– अवनीश भटनागर
शिक्षा जीवन के विकास की यात्रा है। व्यक्तित्व के विकास का एक मात्र माध्यम शिक्षा ही है। विश्वभर के शिक्षाविद् कहते हैं कि शिक्षा के सम्मुख तीन प्रमुख काम हैं – पहला, प्राचीन ज्ञान को नवीन पीढ़ी को हस्तांतरित करना; दूसरा, नवीन ज्ञान का सृजन करना और तीसरा, अगली पीढ़ी को जीवन के संघर्ष और चुनौतियों का सामना करने के लिए सुसज्ज करना। यदि शिक्षा इन तीनों में से कोई भी एक काम न कर सके तो उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है, उसकी उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लगता है। दुर्योग से वर्तमान शिक्षा प्रणाली कहीं न कहीं इन तीनों मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में कुछ सीमा तक विफल सिद्ध हो रही है।
ज्ञान सार्वभौमिक होता है किन्तु शिक्षा राष्ट्रीय। राष्ट्र की आवश्यकता, उपयोगिता, जीवन पद्धति तथा जीवन दृष्टि के अनुरूप यदि देश की शिक्षा पद्धति नहीं होगी तो वह अगली पीढ़ी को वह सब हस्तांतरित नहीं कर सकेगी जो उसकी मूलभूत आवश्यकता है। ज्ञान का भण्डार अथाह है। ज्ञान के अधिकांश सिद्धान्त सर्वकालिक तथा स्थायी होते हैं। परन्तु जब प्रश्न शिक्षा का आता है तो यह देखना आवश्यक है कि वह देश की आवश्यकताओं के अनुरूप हो और अगली पीढ़ी को उसके जीवन की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाए। शिक्षा पर अंतर्राष्ट्रीय आयोग (डेलर्स कमीशन, 1996) ने इसीलिए शिक्षा की प्रकृति के सम्बन्ध में कहा, “Rooted in Culture, Committed to progress.” इस आयोग की रिपोर्ट का शीर्षक ही शिक्षा की मूलभूत संकल्पना को स्पष्ट करता है, “The Treasure within.”
क्या है यह अंदर छुपा हुआ खजाना? यह प्रत्येक देश की अपनी संस्कृति, सभ्यता, जीवन दृष्टि, परम्पराएं और मान्यताएं, लोक व्यवहार आदि हैं जिनसे पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान का संचार सतत् रहता है। इस आयोग की रिपोर्ट आने के लगभग 100 वर्ष पहले स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था, ‘‘संपूर्ण ज्ञान हमारे अंदर ही है। शिक्षा का कार्य मनुष्य की इस अन्तर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण करना है।’’
डेलर्स कमीशन की यह रिपोर्ट दो और प्रमुख बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। पहला पक्ष तो यह कि आखिर इस शताब्दी में विद्यार्थियों को क्या सिखाया जाना चाहिए? संयोग से यह वह कालखण्ड है जिसे Time Between Times कहा जाता है। विशेष रूप से यदि माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा की बात की जाए तो आज के इस संक्रमण काल में एक विशेष बात है कि सभी विद्यार्थियों ने इस शताब्दी में जन्म लिया है जबकि कम से कम आयु का शिक्षक भी पिछली शताब्दी का है। वैचारिक रूप से यह केवल पीढ़ी का अंतर नहीं बल्कि एक शताब्दी का अंतर है। आज विद्यार्थी ज्ञान के भण्डार का केवल उपभोक्ता नहीं रह गया बल्कि वह ज्ञान के विविध आयामों में अपनी रचना प्रस्तुत कर रहा है। ऐसी स्थिति में विद्यार्थियों को ‘क्या’ के स्थान पर ‘क्यों, कैसे और कौन’ सीखने में अधिक रुचि है। यह चुनौती प्रत्यक्ष रूप से शिक्षकों के सम्मुख है कि वे कक्षा-कक्ष को केवल उबाऊ व्याख्यान का स्थान न बनाकर उसे शिक्षक और शिष्य के बीच संवाद का केन्द्र बनाएं। नई पीढ़ी का विद्यार्थी कक्षा-कक्ष में बंधकर भी ज्ञानार्जन करने में रुचि नहीं रखता। यह एक प्रकार से विस्तारित कक्षा-कक्ष की संकल्पना है जिसे केवल कक्षा-कक्ष, प्रयोगशाला अथवा पुस्तकालय की सीमाओं से बाहर निकलकर ज्ञानार्जन के विविध आयामों, स्तरों, स्थानों के माध्यम से तथा दूरस्थ एवं अनौपचारिक शिक्षा जोकि उसे 24×7 और यहाँ तक कि उसके घर में भी उपलब्ध हो सके, की आवश्यकता है। इस नई व्यवस्था से जुड़ने, उसे स्वीकारने और स्वयं को उसके अनुकूल ढालने की महती आवश्यकता आज शिक्षक समुदाय को है और उसके लिए उन्हें व्यक्तिशः स्वयं को तैयार करना होगा।
