‘सा विद्या या विमुक्तये’ को प्रकट करती राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

 – पिंकेश लता रघुवंशी

तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म विद्यऽन्या शिल्पनैपुणम्॥

विष्णु पुराण के प्रथम स्कंध उन्नीसवें अध्याय के 41वे श्लोक के अनुसार कर्म वह है जो बंधन में डाले, विद्या वह है जो मुक्त कर दे। अन्य कर्म केवल श्रम मात्र हैं और अन्य विद्यायें केवल यांत्रिक निपुणता है। अर्थात् वास्तव में कहा जाये तो विद्या वही है जो मुक्त करती है, मुक्ति की ओर ले जाती है किंतु क्या स्वतंत्रता से लेकर अभी तक की हमारी शिक्षा नीति और हमें प्राप्त होने वाली विद्या/शिक्षा हमें मुक्ति की ओर ले जा रही थी या हमें और अधिक बंधन युक्त कर रही थी।

उदाहरण के लिये एक और श्लोक है विद्या ददाति विनयम्, अर्थात् विद्या विनय प्रदान करती है किंतु यदि हम अत्यधिक सुशिक्षित व्यक्ति और एक निरक्षर व्यक्ति के सामान्य व्यवहार को देखेंगे तो परिणाम विपरीत ही प्राप्त होंगे। जितनी बड़ी डिग्री उतना ही अधिक समाज और सामान्य जन से दूरी तो क्या ये विद्या मुक्तकरी है या अनेक प्रकार के बंधनों से युक्तकरी।

भारतवर्ष में स्वतंत्रता के पश्चात अनेक शिक्षा आयोगों का गठन और उनकी अनुशंसायें आई। यथा राधाकृष्णन कमीशन, मुरलीधरन आयोग, राममूर्ति आयोग, कोठारी कमीशन आदि। 1968 में डॉ० दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति नाम से अनेक अनुशंसायें प्रस्तुत की गयी और इस नीति की प्रस्तावना में उन्होने स्वयं लिखा कि दुर्भाग्य है कि भारत की शिक्षा व्यवस्था भारत केन्द्रित न होकर यूरोप केन्द्रित है और हम आज भी मानसिक गुलाम ही अपने देश में बना रहे हैं। नीतियाँ तो और भी आईं पर शिक्षा राष्ट्रीय न हो सकी। सन् 1836 तक शिक्षा के क्षेत्र में शत प्रतिशत साक्षर रहने वाला और शासन मुक्त व्यवस्था से संचालित शिक्षानीति पर चलने वाला भारत अपनी ही शिक्षा पद्धति को भूल गया? ये आश्चर्य का नहीं अपितु अध्ययन का विषय है।

खैर 2015 से लेकर पांच वर्ष के सतत परिश्रम, ढाई लाख से अधिक लोगों के सुझाव और अंतरिक्ष की सीमायें नापने वाले दूरदर्शी के.कस्तुरीरंगन जी और उनकी टोली के अद्वितीय परिश्रम उपरांत बहुप्रतिक्षित राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 देश के सम्मुख रखी गयी है जिसका हृदय से स्वागत और अभिनंदन है। 36 वर्ष पश्चात् कुछ ठोस निर्णय और 70 वर्ष पश्चात भारत केन्द्रित शिक्षा नीति अब वास्तव में सा विद्या या विमुक्तये को चरितार्थ कर रही है। कुछ विशेष बिंदु जो मेरे इस कथन को पुष्ट करते हैं।

नाम परिवर्तन – मानव संसाधन मंत्रालय से शिक्षा मंत्रालय

भारतीय शिक्षा का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या था कि शिक्षा जैसे सर्व प्रमुख विषय को देखने वाले विभाग और मंत्रालय का नाम ही विरोधाभासी और अप्रिय रखा गया मानव संसाधन विकास मंत्रालय, क्या मानव की संसाधनों से तुलना संभव है? मानव के लिये संसाधन उपकरण हो सकते हैं किंतु करण के रुप में केन्द्र में तो मानव ही होगा और उसके यानि मनुष्य निर्माण करने वाली शिक्षा ऐसे अव्यवहारिक नाम वाले मंत्रालय के अंतर्गत आ रही थी। अतः इस विभाग को शिक्षा मंत्रालय और संभालने वाले मंत्री को शिक्षा मंत्री नाम परिवर्तन कर पूर्व गलतियों से मुक्ति प्रदान कर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू मंत्रीमंडल में पहले शिक्षा एवं संस्कृति मंत्री रहे मौलाना अबुल कलाम वाले सुधार को लाया गया है।

