– गिरीश जोशी
शारदा पीठ कश्मीर स्थित भारतीय संस्कृति का अत्यंत महत्वपूर्ण एवं मुख्य केंद्र था, यहां पर मां सरस्वती का अत्यंत प्राचीन मंदिर हुआ करता था। इस मंदिर में एक सर्वज्ञ नामक पीठ था। इस पीठ पर आसीन होने के लिए व्यक्ति का सर्व शास्त्रों में पारंगत होना, पराविद्या का विशेषज्ञ होना तथा ब्रह्म ज्ञान में प्रतिष्ठित होना अनिवार्य था। इस पीठ पर आरूढ़ होने की अभिलाषा से आने वाले विद्वान को मंदिर के चारों मुख्य द्वारों पर बैठे हुए विभिन्न मत संप्रदायों के प्रकांड पंडितों से शास्त्रार्थ करना होता था। उन्हें अपने मत से सहमत करने के बाद ही मंदिर में प्रवेश की अनुमति मिला करती थी। इस शर्त के अलावा एक और महत्वपूर्ण शर्त थी। मंदिर में प्रवेश करने के बाद पीठ पर आरूढ़ होने के लिए मां शारदा स्वयं देववाणी से उस व्यक्ति के सर्वज्ञ होने की घोषणा किया करती थी। उसके बाद ही वह व्यक्ति शारदा पीठ पर विराजमान हो सकता था।
अनेक बार अनेक विद्वान दूर-दूर से इस पीठ पर आरूढ़ होने की अभिलाषा से आया करते। कोई शास्त्रार्थ में पराजित हो जाता तो किसी को मां शारदा का आशीर्वाद नहीं मिलता।
अपने शिष्यों के आग्रह पर आचार्य शंकर इस पीठ पर विराजित होने की अभिलाषा से कश्मीर पहुंचे। मंदिर के चारों द्वारों पर वैशेषिक, न्यायिक, सांख्य , मीमांसक, सौतांत्रिक, वैभाषिक, योगाचारी, माध्यमिक, जैन आदि मतों को मानने वाले विद्वान जमा थे, आचार्य का उन से शास्त्रार्थ आरंभ हुआ।
शास्त्रार्थ की कुछ बानगी यहाँ देखते हैं। गौतम मतावलंबी न्यायिक पंडितों ने पूछा कि कणाद और गौतम के मतों में मुक्ति के संदर्भ में क्या भेद हैं? आचार्य ने उत्तर दिया कणाद के मतानुसार आत्मा मुक्ति की अवस्था में विशेष गुण रहित होकर पुनरुत्पत्ति की संभावना से मुक्त होकर आकाश की तरह निसंग एवं निष्क्रिय भाव से विराजित होती है।
वही गौतम के मतानुसार आत्मा मुक्त अवस्था में आनंद व सत्य से युक्त होकर स्थित रहती है।
अब सांख्यवादी आगे आए उन्होंने पूछा कि सांख्य मत के अनुसार मूल प्रकृति में विश्व प्रपंच का जो कारण तत्व है वह स्वतंत्र है या चिदात्मा पुरुष के अधीन है? आचार्य ने उत्तर दिया – त्रिगुणात्मक नामरूप की विशेषताओं वाली मूल प्रकृति कपिल के मतानुसार स्वतंत्र है। इसके द्वारा ही विश्व के प्रपंच का आविर्भाव होता है। यही स्वतंत्र मूल प्रकृति संसार के अस्तित्व का कारण है, लेकिन वेदांत के अनुसार मूल प्रकृति माया चैतन्य ब्रह्म के अधीन हैं।
दोनों पक्षों के मध्य अनेक क्लिष्ट विषयों पर शास्त्रार्थ चलता रहा। आचार्य के तर्क सुनकर सांख्यवादी भी संतुष्ट हुए।
अगली बारी बौद्धों की थी। उस समय बौद्ध धर्म के चार संप्रदाय थे माध्यमिक, योगाचार्य, सौतांत्रिक और वैभाषीक। बौद्ध विद्वानों ने पूछा हमारे चारों संप्रदाय में क्या भेद हैं? हमारे चारों मतों के साथ वेदांत किस प्रकार से अलग है? आचार्य ने उन्हें भी संतुष्ट किया। जैन भी संतुष्ट हुए। अंत में जैमिनी मतावलंबियों ने पूछा – जैमिनी के मतानुसार शब्द का क्या स्वरूप है शब्द धर्म है या गुण? आचार्य ने उत्तर दिया, “आप जानते हैं कि शब्द वर्णनात्मक है, वर्ण नित्य और व्यापक है, श्रवण इंद्रिय द्वारा जब शब्द की अनुभूति होती है तभी उसकी उत्पत्ति मानी जाती है इसलिए शब्द द्रव है गुण नहीं।”
