1857 का राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम : एक विश्लेषण

– डॉ कुलदीप मेहंदीरत्ता

1857 का स्वतन्त्रता संग्राम पूरे भारत के नागरिकों के लिए उनके पूर्वजों के संघर्ष की वह कहानी है जिसका सारे विश्व के विभिन्न स्वतन्त्रता संग्रामों में अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। लेकिन पश्चिमी इतिहासकारों और साहित्यकारों ने भारत के इस स्वतन्त्रता संग्राम को कमतर दिखाने का प्रयास किया और कहीं भारतीय इस संग्राम से प्रेरणा लेकर बार-बार स्वतन्त्रता के लिए प्रयास न करें, इस दृष्टि से भी इतिहास को ऐसे प्रस्तुत करने का कार्य किया जिससे भारतीयों को अपने बंटे होने का आभास हो, भारतीयों में एकता न हो, और अंग्रजी साम्राज्य को कोई खतरा न हो। 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के सन्दर्भ में भी विभिन्न मत प्रस्तुत किये गये जो इस संग्राम के राष्ट्रीय स्वरुप पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। प्रस्तुत लेख में ऐसे मतों के विश्लेषण का प्रयास किया गया है।

1857 के संघर्ष पर एस.एन. सेन की राय थी कि यह सैन्य विद्रोह के अलावा कुछ नहीं है। एस.एन. सेन ने इस संघर्ष को ‘सिपाही विद्रोह’ कहा। उनकी राय थी कि यह मुख्य रूप से सेना का विस्फोट था जिसमें बाद में कुछ अन्य समूहों ने भी भाग लेना शुरू कर दिया था। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि प्रशिक्षण और शस्त्रों की उपलब्धता का जो अवसर सेना और सैनिकों के पास होता है वह सामान्य जनता के पास नहीं होता। दूसरे जो एकता का मनोविज्ञान वर्दी तथा प्रशिक्षण के द्वारा सैनिकों में जगता है वह सामान्य जनता में जागना या जगाना बहुत मुश्किल कार्य है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अंग्रेज इतिहासकारों ने यह स्वयं स्वीकार किया है कि इस संघर्ष में किसानों, मजदूरों और कारीगरों ने भी भाग लिया था अत: इसे सैन्य अथवा सिपाही विद्रोह कहना, इसका अवमूल्यन करना है।

आर.सी मजूमदार के अनुसार यह संघर्ष न तो पहला था, न ही राष्ट्रीय था और न ही यह स्वतन्त्रता की लड़ाई थी। उनके अनुसार भारत में ब्रिटिश कब्जे की शुरुआत के साथ विद्रोह की एक परंपरा प्राम्भ हो गई थी। कभी किसान तो कभी आदिवासी, कभी सामान्य नागरिक तो कभी सैन्य स्तर पर विरोध का एक लम्बा इतिहास, अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीयों का रहा है। जहाँ तक राष्ट्रीय होने का प्रश्न है वहाँ भौगोलिक आधार पर भारत का बड़ा आकार (आज के सन्दर्भ में) भले ही संघर्ष की सार्थक अभिव्यक्ति नहीं हो। परन्तु सामाजिक और मानसिक स्तर पर यह संघर्ष कुछेक लोगों, राजाओं और नवाबों को छोड़कर (जिनके हित अंग्रेजों से सध रहे थे) पूरे भारत के लोगों की आकांक्षा थी और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता।

राष्ट्रीय शब्द की अभिव्यक्ति का पश्चिमी आधार राजनीतिक है और भीड़ का इसमें एक विशिष्ट स्थान है लेकिन भारतीय आधार सांस्कृतिक और आध्यात्मिक है, हमारी दृष्टि में एक व्यक्ति भी राष्ट्र की और राष्ट्र के लिए अभिव्यक्ति हो सकता है। इस संघर्ष को आधुनिक पश्चिमी पैमानों पर न कस कर तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में परखा जाना चाहिए। जहाँ संचार तथा आवागमन के साधनों पर अंग्रेजी स्वामित्व के कारण और राजनीतिक आधार पर भीड़ की सामूहिक अभिव्यक्ति का प्रदर्शन न हो पाना एक न्यूनता रही है। लेकिन अंग्रेजों को भारत से बाहर-निकाल कर देश को स्वतंत्र कराने की लड़ाई को स्वतंत्रता की लड़ाई अवश्य कहा जाना चाहिए था और क्योंकि यह स्वंत्रता प्राप्त करना एक राष्ट्रीय लक्ष्य था इसलिए इस राष्ट्रीय भावना को साकार करने के सभी प्रयत्न भी राष्ट्रीय कहे जाने चाहियें।

