पं० हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का हिंदी साहित्य में अत्यंत विशिष्ट तथा सराहनीय योगदान रहा है। द्विवेदी जी निबंधकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। लगभग सभी विधाओं में द्विवेदी जी ने अपनी लेखनी चलाई। वे केवल हिंदी ही नहीं बल्कि अन्य भाषाओं संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला आदि के भी बड़े विद्वान थे। इनका जन्म 19 अगस्त, 1907 को हुआ। वे भक्ति कालीन साहित्य के बड़े मर्मज्ञ विद्वान थे। 1947 में उन्हें पद्म-भूषण से सम्मानित किया गया। इनकी मृत्यु 19 मई, 1979 ई० को दिल्ली में हुई।
संवत्सर के अनुसार इनका जन्म श्रवण मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को संवत 1964 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम अनमोल द्विवेदी, माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था। इनकी शिक्षा व दीक्षा भारतीय संस्कारों के साथ हुई। इनकी मेधा की प्रशंसा विद्यार्थी व अध्यापकगण करते थे। इन्होंने अपनी अधिकांश शिक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।
द्विवेदी जी का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली और उनका स्वभाव बड़ा सरल और उदार था। शांति निकेतन में हिन्दी का अध्यापन प्रारम्भ किया और रवीन्द्रनाथ ठाकुर व क्षितिमोहन सेन के प्रभाव से साहित्य का गहन अध्ययन करने के साथ-साथ स्वतंत्र लेखन भी प्रारम्भ कर दिया। कालांतर में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर व विभागाध्यक्ष रहे। द्विवेदी जी ‘उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी’ के अध्यक्ष तथा 1972 से आजीवन उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ के उपाध्यक्ष पद पर रहे।
कृतित्व
अनेक दायित्वों का निर्वहन करते हुए द्विवेदी जी ने साथ-साथ लेखन कार्य भी प्रारम्भ कर दिया था। द्विवेदी जी मुक्त विचार रखने वाले स्वतंत्र विचारक, चिंतक, लेखक व कवि थे। व्याकरण के क्षेत्र में द्विवेदी जी ने अतुलनीय कार्य किया था। उन्होंने चार खंडों में ‘हिन्दी भाषा का बृहत व्याकरण’ नाम से व्याकरण ग्रंथ की रचना की थी। इसके अतिरिक्त आलोचना, निबंध, उपन्यास, कविता आदि अनेक विधाओं के क्षेत्र में उन्होंने बहुत बड़ा योगदान दिया है। आचार्य द्विवेदी की उपलब्ध सम्पूर्ण रचनाओं का संकलन 11 खंडों में प्रकाशित हुआ, जिसका नाम ‘हजारी प्रसाद ग्रंथावली’ रखा गया। द्विवेदी जी के साहित्य दर्शन की विशेषताएं इस प्रकार हैं :-
इतिहास बोध
हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के लिए इतिहास का अर्थ अतीत से लगाव बिलकुल नहीं था। वे अतीत की चार दीवारी में अपनी सुरक्षा नहीं खोजते बल्कि अतीत से वर्तमान की मुठभेड़ को जरूरी मानते हैं। नामवर जी लिखते हैं कि “इतिहास उसके लिए एक शव था और उसमें तनिक भी संदेह नहीं कि इस ‘शव साधना’ में भी उनकी दृष्टि के सम्मुख मनुष्य का भविष्य था”। वस्तुतः द्विवेदी जी में इतिहास का बोध तो है ही, परंपरा का बोध भी है। परंपरा के भीतर सृजन और संघर्ष का बोध द्विवेदी जी के पूरे चिंतन में है। इसी से उनकी इतिहास दृष्टि निर्मित होती है।
द्विवेदी जी ने साहित्य इतिहास लेखन की दिशा में जो प्रयास किए हैं, उसमें उनकी इतिहास दृष्टि का स्वरूप ढूंढा जा सकता है। इतिहास वस्तुतः विकास का आकलन होता है और विकास के पीछे प्रकृति का नियम है। इतिहास बोध और आधुनिकता में गहरा रिश्ता है। इतिहास दृष्टि का आशय है कि हम अपने अतीत को कैसे देखें? द्विवेदी जी मानते हैं कि “जो इतिहास को स्वीकार न करे, वह आधुनिक नहीं और जो चेतना को न माने वह इतिहास नहीं। उनकी दृष्टि परंपरा और आधुनिकता में संतुलन बनाकर चलती है। भारत के इतिहास और अतीत में झाँकने की उनकी दृष्टि मूलतः साहित्यिक और सांस्कृतिक है।
सांस्कृतिक चेतना
