बेटा नहीं बेटी

✍ गोपाल माहेश्वरी

निपुण शाला से लौट कर आया और मैदान में खेलने चला गया। कबड्डी और खो-खो उसकी मित्र मंडली के प्रिय खेल थे। खूब जमकर खेलते। सर्दियों में भी पसीना उनका बहने लगता। उसकी जुड़वाँ बहिन कला की सहेलियाँ भी तो आ गईं। वे घर के बाहरी दालान में खेलतीं। खो-खो, कबड्ड़ी वे भी अच्छा खेल लेतीं हैं लेकिन उनकी टीम प्रायः अधूरी ही रहती है। आज रुचि नहीं आई तो कल प्रभा, कभी कोपल को माँ ने रोक लिया तो कभी किसी का कोई व्रत निकल आया। आज रेखा व रश्मि कहाँ आए थे।

कला ने दादी से पूछ ही लिया “दादी! बचपन से ही ये सारे व्रत उपवास हम लड़कियों को ही क्यों करवाए जाने लगते हैं?” दादी को तो जैसे प्रश्न ही न भाया था तो उत्तर भला क्यों देतीं? माँ भी तो वहीं थीं, कला ने उनकी ओर देखा अभी मुँह खोला भी न था कि उसकी माँ धरा पहले ही बोल पड़ीं “अभी कुछ नहीं हो समझी? ढेरों काम पड़े हैं घर के। बातों से पेट नहीं भरता उसके लिए हम महिलाओं को बिना छुट्टी सुबह-शाम चौका चूल्हा सम्हालना पड़ता है समझ गई न? “माँ के काम से तो नहीं लगता था कि वे रसोई का काम बिना मन के करती हैं पर उनका स्वर बात में जैसे कोई गड़ी हुई फाँस जैसी पीड़ा का आभास हो रहा था। दो पल का सन्नाटा फिर सब्जियों की टोकरी और चाकू थमाते हुए माँ बोली “कबड्डी खो-खो बहुत जरूरी न हो तो ये साफ कर दो आपके पिता जी अपने दोस्तों को न्यौता दे आएँ हैं शाम के भोजन का, निपुण को भी खेल से आते ही खाना चाहिए।”

रुचि व महिमा ने दरवाजे पर ही यह बात सुन ली वे लौट जाने को पलट चुकीं थीं। कला ने जानते हुए भी उन्हें अनदेखा कर दिया। जबकि सब सहेलियों की यही थोड़ी-बहुत यही कहानी थी पर फिर भी वे इसके प्रकट होने पर विचित्र-सी झिझक अनुभव करती थीं। खैर, कला का अनुत्तरित प्रश्न बड़ा ढीट था, उसकी सहेलियों की तरह लौट नहीं गया बल्कि उस के संगी साथी और जुटने लगे जैसे चोंट लगते ही निपुण के दोस्त उसे घेर लेते हैं।

बैठक में उसके पिता सुशांत बैठे थे। वे बच्चों के पिता कम पर दोस्त अधिक लगते थे, उम्र से नहीं, बातों से। कला सब्जी की टोकरी लिए उनके सामने जा बैठी। बिना पूछे या कहे ही सुशांत ने हाथों में पकड़ी बाल पत्रिका देवपुत्र मेज पर रख दी और सब्जी साफ करवाने लगे, इसका एक अर्थ स्पष्ट था वे कला से बातें करने को भी तैयार हैं। तभी दादी उधर आ निकलीं, यह दृश्य उन्हें जँचा नहीं। कला तो उधर पीठ होने से उन्हें देख न पाईं  पर सुशांत ने देख लिया और उनके हावभाव समझकर कोई टोकाटाकी के पहले ही हाथ से इशारा कर उन्हें रोक दिया।

“खेलने नहीं गई आज?” सुशांत बेटी के मन का गुबार निकालने के लिए बोले।

“भैया गया है।”

“तुम नहीं गईं?”

“सब्जी साफ करना है हमें।” कला अनमनी सी बोली। माँ ने उधर आते हुए संभवतः यह सुन लिया था तभी तो वे बोली “हमें नहीं, मुझे कहो। काम तुझे बताया है इनका काम नहीं है यह।” गुस्से में टोकरी उठाकर रसोई में चल दीं।

बिना बात वातावरण भारी हो चला पिता ने पुत्री का हाथ पकड़ा और बोले “चलो बेटा! हम जरा बाहर टहल आएँ। “माँ व्यंग्य से ऊँची आवाज में बोली” हाँ, मैं थाली परोस कर रखूँगी तब तक आप लोगों के लिए।” सुशांत जानते हुए कि इस बात पर कुछ कहना ठीक नहीं है। वे पत्नी की पीड़ा भी समझ रहे थे। कला की ओर देख कर बोले “चलो बेटा!” आज घर में अतिथि आमंत्रित थे इसलिए कोई वाद-विवाद बढ़ाना भी ठीक न था। लेकिन दादी बीच में कूद पड़ीं, बोलीं “बेटा-बेटा करके इसे खूब सर चढा़ ले, पर याद रखना एक दिन पराए घर भेजना है इसे।” अब सुशांत को चुप रह जाना अच्छा नहीं लगा बोला “कैसी बात कर रही हो माँ! बच्ची है। फिर पढ़-लिख कर योग्य बन जाएगी और पराए नहीं अपने घर जाएगी यह। क्यों बेटा!”

