दुनिया के महान संत बसवेश्वर का जीवन दर्शन

सम्पादन – जी.आर जगदीश

दुनिया के महान संत और भक्तों से हम सीख सकते हैं कि हमें दैनिक जीवन की उलझी हुई परिस्थितियों से बाहर निकालने के लिए आवश्यक आध्यात्मिक शक्ति को कैसे हासिल किया जाए। महान संत बसवेश्वर का जीवन चरित अपने आप में इसका एक प्रेरक उदाहरण हैं। कर्नाटक के बसवन्ना के नाम से विख्यात बसवेश्वर एक संत, कवि, प्रशासक और एक उत्साही समाज सुधारक थे और भारत के महान आध्यात्मिक शिक्षकों में से हैं।

आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन और धार्मिक जागृति के संदर्भ में बसवेश्वर का संदेश विशेष स्थान रखता है। आज हमारा भारतीय समाज, लोकतंत्र और राष्ट्रवाद के अपने विचारों, शिक्षा के प्रसार और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर जोर देने के साथ खुद को नया आकार दे रहा है। यह विश्व विचार की मुख्य धारा से प्रभावित है। हमारे विचार इतनी तेजी से बदल रहे है कि यह हमारे पुराने मूल्यों, संस्थाओं और परम्पराओं का अस्तित्व बनाये रखना मुश्किल हो रहा है। बसवन्ना आज से लगभग आठ सौ साल पहले हुए, लेकिन उनके विचार इतने आधुनिक और व्यावहारिक हैं इसलिए आज भी उनकी शिक्षाओं की प्रासंगिकता है। यदि भारतीय समाज द्वारा उनकी शिक्षाओं की अनुपालना की गई होती तो आज हमारे समाज का चित्र बिल्कुल अलग होता। वास्तव में बसवेश्वर को कर्नाटक और भारत का महान अवतारी पुरुष कह सकते हैं।

हमारे समाज में उच्च वर्ग और शूद्रों के बीच एक बड़ा अंतर था और ये भी असंख्य उप-जातियों और उप-संप्रदायों में विभाजित थे। धर्म मानो विशेषाधिकार प्राप्त कुछ लोगों का एकाधिकार बन गया था। वैदिक ज्ञान प्राप्ति के अवसर से महिलाओं और वंचित कर दिया गया था। इस मत के समर्थन में सभी धर्मशास्त्र लिखे गए या उनकी व्याख्या की गई और इस प्रकार सामाजिक अन्याय को धार्मिक स्वीकृति भी प्रदान कर दी गयी। अस्पृश्यता के प्रसार के कारण अछूतों की दशा दयनीय थी। उनके साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जाता था। हिंदू समाज अपनी तमाम उच्च सांस्कृतिक परंपराओं और आध्यात्मिक वैभव के बावजूद आम लोगों के पैमाने पर बुरी तरह विफल रहा था। सामाजिक आपदा की इस घड़ी में बसवन्ना का अवतरण भारतभूमि पर हुआ।

बसवन्ना का जन्म 1131 ईस्वी के आसपास कर्नाटक के विजयपुरा जिले के इंगलेश्वर-बागेवाड़ी में एक उच्च कुल के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके जन्म के अवसर पर उन्हें कुडल संगम (संघ) के जटवेदमुनि नामक एक महान शैव संत का सान्निध्य मिला, मुनि ने बच्चे को प्रतीकात्मक लिंग के साथ एक नए मार्ग की खोज का आशीर्वाद दिया। कहा जाता है कि पूत के पांव पालने में दिखाई पड़ जाते हैं, बालक बसव में महानता और व्यक्तित्व के लक्षण प्रदर्शित होने लगे थे। उन्होंने देखा कि धर्म के नाम पर अंधविश्वास और हठधर्मिता ने मनुष्य समाज को गहरे तक मजबूत जकड़ रखा है। यहां तक कि मंदिर भी इन विकृतियों से बच नहीं पाए थे। आठ साल की उम्र में जटवेदमुनि के कृष्ण और मालाप्रभा नदियों के संगम पर स्थित कुडल संगम चले गये। संगम के स्थानपति ईशान्य गुरु ने बसव को जन्मदिन के अवसर पर शिवलिंग प्रदान किया। संगम अथवा संघ एक आदर्श स्थान था जहां  बसवन्ना अपनी पढ़ाई को आगे बढ़ा सकते थे और अपने पोषित उद्देश्य को महसूस कर सकते थे।

शिवलिंग को धारण करना उन दिनों किसी जाति की निशानी नहीं थी, बल्कि केवल पूजा का साधन था। जाति, धर्म या लिंग के भेद के बिना कोई भी इसे धारण कर सकता था। शिवलिंग को बसव ने सामाजिक और धार्मिक समानता के एक बड़े साधन के रूप में पहचाना और वे ‘वीरशैव’ पन्थ की ओर आकर्षित हुए जो दीक्षा के रूप में शिवलिंग को धारण करवाता था। ईशान्य गुरु और संगम के मार्गदर्शन में बसव ने वेद, उपनिषदों, अगमों, पुराणों और काव्यों के साथ-साथ विभिन्न धर्मों और दर्शनों की टीकाओं आदि का बड़े पैमाने पर अध्ययन किया। उन्होंने अपनी भक्तिभावना को कन्नड़ भाषा में वचनों (कन्नड़ में पवित्र भजन) के रूप में प्रस्तुत किया।