जेम्स आउटरम का मानना था कि यह संघर्ष  भारत से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए एक ‘मुस्लिम षड्यंत्र’ था। क्योंकि ईस्ट इंडिया कम्पनी (प्रकारान्तर से अंग्रेजों) का साम्राज्य मुगल साम्राज्य के खंडहरों पर विकसित हुआ। तत्कालीन मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को इस संघर्ष का नेतृत्व सौंपा गया था और उनके नेतृत्व में मुसलमानों ने सक्रिय भाग लेने का कार्य किया। लेकिन देखा जाये तो जफर का नेतृत्व प्रतीकात्मक अधिक रहा क्योंकि उन्हें अधिक भूमिका निभाने से पहले ही गिरफ्तार कर रंगून भेज दिया गया। वहीं आउटरम जैसे इतिहासकार इस बात को अनदेखा कर देते हैं कि इस स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लेने वाले अधिकांश लोग हिन्दू थे क्योंकि भौगोलिक और समाजशास्त्रीय आधार पर यह क्षेत्र हिन्दू-बहुल था। यही नहीं, भारत में 1857 से पूर्व हिन्दू और मुसलमानों में साम्प्रदायिक विद्वेष न के बराबर था। अपने शासन को बनाये रखने के लिए अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अलगाव के बीज बोने शुरू कर दिए थे। जिसका दुष्परिणाम आज तक भारत भुगत रहा है।

एल.ई.आर. रीज़ ने इसे ‘ईसाई धर्म के खिलाफ युद्ध’ कहा। रीज के अनुसार यह “विद्रोह ईसाइयों के खिलाफ कट्टरपंथी धर्मवादियों की लड़ाई थी।” लेकिन इस सारे संघर्ष में ईसाई धर्म को निशाना नहीं बनाया गया था, भले ही भारतीय समाज के कुछ वर्ग उन पर ईसाई धर्म थोपने के सख्त खिलाफ़ थे। लेकिन रीज़ के बयान में एक छुपा हुआ पहलू भी है कि उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि हिन्दू-मुस्लिम एक हैं और मिलकर ईसाईयों (अंग्रेजों) के विरूद्ध संघर्ष कर रहे हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों ने तुष्टिकरण का खेल प्रारम्भ किया और हिन्दू-मुस्लिम समाज में दरार डालने का सुनियोजित कार्यक्रम शुरू कर दिया। क्योंकि अंग्रेज यह जानते थे कि अगर हिन्दू-मुस्लिम साथ-साथ रहे तो अंग्रेजों के विरुद्ध भारतियों के द्वारा जल्द ही नया संघर्ष छेड़ा जायेगा।

इसी प्रकार ब्रिटिश आर होम्स ने कहा कि यह विद्रोह ‘ सभ्यता और बर्बर का टकराव’ था। यूरोपियन विशेषकर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने स्वयं को सभ्य तथा यूरोप से बाहर के लोगों को असभ्य, बर्बर तथा जंगली के रूप में चित्रित किया। 1899 में ब्रिटिश उपन्यासकार और कवि रुडयार्ड किपलिंग ने ‘द व्हाइट मैनस बर्डन’ नामक कविता लिखी, जिसमें अमेरिका से आग्रह किया गया कि वह साम्राज्य के ‘बोझ’ को उठा ले, जैसा कि ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय राष्ट्रों ने किया था। यह बोझ उन लोगों का था जिन्हें अंग्रेज ‘असभ्य, बर्बर तथा जंगली’ मानते थे और अपनी तथाकथित विकसित शिक्षा प्रणाली और तथाकथित विज्ञान आधारित धर्म उन पर थोपना चाहते थे। इस मानसिकता को शाब्दिक अभिव्यक्ति बेशक 1899 में मिली, लेकिन अंग्रेज साम्राज्यवादियों का यह कार्य कब से प्रारम्भ हो चुका था। यह ‘द व्हाइट मैनस बर्डन’ सिद्धांत साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद को वैध ठहराने के बौद्धिक-साहित्यिक उपकरण था, जिसके पीछे अंग्रेजों द्वारा किये गये अत्याचारों और अवैध को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया गया था।