विज्ञान तथा तकनीक के विकास के साथ बौद्धिक क्षमता का स्थान तेजी से Artificial intelligence ने ले लिया है। ‘why I need a teacher when I have Google’ यह आज के विद्यार्थी का प्रश्न है। इसे यदि वैश्विक परिदृश्य में देखें तो भले ही भारत के लिए कम्प्यूटर अथवा सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी अपेक्षाकृत नया विषय हो परन्तु अमेरिका तथा यूरोपीय देशों में यह नई नहीं है, लगभग 70 वर्षों से शिक्षा के क्षेत्रा में तकनीक का उपयोग हो रहा है। फिर भी ऐसा कोई समाचार सुनने या पढ़ने में नहीं आया कि इतने वर्षों में वहां का कोई विश्वविद्यालय या महाविद्यालय इस कारण बन्द कर दिया गया हो। इससे यह समझा जा सकता है कि गुरु-शिष्य संवाद की यह समयसिद्ध परम्परा वहां भी विकल्पहीन है, किन्तु इस तथ्य की ओर से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि बढ़ती हुई तकनीकी प्रगति के साथ यदि वर्तमान पीढ़ी के शिक्षकों ने स्वयं को गतिमान नहीं रखा तो प्रसिद्ध अँग्रेजी कहावत If you are not updated, you are outdated’ सत्य सिद्ध होने वाली है। समय किसी की प्रतीक्षा में नहीं रुकता।
डेलर्स कमीशन विश्व को शिक्षा के माध्यम से चार बातें सिखाने की सिफारिश करती है – Learning to Learn, Learning to do, Learning to be and Learning to live together यदि गंभीरता से विचार करें तो आज की शिक्षा पद्धति के सम्मुख यह चारों उद्देश्य भी चुनौती के रूप में दिखाई देते हैं। हम पाठ्यक्रम तय करते हैं, उसकी विषय-वस्तु को अध्यायों में बांटते हैं, उसको विद्यालय के कालांश विभाजन चक्र में बांधते हैं और इस सबको केवल परीक्षा से जोड़ देते हैं। आज शिक्षा का अर्थ केवल अंक ज्ञान, अक्षर ज्ञान, कुछ पुस्तकों का अध्ययन, उसमें से कुछ चुने हुए प्रश्नों के उत्तर को रट लेना और उन्हें परीक्षा की उत्तर पुस्तिका में यथावत् लिख देना, और उसके आधार पर एक अंकसूची और प्रमाण-पत्र प्राप्त कर नौकरी पाने की दौड़ में शामिल हो जाना इतने तक ही सीमित हो गया है। अच्छी शिक्षा अर्थात् अच्छा मनुष्य बनाने की शिक्षा के स्थान पर अच्छी नौकरी अर्थात् अधिक कमाई वाला स्थान दिलाने वाली शिक्षा को मान लिया गया है। इसीलिए अच्छे शिक्षण संस्थान की परिभाषा भी अच्छे शिक्षकों, अच्छे शैक्षिक वातावरण, संस्कारक्षम परिवेश, सक्षम पुस्तकालय अथवा प्रयोगशाला या शिक्षण सहायक सामग्री आदि न होकर सुन्दर भवन, वातानुकूलन, वाहनों की बड़ी संख्या, चमक-दमक और शुल्क की बड़ी राशि आदि हो गए हैं। ज्ञानार्जन के करणों को विकसित करने के स्थान पर उपकरणों का विचार अधिक होता है। विद्यार्थी कैसे सीखे, सीखे हुए को जीवन के व्यवहार में कैसे लाए, अपने अस्तित्व और जीवन के लक्ष्य का निर्धारण कैसे करे और सबसे बढ़कर उसमें सामाजिक सरोकार तथा संवेदनशीलता कैसे विकसित हो, यह शिक्षाविदों की इस अंतर्राष्ट्रीय मंडली की चिन्ता और चिन्तन का विषय तो है परन्तु वास्तविकता के धरातल पर उसका क्रियान्वयन दिखाई नहीं देता।