बसव ने संघ में लगभग बारह से तेरह वर्ष बिताए। बसव आध्यात्मिक मार्ग पर चल पड़े थे और इसलिए विवाह के बंधन में बंधने को तैयार नहीं थे। लेकिन ईशान्य गुरु ने उन्हें आश्वस्त किया कि उन्हें मानव जाति को सुधार का संदेश देना है तो सांसारिक जीवन में भाग लेना चाहिए। कर्नाटक में चालुक्य राजवंश के बिज्जला राज्य में बसव के ससुर वित्त प्रभारी थे। बसव को उस पद के लिए सबसे उपयुक्त विकल्प समझा गया। कुछ समय बाद बिज्जला ने बसवन्ना को साम्राज्य के मंत्री पद को स्वीकार करने के लिए राजी कर लिया। बसवन्ना को राजनीतिक उथल-पुथल में दिलचस्पी नहीं थी; न ही वे सत्ता हासिल करना चाहते थे। लेकिन वे केवल इसलिए सहमत हुए क्योंकि यह पद उनके सामाजिक लक्ष्य को प्रभावी ढंग से प्राप्ति के पर्याप्त अवसर प्रदान करने वाला था। लगभग तेरह वर्षों की छोटी अवधि में साम्राज्य की राजधानी कल्याणा में उनकी उपलब्धियां उल्लेखनीय रहीं।

वह धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों में डूब गया। उन्होंने कुडल संगम में जो कल्पना की थी, उसे साकार करने के लिए उन्होंने उत्साह के साथ काम किया। उन्होंने धर्म के द्वार सबके लिए खोल दिए जिसमें जाति, लिंग या पन्थ आदि के आधार पर भेदभाव का कोई स्थान नहीं था। उन्होंने ‘अनुभव मन्तप’ नामक एक सामाजिक-आध्यात्मिक संस्था की स्थापना की जिसने देश भर के सैकड़ों संतों और आध्यात्मिक साधकों को आकर्षित किया। खासकर महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, सौराष्ट्र और कश्मीर से भगवान के हजारों सच्चे उपासक यहाँ आये।

जन जागरण के महत्वपूर्ण कार्य में धर्म एक जीवित शक्ति और साधन बन गया। धर्म के इतिहास में किसी अन्य समय में धर्म ने ऐसा वैभव और ऐसी चमत्कारी शक्ति प्राप्त नहीं की थी। कहा जाता है कि बसवन्ना ने कई चमत्कार किए; लेकिन सबसे बड़ा चमत्कार यह था कि उन्होंने आम आदमी और वंचितों को आध्यात्मिक साक्षात्कार की दिव्य ऊंचाइयों तक पहुंचाया। उनके क्रांतिकारी संदेश और मिशन ने परम्परागत समाज और मठाधीशों में खलबली पैदा कर दी। उन्होंने बसवन्ना का विरोध करने के लिए खुद को संगठित किया। उन्होंने कई आरोप लगाए, बसवन्ना के बारे में मनगढ़ंत कहानियाँ गढ़ी और बिज्जला की नजरों में उसे गिराने की कोशिश की। लेकिन उनका चुंबकीय व्यक्तित्व बड़ी-बड़ी बाधाओं को भी दूर करने में समर्थ था और इसलिए उनका मिशन और भी अधिक उत्साह के साथ जारी रहा।

सामाजिक परिवर्तन की यह यात्रा अनिमेष जारी रही। उस समय के संकीर्ण जातिबद्ध सामाजिक वातावरण में बसवन्ना ने ब्राह्मण कुल की कन्या और अछूत समझे जाने वाले कुल के पुत्र के विवाह का समर्थन किया। परम्परागत सामाजिक समूहों के लिए धर्मविरुद्ध और अस्वीकार्य था। इसलिए, उन्होंने ऐसे विवाह का जमकर विरोध किया। उन्होंने बसवन्ना और उनके अनुयायियों के खिलाफ राजा से शिकायत भी की, क्योंकि इस प्रकार के आयोजन वर्णाश्रम के खिलाफ थे।

बसवन्ना के अनुसार यह विवाह उचित था। उनका तर्क था कि एक बार जब दोनों शिव परमात्मा की शरण में आ गए तो वे भक्त बन गए और वर्णाश्रम की सीमाओं से बाहर हो गए। दोनों लिंगायत बन गए हैं। लेकिन राजा बिज्जला को  रुढ़िवादियों के निहित स्वार्थों के दबाव में झुकना पड़ा। विवाहित जोड़े को हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया गया। इस सबसे दुखी बसवन्ना ध्यान करने और कुछ शांत दिन बिताने के लिए कुडल संघ चले गए।

इस प्रकार महात्मा बसवेश्वर एक ऐसे सामाजिक-आध्यात्मिक मनीषी हुए हैं जिन्होंने ‘जाति पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि को होई, का पालन करते हुए सामाजिक समानता का आह्वान किया धार्मिक पाखंडजात-पातछुआछूतअंधविश्वास और अंधश्रद्धा के विरोध में प्रखर बसवेश्वर ने प्रभु-भक्ति के द्वार सबके लिए खोल दिए उनका समस्त जीवन भारत में सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में समानता की आदर्श प्रस्तावना है

Courtesy: Basaveshwara – H. Thipperudraswamy

मूल अंग्रेजी, हिंदी अनुवाद – डॉ कुलदीप मेहंदीरत्ता

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