राष्ट्रीय शिक्षा नीति और हमारी ज्ञान विरासत भाग-3

– वासुदेव प्रजापति

रसायन एवं धातु विज्ञान

रसायन शास्त्रज्ञों की भारत में कभी कमी नहीं रही। नागार्जुन, वाग्भट्ट, यशोधर, रामचन्द्र तथा सोमदेव प्रमुख रसायनज्ञ थे। हमारे यहाँ दस रस माने गये। पारे का रूप बदलना, जस्ते को स्वर्ण रंग में बदलना, विभिन्न भस्में तथा वज्र संघात बनाने में बड़े कुशल थे।

धातु विज्ञान में चरक, सुश्रुत व नागार्जन तज्ञ थे। उन्हें स्वर्ण, रजत, ताम्र, लोह, अभ्रक तथा पारा आदि से औषधियाँ बनाने की विशेष दक्षता प्राप्त थी। जबकि यूरोप में  १७ वीं शताब्दी तक पारा किस चिड़िया का नाम है? वे इतना भी नहीं जानते थे। पारा चांदी जैसा दिखता है और बड़ी तेजी से भागता है, इसलिए उसे “क्विक सिल्वर” कहते थे।

शल्य चिकित्सा

सुश्रुत विश्व के प्रथम सर्जन माने जाते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थ “सुश्रुत संहिता” में सौ से अधिक शल्य यंत्रों का सचित्र वर्णन है। इस ग्रंथ में आँखों के मोतियाबिन्द एवं हर्निया की शल्यक्रिया एवं प्लास्टिक सर्जरी करने का वर्णन मिलता है। मगध राज्य के राजवैद्य जीवक ने तथागत बुद्ध की चिकित्सा की। योग विज्ञान के ग्रन्थों में मनुष्य शरीर में ७२ हजार नाड़ियाँ बताई गई है। आधुनिक चिकित्साशास्त्र भी इतनी ही नाड़ियाँ बताता है। महाभारत काल में क्लोनिंग तथा विशिष्ट गुणयुक्त संतान को जन्म देने का ज्ञान था।

विमान व जलयान तकनीक

भारत तकनीकी (टेक्नोलॉजी) ज्ञान में भी अग्रणी रहा है। भरद्वाज ऋषि विमान शास्त्र के प्रथम प्रणेता माने जाते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थ ” यंत्र सर्वस्व ” में वैमानिक शास्त्र का वर्णन किया है। रामायण में पुष्पक विमान का तथा महाभारत में श्रीकृष्ण व जरासंध के विमानों का वर्णन मिलता है।

इसी तरह भारत के जलयान विश्व भर में प्रसिद्ध थे। महाभारत में यंत्र चलित नाव का वर्णन है। वराहमिहिर कृत ग्रन्थ “बृहत संहिता” में तथा भोज रचित “युक्ति कल्पतरु” में जहाज निर्माण का वर्णन है। १७ वीं शताब्दी तक यूरोपीय जहाज अधिक से अधिक ६०० टन के होते थे, जबकि भारत में उस समय “गोधा” नामक विशाल जलयान थे, जो १५०० टन के होते थे। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि वास्कोडिगामा भारत को खोजने निकला तब अफ्रीका से आगे का मार्ग उसने गुजरात के एक श्रेष्ठी के विशाल जहाज के पीछे अपनी छोटी सी नौका को बाँधकर पूरा किया था।

भारतीय कलाएँ

वैभवशाली भारत में १८ विद्याएँ और ६४ कलाएँ फली-फूली थीं। भारत में कला का क्षेत्र केवल चित्रकला या मूर्तिकला तक सीमित नहीं था, वह तो मानव जीवन के सम्पूर्ण पहलुओं को अपने आँचल में समेटे हुए है। नृत्य-संगीत, वस्त्र- आभूषण व श्रृंगार से लेकर भस्म बनाना, आसव बनाना, वृक्ष-लता गुल्मादि लगाना, वास्तुकला, अभियांत्रिकी, युद्धकला, नौका-रथादि निर्माण कला जैसी ६४ कलाएँ इसी भूमि पर विकसित हुईं।

वास्तुकला 

हमारे देश में वास्तुशास्त्र की परिधि अत्यधिक व्यापक रही है। भारत में विश्वकर्मा, कश्यप एवं भृगु स्थापत्य के विशेषज्ञ थे। कांजीवरम् का नगर नियोजन इसका अनुपम उदाहरण है। कोणार्क का सूर्य मंदिर, अजन्ता के गुफा मंदिर, मदुराई का मीनाक्षी मंदिर आज भी वास्तुकला की गाथा गा रहे हैं।

वस्त्र उद्योग

यहाँ का वस्त्र उद्योग भी अनुपम था। ढ़ाका की मलमल पूरे विश्व में प्रसिद्ध थी। मलमल का पूरा का पूरा थान अंगूठी में से निकल जाता था। यहाँ के बुनकर इतना महीन धागा कातते थे कि उनके हाथ का काता हुआ धागा २४-२५ काउंट का होता था। ( काउंट से अर्थ है एक पौण्ड कपास से काता हुआ धागा।) आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज की आधुनिक मशीनें भी ५००-६०० काउंट से अधिक महीन धागा नहीं कात सकती। अंग्रेजों का बनाया हुआ कपड़ा ढ़ाका की मलमल के सामने बिकना बन्द हो गया तो अंग्रेजों ने उन बुनकरों के अंगूठे ही काट डाले। परिणाम स्वरूप मलमल बननी ही बन्द हो गई।

