी गलती होने पर अवश्य उचित दंड दें अर्थात् सभी बच्चों के साथ और प्रत्येक प्रसंग पर एक समान उपाय करना संभव नहीं है, उचित नहीं है।

(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)

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