राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 और आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र

 – शशि रंजन

 – डॉ० शिरीष पाल सिंह

शिक्षा के दर्शन में आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र ऐसा दर्शन है जो लोकतांत्रिक रूप से सीखने की प्रक्रियाओं को प्रोत्साहित करता है एवं एक शैक्षिक क्रांति करने के लिए सैद्धांतिक आधार प्रदान करता है। व्यावहारिक रूप से, कक्षा में आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र के द्वारा सीखने वाले समुदाय में शिक्षक और विद्यार्थी शामिल होते हैं जो विभिन्न प्रकार के ज्ञान के स्रोतों का सम्मान करते हैं एवं वे उन्हें स्वयं तक ही सीमित नहीं रखते अपितु वे यथास्थिति को गले लगाते हैं और इन स्रोतों के माध्यम से सत्य और अर्थ की खोज करते हुए यथास्थिति को चुनौती देते हैं, साथ ही सत्य और अर्थ की खोज यानि ज्ञान का सृजन करते हैं (किन्चेलोए, 2007; बीने एवं एप्पल, 2007; फ्रेरे, 1997; हुक्स, 1994; विंक, 1997)। आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र के सुप्रसिद्ध चिंतक पाउलो फ्रेरे ने आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र को एक व्यावहारिक उन्मुख ‘शैक्षिक आंदोलन’ के रूप में विद्यार्थी-केंद्रित, आलोचनात्मक और लोकतांत्रिक शिक्षण शास्त्र बताया है। यह शिक्षण शास्त्र किसी भी विषय वस्तु के लिए एक अभ्यास है। यह स्वयं और सामाजिक परिवर्तन के लिए उन्मुख है। यह विद्यार्थियों को स्वतंत्रता की चेतना विकसित करने में मदद करता है। आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र को विचारों की आदतों के रूप में माना जा सकता है। यह कोई विधि नहीं है वरन् यह भूलना, सीखना और पुनः सीखना, चिंतन और मूल्यांकन करने की एक सतत प्रक्रिया है जिसका प्रभाव विद्यार्थियों या व्यक्तियों की प्रमुख धारणाओं की सतह के नीचे चेतना को भेदना और प्रभावित करना है (किन्चेलोए, 2011)। इस प्रक्रिया का उद्देश्य शुरू में भ्रम की स्थिति पैदा करना है जिससे सूचना प्रवाहित होती है फिर किसी बिंदु पर भ्रम को वैकल्पिक रूपों अथवा विचारों का नाम दिया जाता है अर्थात् भ्रम आलोचनात्मक रूप से प्रतिबिंबित करने और तार्किक कार्य करने के लिए एक निश्चित रूप धारण कर लेता है (विंक, 2005)। आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र शिक्षण और सीखने के बीच का संबंध है। यह कक्षा में एक संवाद के रूप में आकार लेता है जहां शिक्षक और विद्यार्थी एक दूसरे का रोजमर्रा के विषयों, शैक्षणिक सामग्री और सामाजिक मुद्दों की जांच करने में सहयोग करते हैं। ज्ञान, मूल्यों, विश्वासों और कौशल के उत्पादन के लिए परिस्थितियों की महत्वपूर्ण और लोकतांत्रिक समस्या प्रस्तुत करने वाले ढांचे में सावधानीपूर्वक तैयार किए गए निर्देशित संवाद के माध्यम से विद्यार्थी स्वयं सीखने के सक्रिय एजेंट के रूप में बन जाते हैं।

आलोचना की प्रकृति और आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र के सामने आने वाली चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए, क्या आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र वास्तव में मायने रखता है? यदि हम इन प्रश्नों का हल ढूंढे तो इसका जबाव हमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 देती है जिसने अध्यापन एवं शिक्षण के प्रारंभिक स्तर से लेकर शिक्षण के उच्च स्तर तक आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र को लागू करने के लिए विभिन्न प्रावधान दिए हैं जिसमें शिक्षण एवं अध्यापन के सभी स्तरों पर शिक्षण के दौरान विद्यार्थियों से कक्षा में गतिविधि कराना, समूहों के माध्यम से संवादात्मक कक्षा का निर्माण करना, अनुभव के आधार पर अपने सहपाठी एवं शिक्षक के ज्ञान में वृद्धि करना, विश्लेषण के द्वारा सही एवं गलत में तर्क करना, खोज के माध्यम से अपनी जिज्ञासा को शांत करना, समस्या-समाधान विधि द्वारा किसी समस्या का समाधान स्वयं या सहपाठी समूह अथवा शिक्षक की सहायता से समाधान को प्राप्त करना, आलोचनात्मक चिंतन जागृत करना एवं तार्किक सोच आधारित शिक्षण शैली का कक्षा-कक्ष में प्रयोग करने की बात कही है जिससे विद्यार्थियों में वास्तविक समझ को विकसित किया जा सके और वे अपनी जीवन की महत्वपूर्ण आकांक्षाओं को स्वयं पूर्ण कर सकने में सक्षम हो सकें। साथ ही स्पष्ट शब्दों में यह भी कहा गया है कि पाठ्यक्रम निर्माण से लेकर कक्षा शिक्षण तथा अधिगम (सीखना) से लेकर मूल्यांकन (कितना सीखा) तक सभी कुछ आलोचनात्मक एवं तार्किक रूप से निर्धारित किया जाना चाहिए। शिक्षकों के द्वारा पारंपरिक या प्रगतिशील पाठ्यक्रम से ज्ञान के संबंध में विद्यार्थी जो पहले से जानते हैं उनके रोजमर्रा के जीवन की वास्तविकताओं से जोड़ने हेतु जिज्ञासा, संवाद एवं समस्या प्रस्तुत करना सबसे अच्छा माध्यम है लेकिन हमारे सामने प्राथमिक चुनौती यह है कि नए सीखने के अनुभवों की अपेक्षा सीखे गये नए अनुभवों को स्वीकार करने के लिए विद्यार्थियों और शिक्षकों का पुन: समाजीकरण करना है। विद्यार्थियों को किसी भी नए सीखने के अनुभव या गतिविधि के साथ विशेष रूप से आलोचनात्मक अभ्यास वाली कक्षा के भीतर एक निश्चित मात्रा में होने वाली असुविधा के लिए खुद को फिर से तैयार करने की आवश्यकता है जिससे विद्यार्थी पहले की अपेक्षा अधिक तार्किक, आलोचनात्मक एवं सशक्त बनें।

