– डॉ विकास दवे
प्रिय बिटिया!
सिक्के के दो पहलू होते हैं। सत्य के साथ असत्य भी होता है, अच्छाई के साथ बुराई भी होती है, प्रकाश के साथ अन्धकार भी होता है। हम जब अपना इतिहास देखते हैं तो ऐसे ही कुछ अनुभवों से गुजरना पड़ता है। राणा, शिवा की इस धरती पर जयचन्द और मीर जाफर भी पैदा होते हैं। सोचकर शर्म से सर झुक जाता है कि ऐसे राष्ट्रद्रोही भी इस धरती पर पैदा हुए हैं। ये न होते तो शायद आज हमारा इतिहास कुछ और ही होता।
‘अलीपुर बम कांड’ के बाद एक नाम आम जनता और क्रांतिकारियों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ था और वह नाम था नरेन्द्र गोस्वामी का। लेकिन यह नाम श्रद्धा और सम्मान के साथ नहीं, घृणा के साथ लिया जा रहा था। गोस्वामी ने एक बार फिर जयचंद की परम्परा को आगे बढ़ाया था। ‘बम कांड’ के नाम पर वह कई क्रांतिकारी साथियों के नाम पते अंग्रेजों को बताकर सरकारी गवाह बन गया था। यही नहीं कई तो ऐसे साथियों को भी फंसवा दिया था, जिनका ‘बम कांड’ से सीधा कोई संबंध नहीं था। और इतना करने के बाद खुद को सुरक्षित रखने के लिए अपने आपको बीमार घोषित करवाकर अस्पताल में भरती हो गया। वह एक विशेष कक्ष था जिसमें केवल अंग्रेजों को ही रखा जाता था। कड़ी सुरक्षा व्यवस्था ऐसी कि परिन्दा भी पर नहीं मार सके। इधर क्रांतिकारियों में दो नर नाहर ऐसे भी थे जो नरेन्द्र को सजा देने का पूरा मन बना चुके थे। अस्पताल में अगले ही दिन एक रोगी भरती हुआ और उसके बाद पेट दर्द से कराहता हुआ एक और रोगी लाया गया, जो दर्द से बुरी तरह तड़प रहा था। बेचारे अंग्रेज चिकित्सकों को क्या पता था कि ये तो राष्ट्रभक्ति के रोग से पीडि़त मरीज हैं जिनका इलाज गद्दारों का रक्त बहाकर ही किया जा सकता है। और फिर मरीजों ने धीरे से एक संदेश नरेन्द्र गोस्वामी तक पहुंचाया – ‘हम भी रोज-रोज की इन तकलीफों से मुक्त होना चाहते हैं। हम भी सरकारी गवाह बन सकें इस हेतु आकर सामान्य वार्ड में मुलाकात करो।’ बेचारा नरेन्द्र प्रसन्नता से अंग्रेज अधिकारियों के साथ चल दिया। अचानक अन्दर से फायरिंग की आवाज सुनाई दी, किन्तु निशाना चुक गया। धांय-धांय, भाग दौड़, अफरा तफरी हुई लेकिन जाते-जाते एक गोली काम कर गई और धरती के एक गद्दार का बोझ कम हो गया। ये दोनों मरीज और कोई नहीं प्रसिद्ध क्रांतिकारी कन्हाईलाल दत्त और सत्येन्द्र बसु थे। फिर तो वही होना था जो होता आया था – गिरफ्तारी, मुकदमा और फिर सजा। सब कुछ मानो तय ही था। हाँ! वह नवम्बर माह ही तो था जब इन दोनों को फाँसी की सजा दी गई थी। कन्हाईदत्त ने 10 नवम्बर को और सत्येन्द्र बसु ने 21 नवम्बर को हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे को चूमा और झूल गए मौत की गोद में।
मरते दम तक होठों पर एक ही नारा था- ‘वन्दे मातरम्’।
प्रसिद्ध राष्ट्रवादी कवि मा. श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने सच ही कहा है –
‘अपराध स्वयं, यदि देश-द्रोह हो जाय क्षम्य
यह क्षमादान सचमुच ही भारी घातक है,
जो देश मिटाने वाले, क्षमा उसको कैसी
यह क्षमादान सम्पूर्ण देश को घातक है।’
-तुम्हारे पापा
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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