एक आधुनिक विश्लेषण को अधिक तर्कसंगत रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाता है और कहा जाता है कि विभिन्न समूहों ने अपने अलग-अलग उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इस संघर्ष में भाग लिया। इस विश्लेषण में उदाहरण के लिए, किसानों को शोषणकारी भू-राजस्व प्रणाली से समस्या थी, तो कारीगरों की अपनी शिकायतें थीं क्योंकि मशीनी उत्पादन से उनको बहुत नुकसान उठाना पड़ रहा था, वहीं अंग्रेजों की विस्तारवादी नीतियों के कारण बहुत से राजाओं और नवाबों को अपने राज्यों और रियासतों से वंचित किया जा रहा था। उदाहरण के लिए झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के दत्तक पुत्र को अंग्रेजों ने गद्दी का उत्तराधिकारी नहीं माना और इसलिए ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ उनका संघर्ष छिड़ गया।

वास्तव में यह भारतीयों में अपने नायकों के प्रति हीन-भावना भरकर अपना शासन बनाये रखने की कोशिशें भर थी। क्या किसान केवल किसान होता है क्या वह किसी का भाई, बेटा या पिता नहीं होता। क्या कारीगर केवल कारीगर होता है क्या वह कोई सामाजिक अस्तित्व नहीं रखता। प्रत्येक व्यक्ति का अपना धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक जीवन होता है उसके विभिन्न विषयों पर अपने विचार होते हैं। ऐसे में एक व्यक्त्तित्व को केवल उसके काम-धंधे में या उसकी रियासत के दायरे में बांधकर देखना और दिखाने का प्रयास करना अंग्रेजों के दीर्घकालीन षड्यंत्र का हिस्सा था। बल्कि वास्तविकता यह है कि विदेशियों के अधीन रहकर चंद स्वार्थी लोग भले ही खुश रह लें परन्तु जनता का अधिकांश भाग ऐसे शासन में सुखी नही रह सकता। यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 1857 की महान क्रांति के बाद से अंग्रेजों ने सेना में जाति-आधारित भर्ती पर बहुत बल देना शुरू किया था। ताकि भारतीयों में विद्यमान सामाजिक दूरियों का फायदा उठाया जा सके और भारतीय कभी दोबारा स्वतन्त्रता के लिए संगठित प्रयास न कर सकें।

तुलसीदास जी की पंक्तियाँ “पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं। कर विचार देखहुँ मन माहिं।।”, न केवल भारतीय समाज पर बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लिए प्रासंगिक, सर्वकालिक और अपरिहार्य हैं इस प्रकार जब स्वाधीनता पर बंधन पशु-पक्षियों को पसंद नहीं तो मानव होने के नाते भारतीय किस प्रकार अंग्रेजों के बंधन को स्वीकार कर सकते थे इसलिए यह कहना कि यह कामधंधे या व्यवसाय के कारण किया गया संघर्ष था, वास्तव में मानव होने पर प्रश्नचिह्न लगाने जैसा है एक बार इस बात को अगर स्वीकार भी कर लिया जाये तो भी इन सबका उद्देश्य एक था वह था अंग्रेजी शासन की भारत से समाप्ति इस बात से सभी भारतीय भली भांति परिचित थे कि केवल मेरे क्षेत्र या राज्य या रियासत से अंग्रेजों को निकाल देने से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला, क्योंकि एक क्षेत्र से थोड़े समय बाहर भी कर दिए जाने पर भी अंग्रेजों के पास इतने संसाधन थे कि वे पुनः उस क्षेत्र पर कब्ज़ा कर सकते थे इसलिए इस संघर्ष की प्रकृति भले ही स्थानीय रही हो परन्तु इसका दीर्घकालीन और व्यापक राष्ट्रीय उद्देश्य अंग्रेजों को भारत से निकालना ही था इसलिए 1857 के संघर्ष को स्वतन्त्रता संग्राम कहा जाना उचित है

(लेखक चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी (हरियाणा) में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष है।)

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3 thoughts on “1857 का राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम : एक विश्लेषण

  1. “दमदमे में दम नहीं है ख़ैर मांगो जान की..
    ऐ ज़फर ठंडी हुई अब तेग हिंदुस्तान की..”

    इस पर बहादुर शाह ज़फ़र ने उत्तर दिया-

    “ग़ज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की.. तख़्त ऐ लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की.”

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