पाउलो फ्रेरे आशा की शिक्षण शास्त्र पुस्तक में लिखते हैं कि ‘कल के लिए एक दृष्टि के बिना, आशा असंभव है’। अर्थात् कल की मेरी दृष्टि मेरे विद्यार्थियों द्वारा वर्तमान से अधिक बेहतर रूप में बदली हुई दुनिया है। एक शिक्षक के रूप में, मुझे लगता है कि मेरी भूमिका विद्यार्थियों को केवल ऐसे उपकरण प्रदान करने की नहीं है जो उन्हें महाविद्यालय और उनके करियर में सफल होने में मदद करेंगे वरन् जो उन्हें चिंतनशील और आलोचनात्मक व्यक्ति बनने के लिए मार्गदर्शन करेंगे (फ्रेरे, 1997)। फ्रेरे के इस उद्देश्य को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के माध्यम से पूर्ण किया जाने का प्रयास किया गया है जहाँ यह कहा गया है कि विद्यार्थी न सिर्फ ज्ञान का अर्जन करे अपितु अर्जित ज्ञान से माध्यम से अपनी समस्याओं का समाधान करते हुए समाज के लिए उपयोगी बने। क्योंकि आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र एक शैक्षिक दृष्टिकोण है जो विद्यार्थियों को प्रमुख सिद्धांतों को पहचानने और आलोचना करने तथा सामाजिक संदर्भ में उनका मूल्यांकन करने की क्षमता विकसित करने की चुनौती देता है। शिक्षक विद्यार्थियों को उत्पीड़न की पहचान करने और उनकी संस्कृति में हो रहे उत्पीड़न को दूर करने का प्रयास करने के लिए जागरूक करते हैं जिससे समाज में समानता स्थापित किया जा सके। ऐतिहासिक रूप से, आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र के विचार स्कूलों में निहित है और आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र के लिए कक्षा एक अद्वितीय चर्चात्मक स्थान है क्योंकि कक्षा में होने वाले सभी वाद-विवाद आलोचनात्मक रूप से महत्वपूर्ण हैं। यह स्वाभाविक रूप से संवादात्मक चर्चा को बढ़ावा देता है जो आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र को ध्यान में रखते हुए कक्षा के केंद्र में एक अंतर्निहित समझ को विकसित करने में मदद करता है कि शिक्षकों और विद्यार्थियों द्वारा प्रतिदिन कक्षा में बातचीत की जानी चाहिए।