यही डेलर्स आयोग इस शताब्दी में युवा के सामने आने वाले सात प्रकार के वैचारिक विरोधाभासों का भी उल्लेख करता है – Local versus Global (स्थानीय अथवा वैश्विक), Universal Versus Individual (सार्वभौमिक अथवा व्यक्तिगत), Traditions Versus Modernity (परम्पराएं अथवा आधुनिकता), Long term targets versus short term benefits (दीर्घकालिक लक्ष्य अथवा अल्पकालीन लाभ), Competition versus equality (स्पर्धा अथवा समानता), Physical Satisfaction versus spirituality (भौतिक संतुष्टि अथवा आध्यात्मिकता) and knowledge versus capacity to Assiamilate (जानकारियों का संग्रह अथवा विचार ग्राह्यता) यह सभी Conflicts versus Capacity to Assiamilate समाज जीवन में चारों ओर दिखाई दे रहे हैं। शिक्षा का कार्य अगली पीढ़ी को इन सभी संघर्षों में केवल दो-दो के जोड़े में से किसी एक को चुनने का नहीं बल्कि उनके बीच में समुचित संतुलन स्थापित करने की क्षमता का विकास करना भी है।
प्रख्यात पत्रकार, इतिहासविद् तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक डा॰ देवेन्द्र स्वरूप जी की एक पुस्तक कुछ वर्ष पहले प्रकाशित हुई है – ‘राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन का इतिहास’। इसकी प्रस्तावना में डाo देवेन्द्र स्वरूप जी शिक्षा के सम्बन्ध में कुछ मूलभूत प्रश्न आज के शिक्षकों, शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों तथा नीति निर्माताओं के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं। सभी कोई शिक्षा नीति में परिवर्तन की बात करते हैं। राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी, विश्वविद्यालयों के कुलपति और प्राध्यापक से लेकर उद्योगपति-व्यवसायी-किसान-अभिभावक-विद्यार्थी तक सभी शिक्षा की वर्तमान प्रणाली को दोषयुक्त मानते हैं और उसमें परिवर्तन करना चाहिए, ऐसा कहते हैं। पहला प्रश्न है कि यदि समाजनीति, राजनीति और अर्थनीति को यथावत् रखा जाए और केवल शिक्षा नीति में परिवर्तन कर दिया जाए तो यह परिवर्तन कितना सफल हो सकेगा? इसके ठीक विपरीत विचार करें तो यदि समाजनीति-अर्थनीति और राजनीति में परिवर्तन कर दिया जाए किन्तु शिक्षा नीति को अपरिवर्तित रखा जाए तो यह परिवर्तन कितना स्थायी और परिणामकारी होगा? सरल शब्दों में कहें तो शिक्षा नीति में होने वाला कोई भी परिवर्तन तभी प्रभावी और परिणामकारी हो सकता है जब समाज जीवन के अन्य क्षेत्र भी उसमें सकारात्मक सहयोग करें अन्यथा स्वार्थ आधारित समाजनीति, लाभ-लोभ आधारित अर्थनीति तथा सिद्धांतविहीन राजनीति के चलते शिक्षा नीति में किए गए परिवर्तन निष्प्रभावी रहेंगे।
दूसरा प्रश्न है कि यदि यह परिवर्तन करना ही हो तो आखिर इसे करेगा कौन? सहज उत्तर है, ‘‘सरकार या संसद’’। लोकतंत्र में सामान्यतः सारी जिम्मेदारी सरकार या जनप्रतिनिधियों पर छोड़कर समाज निश्चिन्त होकर बैठ जाता है। सामान्य रूप से सरकार की प्राथमिकता सूची में शिक्षा का विषय प्रायः नहीं होता। भारत जैसे लोकतंत्र की एक मजबूरी यह भी है कि शिक्षा का सम्पूर्ण तंत्र सरकार के हाथों में है न कि शिक्षाविदों के हाथों में। शिक्षा में स्वायत्तता की चर्चा अनेक मंचों से होती है परन्तु न तो सरकार अपने अधिकार क्षेत्र में कोई कटौती किया जाना पसन्द करती है और न ही शिक्षाविदों की ओर से इसको लेकर कोई प्रभावी पहल होती है। ऐसे में यह प्रश्न करना अत्यंत स्वाभाविक है कि दो विकल्पों में से बेहतर क्या होगा – संसद शिक्षा में परिवर्तन करे या शिक्षा जगत के लोग संसद में बैठे हुए लोगों का शिक्षा को प्राथमिकता सूची में लाने योग्य मानस परिवर्तन करें?