शिक्षा शासन मुक्त हो : वैदिक कालीन समय से ही शिक्षा राज शासन के हस्तक्षेप से मुक्त रही है और इसीलिए भारतवर्ष पर भले ही अनेक आक्रमण हुये हो और उसकी भौगोलिक, सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया हो किंतु तक्षशिला, नालंदा जैसे गुरुकुल सदैव शिक्षा के क्षेत्र में भारत को विश्व गुरु बनाये रहे। अंग्रेजों के आगमन के पश्चात भी 1822 में उनके द्वारा ही किये गये सर्वे जिसका उल्लेख धर्मपाल जी द्वारा लिखित शोधपरक पुस्तक द ब्यूटीफुल ट्री में किया गया है कि बंगाल प्रेसीडेंसी के ही एक लाख गांव विद्यालय युक्त थे। मद्रास और बाम्बे के एक भी गांव विद्यालय विहीन नहीं थे अर्थात भारत शत प्रतिशत साक्षरता वाला देश था जहाँ शिक्षा की व्यवस्था शासन के बजाय समाज के हाथों में थी। वर्तमान समय में उसी को ध्यान में रखते हुये इस शिक्षा नीति में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के के गठन का सुझाव हो जिसमें प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में शिक्षा मंत्री के अतिरिक्त सभी सदस्य केवल शिक्षाविद् होंगे और शिक्षा से संबंधित विषयों का निर्णय शिक्षाविदों से बेहतर कौन ले सकता है ?

राष्ट्रीयता और भारत बोध : केवल पाश्चात्य ज्ञान ही श्रेष्ठ इस अवधारणा से मुक्त करते हुये इस शिक्षा नीति में भारतीय सांस्कृतिक जड़ों को स्वीकार कर भारत बोध विषय को पूर्व प्राथमिक कक्षाओं से लेकर उच्च कक्षाओं के पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर स्थानीय जिले से लेकर प्रांत और राष्ट्र की सम्पूर्ण भौगौलिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अध्ययन को अनिवार्य विषय के रुप में सम्मिलित किया गया है।


भारतीय भाषाओं को महत्व : अंग्रेजी की सर्वश्रेष्ठता के मिथक से मुक्ति दिलाते हुये भारतीय भाषाओं के महत्व पर बल दिया गया है। प्राथमिक शिक्षा का माध्यम केवल मातृभाषा और अन्य कक्षाओं में भी मातृभाषा में ही शिक्षा उपलब्ध हो, साथ ही संस्कृत और त्रिभाषा व्यवस्था द्वारा कोई भी विदेशी भाषा के अध्ययन की सुविधा रहेगी।

संरचनात्मक बदलाव : एक बड़ा संरचनात्मक बदलाव 10+2+3 को बदलकर 5+3+3+4 एक क्रांतिकारी बदलाव है जिसमें शिशु शिक्षा के महत्व को समझते हुये पहले तीन वर्ष बच्चे पूर्व प्राथमिक शिक्षा आंगनबाड़ी में और फिर कक्षा एक एवं दो विद्यालय में अध्ययन करेंगे जहाँ उन्हें आधारभूत विषयों, रंगों, कला, अक्षर एवं अंक ज्ञान बस्ताविहीन एवं गतिविधि आधारित शिक्षा द्वारा दिया जायेगा। कक्षा तीन से पांच में विज्ञान, गणित, कला आदि की पढाई होगी। कक्षा छः से आठ तक विषयों के साथ साथ कौशल आधारित शिक्षा मिलेंगी और कक्षा नौ से बारह में विषय चयन की स्वतत्रंता रहेगी जहाँ वह विज्ञान के साथ साहित्य या संगीत का अध्ययन भी कर सकेगा। कौशल विकास के विषय उसे व्यवसाय की खोज करने वाली शिक्षा नहीं अपितु व्यवसायी बनने वाली शिक्षा प्रदान करेंगें।