आचार्य के तर्कों से संतुष्ट होकर विद्वानों ने मंदिर के द्वार खोल दिए।
मंदिर में प्रवेश कर आचार्य ने मां शारदा की स्तुति की – “सुवोक्षोजकुंभां सुधापूर्णकुंभां प्रसादवलंबामं प्रपुण्यांवलम्बाम।…. भजे शारदाम्बाम मजस्त्रमदाम्बाम।।”
यह अर्चना पूर्ण होते ही आकाशवाणी गूंजी – “वत्स शंकर मैं तुमसे प्रसन्न हूं। आज मैं, तुम्हें सर्वज्ञ की उपाधि से विभूषित करती हूं। तुम इस पीठ के योग्य अधिकारी हो। वत्स तुम मेरी इस सर्वज्ञ पीठ पर आरोहण करो।” आचार्य धीरे धीरे पीठ की ओर बढ़ने लगे, चारों ओर से आचार्य की जय जयकार गूंजने लगी। आज आचार्य वास्तविक रुप से इस दिन जगतगुरु हुए। हमारे देश में जगद्गुरु बनाने की यही पात्रता थी।
जगतगुरु आचार्य शंकर का दर्शन क्या था?
आचार्य शंकर वेदांत दर्शन के पुनःप्रवर्तक माने जाते हैं। वेदांत शब्द का अर्थ जानने के लिए इस शब्द की संधि विच्छेद करने पर वेद + अंत प्राप्त होता है। इसका अर्थ है – वेदों का अंतिम भाग। वेदांत दर्शन के दो मुख्य पक्ष हैं – पहला पक्ष सैद्धांतिक है जो बुद्धि प्रधान है जिसके द्वारा तर्कों के माध्यम से भ्रांतियों को दूर कर परम सत्य का बोध करवाया जाता है। वहीं दूसरे पक्ष में उस लक्ष्य की ओर संकेत किया जाता है जहां पहुंचकर परम शक्ति की अनुभूति होती है। इस हेतु अपनी बुद्धि एवं मन की सीमाओं का अतिक्रमण कर पार जाना होता है।
वेदांत के सिद्धांत अनुसार विश्व का सारा दृश्य मान प्रपंच जिसमें सभी पशु-पक्षी, मानव, देवी-देवता शामिल है, यह नाम एवं रूप वाला विश्व ब्रह्म के अलावा कुछ नहीं है। “सर्वं खल्विदं ब्रह्म”। जो कुछ भी इस संसार में दिखाई देता है, जो कुछ भी नाम रूप से संबोधित होता है वह सब ब्रह्म की सत्ता से ही संचालित होता है।
मनुष्य जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य परम सत्य की, ब्रह्मज्ञान की, ब्रह्म स्वरूप अथवा मुक्ति की प्राप्ति ही होता है सारे वेदों का अंतिम अभिप्राय यही है।
आचार्य ने जब अपने गुरु गोविंदपाद से शिक्षा पूर्ण की, तब गुरु ने आशीर्वाद दिया था कि तुम व्यास कृत ब्रह्म सूत्र पर भाष्य की रचना कर अद्वैत वेदांत को सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करने, सर्वधर्म के ज्ञान को सार्वभौमिक अद्वैत ब्रह्म की परिधि में लाने में सफल रहोगे। गुरु आज्ञा से आचार्य काशी पहुंचे, यहां उन्हें आद्यशक्ति एवं भगवान शंकर से आगे के कार्य का मार्गदर्शन मिला। भगवान ने आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम्हारे द्वारा वैदिक धर्म की प्राण प्रतिष्ठा हो। तुम वेदांत की पूर्ण व्याख्या करो, भ्रमित मत वादों का खंडन करो, व्यास कृत ब्रह्मसूत्र भाष्य लिखकर वेदांत के मुख्य लक्ष्य ब्रह्म ज्ञान की पुनः प्रतिष्ठा करो।
भगवान वेदव्यास द्वारा रचित ब्रह्म सूत्र परम ज्ञान की प्राप्ति हेतु मानव के मन मस्तिष्क में जितने भी प्रश्न-जिज्ञासा हो सकती है उन सब का उत्तर देता है। यह ग्रंथ आध्यात्मिक क्षेत्र के साहित्य का सर्वोच्च ग्रंथ है।