भारतीय संगीत

सामवेद संगीत कला के आदिग्रंथ के रूप में मान्य है। भारत के शास्त्रीय संगीत से आज भी पूरी दुनिया प्रभावित है। विख्यात भारतीय संगीतज्ञ ओंकारनाथ ठाकुर एक बार यूरोप की यात्रा पर गये। उनकी प्रसिद्धि सुनकर मुसोलिनी ने उन्हें बुलाया और कहा मुझे बहुत दिनों से नींद नहीं आ रही है। क्या आपका संगीत मुझे नींद दिला सकता है ? पंड़ितजी ने कहा-अवश्य ! उन्होंने भारतीय राग गाना शुरु किया और कुछ ही देर में मुसोलिनी गहरी ऩिद्रा में सो गया। इतना प्रभावी है हमारा शास्त्रीय संगीत ।

चित्रकला एवं मूर्तिकला

भारत की चित्रकला व मूर्तिकला भी अद्भुत है। दो हजार वर्ष पहले बनी अजन्ता की गुफाओं में की गई चित्रकारी आज भी वैसी की वैसी बनी हुई है। देखने वालों को लगता है मानों कल की बनाई हो। कैमिकल इंजीनियरिंग का ऐसा दूसरा उदाहरण विश्व में अन्यत्र उपलब्ध नहीं है।

भारत की मूर्तिकला भी बेजोड़ है। मंदिर में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ एक से बढ़कर एक है। दर्शन करते ही लगता है कि अभी बोल पड़ेंगीं। किसी भी कोण से देखो वह आपको ही निहारती मिलेगी। मुगल आक्रान्ताओं को ये मनमोहक मूर्तियाँ भी धर्म विस्तार में बाधक लगी, इसलिए चुन-चुन कर उन्हें अंग-भंग कर दिया गया।

भारत की समृद्धि

भारत केवल ज्ञान-विज्ञान, भाषा-साहित्य एवं कलाओं में ही अग्रणी नहीं रहा वरन आर्थिक दृष्टि से भी सम्पन्न एवं वैभवशाली था। धन-धान्य से परिपूर्ण भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। चीनी यात्रियों ने लिखा है कि यहाँ घी-दूध की नदियाँ बहती थीं। भारतीय जलयान पूरे विश्व में व्यापार हेतु जाते थे। भारत की इस आर्थिक सम्पन्नता को सुनकर ही विदेशी लुटेरे इसे लूटने आए और लूटकर ले गये। यवन आक्रमणकारी महमूद गजनवी सोमनाथ के प्रसिद्ध मन्दिर से हीरे-जवाहरात व अपार धन -दौलत लूटकर ले गया। अंग्रेज भी छद्मवेश में लुटेरा ही था, सब प्रकार की धन-सम्पदा लूटकर ले गया। अंग्रजों ने एक बार क्रुद्ध होकर भौंसलों के महल में आग लगा दी। कहा जाता है कि परिणाम स्वरूप छ: माह तक नागपुर की नालियों में सोना पिघल-पिघल कर बहता रहा। भारत को ऐसे ही सोने की चिड़िया नहीं कहा गया, यथार्थ में भारत इतना समृद्ध था।

आइये हम संकल्प लें

अब तक हमने जाना कि भारत अतीत में वैभव सम्पन्न एवं ज्ञान -विज्ञान में सम्पूर्ण विश्व में अग्रणी था। हमें अपने पूर्वजों पर गर्व है। हमें उनसे प्रेरणा लेकर देश की वर्तमान परिस्थिति को बदलकर उसे परम वैभव के शिखर पर अधिष्ठित करना है।

डॉ. एनी बेसेण्ट के विचार आज प्रत्येक भारतीय को सोचने के लिए बाध्य करते हैं। उन्होंने कहा था :- “विश्व के महान धर्मों के अध्ययन के आधार पर मैं कह सकती हूँ कि मुझे हिन्दू धर्म जितना सम्पूर्ण, विज्ञान सम्मत, दार्शनिक और आध्यात्मिक दिखा, उतना कोई दूसरा धर्म नहीं दिखा।” आगे उन्होंने कहा- “इस विषय में कोई सन्देह नहीं होना चाहिए कि बिना हिन्दुत्व के भारत का कोई भविष्य नहीं है। हिन्दुत्व ही वह मिट्टी है जिसमें भारत की जड़ें गहरी जमी हुई हैं। यदि उस भूमि से उसे उखाड़ा गया तो भारत वैसे ही सूख जायेगा जैसे कोई वृक्ष भूमि से उखड़ने पर सूख जाता है। भारत का इतिहास, साहित्य, कला व उसके स्मारकों, सब में हिन्दुत्व आद्योपान्त भरा पड़ा है।

अपना वक्तव्य पूर्ण करते हुए एनी बेसेण्ट कहती हैं:- ” यदि हिन्दू ही हिन्दुत्व को नहीं बचायेंगे तो इसको कौन बचायेगा ? यदि भारत के अपने बच्चे ही इससे जुड़े न रहे तो फिर इसकी रक्षा कौन करेगा? स्वयं भारत ही भारत को बचा सकता है, भारत और हिन्दुत्व एक ही है।”

सब कुछ पढ़ लेने के बाद हमारा दायित्व बनता है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति २०२० के प्रावधानों के अनुरूप प्राचीन गौरवशाली ज्ञान-विज्ञान को शामिल करते हुए अपनी मातृभाषा में पुस्तकें लिखकर नई पीढी को अपनी जड़ों से जोड़ने में सहभागी बनें।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)

और पढ़ें : राष्ट्रीय शिक्षा नीति और हमारी ज्ञान विरासत भाग-2

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