जीवनोपयोगी शिक्षा : स्वामी विवेकानंद बार बार यही कहते थे कि हमें मनुष्य निर्माण करने वाली शिक्षा चाहिये अर्थात शिक्षा मनुष्य को मनुष्य बनायें मशीन नहीं, जहाँ संवेदनाओं और भावनाओं का अभाव न हो। एक अच्छे चिकित्सक, इंजीनियर,अधिवक्ता या बैंक अधिकारी के साथ उसमें अच्छे नागरिक के गुण भी आयें। इसलिए उच्च शिक्षा में  Specialization विषय विशेषज्ञता के साथ 50% उसे साहित्य, इतिहास, सांस्कृतिक बातें पढ़नी होगी जिससे उसमें नागरिकता के प्रथम कर्त्तव्य सिखाये जा सकें अन्यथा अभी हम देखते हैं कि बी.काम डिग्री धारक युवा को बैंक की स्लिप भरने में भी कठिनाई आती है।

अनुसंधान को महत्व : राष्ट्रीय अनुसंधान आयोग NRF के गठन से शोध और अनुसंधान को बल मिलेगा और शोध की महत्ता बढ़ेगी। वर्तमान समय में प्रतिवर्ष भारत में 30,000 पी.एच.डी.अवार्ड होती हैं किंतु क्या वे वास्तव में समाजोपयोगी या राष्ट्रोपयोगी है? इसलिये ऐसे प्रयोगों और शोध संकल्पों को जो सामाजिक, राष्ट्रीय अथवा अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान हेतु होंगे उन पर सम्पूर्ण व्यय राष्ट्रीय अनुसंधान आयोग करेगा जिसके लिये पृथक से 22,000 करोड़ के बजट को रखा गया है।

वैश्विक पहुंच : हम सदैव हार्वर्ड, आक्सफोर्ड विश्वविद्यलयों की उत्कृष्टता और उनको भारत में लाने की बात करते हैं पर एक क्रांतिकारी पहल करते हुये ये शिक्षा नीति भारत के विश्वविद्यालयों को विदेशों में खोलने की बात करती है जिससे हमारी Global outreach बढ़ेगी। हम भारतीय चिंतन को भारत की सीमाओं से मुक्त करते हुये वैश्विक जगत की ओर ले जा पायेंगे।

शिक्षकों का सम्मान : किसी भी शिक्षा का मेरूदण्ड शिक्षक होता है। उसका स्थान सर्वोपरि होना चाहिये अतः उसका प्रशिक्षण भी उसी अनुरूप हो इस हेतु चार से पांच वर्ष के बी.एड. कोर्स की बात की जा रही है। शिक्षण प्राथमिकता बनें और विश्वविद्यालयों के सबसे उत्कृष्ट छात्र शिक्षण को अपनायें। By chance नहीं वरन् By choice शिक्षक का पद ग्रहण किया जाये और उसकी गुणवत्ता और महत्व को स्थायी रखने का गौरव बनाये रखने का जिम्मा भी शिक्षक स्वयं बनाये रखे ऐसी व्यवस्था की बात की गयी है।

ऐसे अनेकानेक क्रांतिकारी और भारत को विश्व गुरु बनाने वाले निर्णय इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में लिये गये हैं। जो सुप्त पड़ी शिक्षा व्यवस्था को पुनर्जीवित ही नहीं उर्जान्वित करने का सामर्थ्य भी रखते हैं। अंत में एक आग्रह कि शासन ने तो अपनी राजनैतिक इच्छा शक्ति को दिखाते हुये इस नयी शिक्षा नीति को ले आयी है। अब इस शिक्षा नीति की सफलता उसके यश का दायित्व हम सभी पर है। कोठारी आयोग की अनुशंसायें भी अभूतपूर्व थी पर सफल नहीं हो पाईं  इसलिये इस शिक्षा नीति की समस्त अभिनव सुझावों को लागू करने में शासन की इच्छा शक्ति, शिक्षकों की तत्परता, अकादमिक नेतृत्व की दायित्व लेने की मंशा, शोधकर्ताओं, अभिभावकों और छात्रों के साथसाथ सम्पूर्ण समाज के सहयोग पर निर्भर करेगी, और तब हम विश्वास पूर्वक इस श्लोक को दोहरा सकेंगे सा विद्या या विमुक्तये।

(लेखिका बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल की कार्यपरिषद सदस्य है।)

और पढ़ें : अतीत के अनुभव, वर्तमान की चुनौतियों तथा भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर गढ़ी गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति : डी. रामकृष्ण राव

 

 

 

3 thoughts on “‘सा विद्या या विमुक्तये’ को प्रकट करती राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

  1. सही अर्थ है, कर्म वही है, जो बंधन में ना बांधे, विद्या वही है जो मुक्त करे।

    ना की बंधन में बांधे जैसा कि ऊपर लिखा हुआ है।

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