  1. आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र के अनुसार कक्षा को एक ऐसी सामाजिक लघुतम स्वरुप की तरह या सूक्ष्म जगत के रूप में व्यवस्थित किया जाना चाहिए जो विद्यार्थियों को कक्षा की गतिविधियों, विषय की खोज और सीखने के प्रतिबिंबों में सहयोगात्मक रूप से शामिल करने के लिए प्रोत्साहित करता हो।
  2. आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र कक्षा में सबसे शक्तिशाली शैक्षणिक दृष्टिकोणों में से एक है क्योंकि इसमें शिक्षक एक संरक्षक या कोच बन जाता है जो विद्यार्थियों को सीखने के लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करता है। विद्यार्थी सीखने के लिए सामूहिक कौशल और विशेषज्ञता का उपयोग करके एक साथ काम कर सकते हैं और सोच सकते हैं, जोड़ी बना सकते हैं एवं साझा काम कर सकते हैं।
  3. प्रभावी शिक्षण के रूप में कक्षागत संस्कृति में वास्तविक दुनिया के परिदृश्यों और समस्या-समाधान गतिविधियों का उपयोग किया जा सकता है। यह दृष्टिकोण विद्यार्थियों को कौशल का एक नया अनुप्रयोग और कक्षा के बाहर उनके जीवन में यह ज्ञान कैसे फिट बैठता है, इसका बेहतर विचार दे सकता है।
  4. शिक्षक कक्षा में शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को अधिकतम तथा अनुकूलतम परिस्थिति उत्पन्न करने के लिए कक्षा में संवाद पर ध्यान केंद्रित करके प्राप्त कर सकते हैं। फ्रेरे के अनुसार, शिक्षकों को अंतःक्रियात्मक रूप से सिखाना चाहिए। शिक्षण और अधिगम एक अंतःक्रियात्मक तरीके से होता है जहां शिक्षक और विद्यार्थी दोनों अपनी भूमिकाओं का आदान-प्रदान करते हैं और अपने विचार साझा करते हैं। इस प्रकार यह शिक्षक और विद्यार्थी के बीच एक पारस्परिक संबंध विकसित करता है।
  5. संवाद में प्रश्नों के उपयोग के माध्यम से विद्यार्थियों को सीखने और सोचने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। संवाद शिक्षण को कक्षा में बातचीत को बढ़ावा देने के साधन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो प्रतिभागियों को अपने विचार साझा करने और सहयोगात्मक रूप से अर्थ बनाने में मदद करने के संवादों और वाद-विवाद के लिए एक जगह प्रदान करता है।

उपर्युक्त सभी तथ्यों को कक्षा में लागू करने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पैरा 4.2 में भी विस्तार से कहा गया है। हमारा जीवन कैसा हो? हमारा समाज का भविष्य कैसा हो? यह सब मायने रखता है क्योंकि एक समतामूलक, लोकतांत्रिक एवं उत्पीड़न से मुक्त समाज के निर्माण से ही एक विद्यार्थी या व्यक्ति का सर्वंगीण विकास होगा एवं गाँव, राज्य एवं देश की उन्नति तथा शांतिपूर्ण व्यवस्था स्थापित हो सकती है जैसा कि कहा जाता है – बच्चा (विद्यार्थी) ही देश के भविष्य का निर्माता है और यह तभी संभव है जब विद्यार्थियों में आलोचनात्मक चिंतन, तर्क करने की शक्ति, यथास्थिति को चुनौती, स्थानीय ज्ञान को वैश्विक ज्ञान के साथ जोड़ने, समस्या-समाधान की रणनीति आदि की क्षमता का विकास हो। इसलिए आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र वर्तमान संदर्भ में महती रखता है क्योंकि उपर्युक्त संदर्भ की क्षमता के विकास हेतु कक्षागत संस्कृति में आलोचनात्मक शिक्षण शास्त्र को अपनाना आवश्यक है। यह शिक्षण शास्त्र हमारी धारणाओं को चुनौती देता है और हमें नए, दिलचस्प और प्रासंगिक प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित करता है। यह शिक्षण शास्त्र सकारात्मक परिवर्तन को प्रोत्साहित करता है और यथास्थिति में परिवर्तन को आवाज देता है।

संदर्भ

किन्चेलोए, एल. जे. (2011). क्रिटिकल पेडागोजी इन द ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी. इनफार्मेशन ऐज पब्लिशिंग, इंक.

गिरौक्स, एच. ए. (2007). डेमोक्रेसी, एजुकेशन, एंड द पॉलिटिक्स ऑफ़ क्रिटिकल पेडागोजी. इन पी. मक्लारेन एंड जे. किन्चेलोए (एडिशन), क्रिटिकल पेडागोजी: वेयर आर वि नाउ?, न्यू यॉर्क: पीटर लंग पब्लिशिंग. 1-5.

फ्रेरे, पी. (1997). पेडागोजी ऑफ़ द हार्ट. न्यूयॉर्क. कंटीन्यूम.

बीने, जे. ए. एवं एप्पल, एम. डब्ल्यू. (2007). चैप्टर 1; द केस फॉर डेमोक्रेटिक स्कूलस. इन जे. ए. बीने एंड एम. डब्ल्यू. एप्पल (संस्करण) डेमोक्रेटिक स्कूलस: लेसंस इन पावरफुल एजुकेशन. पोर्ट्समाउथ, एनएच.: हेंएमन्न. 6-20.

भारत सरकार. (2020). राष्ट्रीय शिक्षा नीति, मानव संसाधन विकास मंत्रालय.

विंक, जे. (1997). क्रिटिकल पेडागोजी: नोट्स फ्रॉम द रियल वर्ल्ड. न्यूयॉर्क: लोंग्मन.

विंक, जे. (2005). क्रिटिकल पेडागोजी:नोट्स फ्रॉम द रियल वर्ल्ड. न्यू यॉर्क. एन.वाई: पीयर्सन/अलीन एंड बेकन.

हुक्स, बी. (1994). टीचिंग टू ट्रांस्ग्रेस: एजुकेशन ऐज द प्रैक्टिस ऑफ़ फ्रीडम. न्यूयॉर्क. रूटलेज.

*पी-एच.डी. शोधार्थी, शिक्षा विभाग, शिक्षा विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र

**प्रोफेसर, शिक्षा विभाग, शिक्षा विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र

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