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी प्राचीन भारतीय संस्कृति के पोषक हैं। उनका समग्र साहित्य उनकी इसी सांस्कृतिक चेतना का प्रस्फुटन है। जीवन में मानव जीवन, मानव संस्कृति और मानव संस्कृति में भारतीय संस्कृति की विशिष्टता संपूर्ण मानव समुदाय एकमत से स्वीकार करता है। द्विवेदी जी अपने गहन अध्ययन के फलस्वरूप ही भारतीय संस्कृति के अन्तरतम तत्त्वों का अन्वेषण एवं विश्लेषण करने में पूर्ण सफल हुए हैं। द्विवेदी जी के साहित्य का अधिकांश भाग सांस्कृतिक विचारधारा से अनुप्राणित है। डॉ० सत्यसागर सम अपने एक लेख में आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी और भारतीय संस्कृति में लिखते हैं – “द्विवेदी जी का साहित्य गुप्तकालीन, बौद्धकालीन, मध्यकालीन और आदिकालीन की संस्कृति का संगम है। उसमें इस्लामी संस्कृति का आख्यान, भारतीय संस्कृति, कवि और समीक्षक के रूप में भारतीय संस्कृति का पुनरुद्धारक एवं उन्नायक है। संस्कृति और काल के आख्यान स्वरूप में द्विवेदी जी का योगदान उल्लेखनीय है। द्विवेदी जी के सृजनात्मक साहित्य में उनकी समीक्षाओं के अतिरिक्त उपन्यासों एवं निबंध संग्रहों में भी सांस्कृतिक विचार हमें देखने को मिल जाते हैं।
राष्ट्रीय दृष्टि
द्विवेदी युग में आकर स्वाधीनता आंदोलन अधिक शक्तिशाली हो गया था। भारतीय राजनीति में यह नौरोजी, गोखले और तिलक का युग था। पूरी चेतना ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उपनिवेशवादी शक्तियों को देश से बाहर खदेड़ने के लिए संकल्पबद्ध रूप में सामने आई। पूरी चेतना ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उपनिवेशवादी शक्तियों को देश से बाहर खदेड़ने के लिए संकल्पबद्ध थी। भारतीयता की तलाश में यह काव्य रामकृष्ण, शिवाजी आदि को अपनाकर एक नए रूप में प्रकट हुआ। रीतिकालीन श्रृंगारिकता व अलंकारिकता तथा भारतेन्दु युगीन राजभक्ति के स्वरों को उन्होंने अपने युग के साहित्य में फलने-फूलने नहीं दिया। उन्होंने साहित्य में प्रखर राष्ट्रीयता के स्वरों को मुखरित किया। आचार्य द्विवेदी ने सरस्वती के माध्यम से राष्ट्रीय विचारों को सुदूर भारतीय अंतर्मन में समाविष्ट कर राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाई और हिन्दी साहित्य को अनेक ऐसे रचनाकार दिए जिनके साहित्य ने स्वाधीनता आंदोलन में रीढ़ की हड्डी का कार्य किया। मैथिली शरण गुप्त, रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द जैसे हिन्दी के पुरोधा द्विवेदी युग की अनुपम देन है। मैथिलीशरण गुप्त ने अपने काव्य के माध्यम से भारतीय जनमानस में अपनी अस्मिता व स्वाभिमान का बोध कराकर उन्हें हीन भाव से मुक्त किया। वहीं प्रेमचन्द के साहित्य में भारतीय ग्रामीण जीवन के जो चित्र साकार हुए, वह द्विवेदी जी की ही प्रेरणा के परिणाम थे। गणेश शंकर विद्यार्थी ने भी द्विवेदी जी से प्रेरणा ली।
द्विवेदी जी अंग्रेजों की कुटिल व विभाजनकारी नीतियों को अच्छी तरह जानते-समझते थे। अंग्रेजों ने हिन्दी को अयोग्य भाषा कहने पर और अंग्रेजी को अनिवार्य रूप से लागू करने पर भी विरोध किया। अंग्रेजों की विभाजनकारी नीति का भी खुलकर विरोध किया। स्वदेशी आंदोलन का द्विवेदी जी ने खुलकर समर्थन किया। द्विवेदी जी के काव्य में राष्ट्रीयता के बीज सर्वत्र बिखरे दिखाई देते हैं, जिसने भारतीयों के मानस पटल पर देश हेतु प्रेम का बीज बोया और पल्लवित होकर स्वाधीन होने में अपनी भूमिका निभाता है।
निष्कर्ष
उपरोक्त सभी बिन्दुओं को अध्ययन करने से पता चलता है कि द्विवेदी जी बाल्यकाल से ही प्रतिभा के धनी थे। अनेक भाषाओं पर उनकी अच्छी पकड़ थी। आगे चलकर इन्होंने अध्यापन कार्य भी किया और लेखन कार्य भी साथ-साथ चलता रहा। विभिन्न विधाओं में अनेक रचनाओं की रचना की। इतिहास बोध भी हमें इनकी रचनाओं के अध्ययन से स्वतः हो जाता है। उनका समग्र साहित्य सांस्कृतिक चेतना का प्रस्फुटन है। द्विवेदी जी कालीन साहित्य सभी संस्कृतियों का संगम है। इनकी सभी विधाओं में सांस्कृतिक विचार हमें देखने को मिलते हैं। राष्ट्रीय विचार से ओत-प्रोत रचनाएं भी इनकी काफी मात्रा में है। इनके गद्य साहित्य में राष्ट्रीय विचार देखने को मिलते हैं। इन्होंने अपने युग के साहित्य में राजभक्ति के स्वरों को फलने-फूलने नहीं दिया बल्कि इन्होंने साहित्य में प्रखर राष्ट्रीयता के स्वरों को मुखरित किया। इस प्रकार द्विवेदी जी का साहित्य दर्शन तत्कालीन भारत की जनता की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना की आकांक्षाओं की अतुलनीय अभिव्यक्ति है।
(लेखक चौधरी बंसी लाल विश्वविद्यालय भिवानी में हिंदी विभाग में सहायक आचार्य है।)
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