“बेटा नहीं हूँ मैं, मत कहो मुझे बेटा।” कला फट पड़ी। जहाँ अपनत्व गहरा होता है गुस्सा भी वहीं निकलता है।

“क्या हो गया भाई तुझे? मैंने क्या बिगाड़ा है तेरा?” सुशांत चौंके।

“सब कुछ आपने ही बिगाड़ा है।”

“वह कैसे?” सुशांत शांत व गंभीर थे।

“माँ, दादी सब मानते हैं मैं खेलूँ, घूमूँ, पढ़ूँ तो बिगड़ जाऊँगी। पहला यह बिगाड़, ठीक है?”

“नहीं बेटा! तुम्हारी माँ भी पढ़ी लिखी है, संगीत में एम.ए.। वे खुद ले गईं थीं तुम्हें शाला में भर्ती कराने।” फिर वातावरण हल्का बनाने के लिए अवनी को सुनाते हुए बोले “बस कभी कभी सुर बिगड़ जाते हैं बेटा! और कुछ नहीं।” अवनी सुन न पाई अन्यथा कोई कड़ा उत्तर भी मिल सकता था इस बात पर।

“दूसरे, यह घर या वह घर एक अपना एक पराया यह तो पक्का सूत्र है न? मुझे घर छोड़ना है कभी न कभी चाहे यह पराया या वह पराया। आप सबकी मेरे लिए मुख्य योजना, उसी की तैयारी। भले अभी मैं दसवीं में ही क्यों न होऊँ।”

“पर बेटा! एक न एक दिन तो…”

“उस एक न एक दिन के पीछे बाद के तो भगवान जाने पर पहले के भी सब दिन बलिदान कर दो, है न?”

“बेटा! ऐसा नहीं है पर ..”

“इस पर ने ही मेरे बचपन के पर कतर दिए हैं पिताश्री! और यह आपने बेटा बेटा क्या लगा रखा है? बेटी हूँ मैं आपकी लड़कीsssहूँ ल..ड़..की।”

“मेरे लिए बेटे से कम नहीं हो एक शाला, एक कक्षा, एक विषय। जुड़वाँ जो हो अपने भाई की।” सुशांत मुस्कुराते हुए बोले कि कला का मन शांत हो जाए पर कला तमतमा रही थी” जुड़वाँ हूँ तो मुझे वही पढ़ना होगा जो निपुण पढ़े? आपने सोचा एक ही विषय एक ही कक्षा रहेगी तो अलग से ध्यान न रखना पड़ेगा लड़की पर। भले ही मैं अलग विषय पढ़ना चाहूँ। निपुण जो पढ़़े मैं भी पढ़ लूँ? पराए घर तो भेजना ही है मुझे।”

“निपुण नहीं भैया।” अवनी ने टोका।

“और उसे कब सिखाएंगी कि वह मुझे नाम से न पुकारे? हम जुड़वाँ हैं न मैं बस कुछ पलों बाद आई संसार में तो छोटी हो गई?”

तभी निपुण खेलकर आया। उसे यहाँ का कुछ हाल तो पता ही न था। आते ही सोफे पर पसरा और बोला “ऐ कला! जरा पानी पिला दे।”

माँ बोली “मैं लाती हूँ बेटा!”

कला तपाक् से बोली “बेटा नहीं, बेटी कहो इसे एक बार। बेटा बेटी एक समान हैं न? तो मुझे बेटा कहते हो इसे बेटी कहो जरा एक बार।”

निपुण समझदार था। बहिन की भावना और योग्यता दोनों से परिचित था। उसने रसोई में जाकर पानी पी लिया और और सब्जी की टोकरी उठा कर लाते हुए बोला” ओफ्फो! इस सब्जी ने फिर हमारी बहिन को खेलने से रोका होगा, मुझे कहा होता तो मैं भी रुक जाता।” फिर कला की ओर देख कर बोला “बेटी बन कर।” कला भी मुस्कुराते हुए हाथ से टोकरी लेकर हुए नाटकीय स्वर में निपुण से बोली “आज का हो चुका, कल मैं खेलने जाऊँगी तब यह करना बेटीs!”

‘बेटी’ सुनकर सभी खिलखिला कर हँस पड़े। दरवाजे पर अतिथि आ चुके थे कला को देख कर पूछा “कैसी हो बेटा!” कला बोल पडी़ “बेटा नहीं बेटी, बेटी, बेटी।” अतिथि तो कुछ समझ न पाए पर दादी साड़ी के पल्लू में मुँह छुपाए हँस रही थीं। सामने दीवार पर देवी अहिल्याबाई का चित्र लगा था लगा भारत की इस बेटी के मुख पर एक अलग भरोसे भरा आनंद खिल रहा था।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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