गुरु एवं भगवान की आज्ञा का पालन करने आचार्य उत्तर में व्यास क्षेत्र पहुंचे। यहां अनेक दिनों तक गंभीरतापूर्वक ध्यान कर ब्रह्म सूत्र पर भाष्य लिखना आरंभ किया। आचार्य प्रत्येक सूत्र का वाचन करते फिर अपने शिष्यों के साथ उस सूत्र का ध्यान करते। ध्यान में प्राप्त संकेतों के आधार पर प्रत्येक सूत्र का भावार्थ जानकर भाष्य की रचना करते। ब्रह्म सूत्र के लेखन के साथ-साथ आचार्य ने ब्रह्म सूत्र की शिक्षा अपने शिष्यों को देना प्रारंभ किया। इसी अवधि में आचार्य ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य के साथ द्वादश उपनिषद, भगवत गीता जिन्हें प्रस्थानत्रयी कहा जाता है के साथ लगभग 16 ग्रंथों के भाष्य की रचना की। आचार्य ने मात्र 4 वर्ष की अवधि में यह कार्य पूर्ण किया। ऐसा कहा जाता है कि ब्रह्मसूत्र का भाष्य पूरा होने पर भगवान वेदव्यास स्वयं आचार्य से भेंट करने आए और प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया कि तुम विभिन्न वादों प्रतिवादों के सिद्धांतों को वेदांत मत से सहमत कर सारे मत वालों को पूर्ण करने का कार्य प्रारंभ करो। वेदांत की महिमा के साथ ब्रह्म तत्व के विज्ञान की पुनः प्रतिष्ठा करें।
वेद, उपनिषद आदि शास्त्रों में ज्ञान के सिद्धांत एवं उसे जानने की प्रक्रिया समझाई गई है। शास्त्रों में वर्णित ज्ञान के भावार्थ को समझाने के लिए उनके भीतर प्रयुक्त किए गए हैं, शब्दों एवं परिभाषाओं की व्याख्या करने के लिए जो ग्रंथ रचे जाते हैं उन्हें प्रकरण ग्रंथ कहा जाता है। आचार्य ने ‘आत्मबोध’ के अलावा ‘तत्वबोध’, ‘पंचदशी’, ’विवेक चूड़ामणि’ जैसे ग्रंथों की रचना की ताकि शास्त्रों की समय सापेक्ष सटीक व्याख्या की जा सके।
आत्मबोध के 68 श्लोकों में आचार्य ने कलिष्ट सिद्धांतों को समझाने के लिए दृष्टांतों का उपयोग किया है। प्रत्येक श्लोक एक प्रभावशाली चित्र के समान हमारे समक्ष प्रकट होता है। वेदांत के कठिन प्रतीत होने वाले सिद्धांतों को सरलता से समझाने के लिए आचार्य ने उपमाओ का प्रयोग किया है।
आचार्य अन्य मतावलमबियों को अपने मत से सहमत करवाने के लिए शास्त्रार्थ की पद्धति का उपयोग किया करते थे। जो विद्वान उनके समक्ष अपने मत की महत्ता एवं केवल उनके मत की अधिमान्यता को स्वीकार करने के आग्रह से प्रस्तुत होते थे, आचार्य उनके मत को पूरा सम्मान पूर्वक सुना करते, उसके बाद उस मत की पूर्णता के लिए वेदांत की आवश्यकता प्रतिपादित कर उन्हें पूर्ण रूप से सहमत कर लिया करते थे।
आचार्य ने कोई नया पंथ, संप्रदाय अथवा मत स्थापित नहीं किया। उन्होंने तो प्राचीन वैदिक सनातन ज्ञान को ही तत्कालीन एवं भविष्य की आवश्यकता के अनुसार उनकी समझ स्पष्ट करने तथा समाज को बाकी सभी प्रकार के मतवादों से उपजे संघर्षों से उबार कर मूल जान पर, वास्तविक लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया है।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय में सहायक कुलसचिव के पद पर कार्यरत है।)
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