समस्या केवल सरकार से ही नहीं है। प्रायः यह कहा जाता है कि शिक्षा को देश की आवश्यकताओं की पूर्ति के अनुरूप होना चाहिए। संभवतः यहां इस प्रश्न पर और अधिक गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि शिक्षा केवल देश की आवश्यकताओं की पूर्ति करती जाए अथवा उसका इससे बड़ा दायित्व देश के लोगों को यह सिखाने का है कि वे किस बात की आवश्यकता अनुभव तथा व्यक्त करें?
केवल सरकार या समाज ही शिक्षा की दुरावस्था के लिए उत्तरदायी हैं, इतना ही नहीं है। कोठारी आयोग (1964-66) के अध्यक्ष डा० दौलत सिंह कोठारी का वह कथन शिक्षाविदों के लिए भी गंभीरतापूर्वक विचार करने वाला है कि ‘‘भारत के शिक्षाविदों तथा बुद्धिजीवियों का गुरुत्वाकर्षण केन्द्र भारत के बाहर स्थित है।’’ इसी का परिणाम है कि देश की अपेक्षाओं, भावनाओं, आवश्यकताओं, मान्यताओं, परम्पराओं तथा जीवन दृष्टि का विचार किए बिना ही जो भी कुछ यूरोप और अमेरिका में होता है उसे हम भी अपने देश के लिए उपयोगी मानते हुए लागू कर देते हैं, भले ही उसका परिणाम बाद में कुछ भी आए। क्या शिक्षा क्षेत्रा के अंदर ही शिक्षा के सम्मुख यह एक बड़ी चुनौती नहीं है?
शिक्षा पर सरकारी नियंत्रण के अपने गुण और दोष हो सकते हैं। सरकार प्रत्येक कार्य को एक तंत्र या मैकेनिज्म के तहत चलाने का प्रयास करती है। शिक्षा मैकेनिज्म से चलने वाला विषय नहीं। प्राथमिक-माध्यमिक-उच्च माध्यमिक-महाविद्यालयीन-तकनीकी-व्यावसायिक शिक्षा यह सब व्यवस्था विभाजन की दृष्टि से सरकार की आंतरिक व्यवस्था हो सकती है। इसी प्रकार पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम, पाठ्य पुस्तकें, कालांश विभाजन, कक्षा शिक्षण तथा मूल्यांकन, यह सभी व्यवस्था सम्बन्धी कार्य विभाजन है। किन्तु सरकार की कार्यपपद्धति में इन सब पर तंत्र हावी हो गया है। पाठ्यचर्या निर्धारण करने वाली उच्चाधिकार प्राप्त समिति और पाठ्यक्रम की रूपरेखा तय करने वाले विद्वत्जनों, उस पाठ्यक्रम के आधार पर पाठ्यपुस्तकों का लेखन करने वाले विद्वानों, उन पाठ्य पुस्तकों के आधार पर कक्षा शिक्षण करने वाले अध्यापकों, कक्षा में पढ़ाई गई विषयवस्तु के आधार पर प्रश्नपत्र निर्माण करने वाले प्राश्निकों तथा प्रश्न-पत्र बनाने वालों और उत्तर पुस्तिका का मूल्यांकन करने वाले परीक्षकों के बीच कोई समन्वय स्थापित करने का प्रयास नहीं किया जाता। सी.बी.एस.ई. के पूर्व अध्यक्ष श्री अशोक गांगुली के शब्दों में उपर्युक्त कारणों से ‘We cover the syllabus but do not discover anything.’ की स्थिति दिखाई देती है। शिक्षा जगत को इस चुनौती को भी स्वीकार करना होगा।
कुछ वर्ष पहले Infosys के संस्थापक श्री नारायण मूर्ति का एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने शिक्षा के परिणामों के विषय में अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनके अनुसार I.C.T के क्षेत्र में कार्यरत कम्पनियों में Infosys का जो स्थान है उसके कारण प्रायः अन्य कम्पनियों में कुछ समय तक काम कर अनुभव प्राप्त करने के बाद इस क्षेत्र के व्यक्ति उनके यहां काम करने आते हैं। कैम्पस चयन में सामान्यतः उनके यहां चयनित होने वाले विद्यार्थी अपने-अपने संस्थानों के टोपर्स होते हैं। Infosys में आने के बाद प्रायः अन्य कम्पनियों में जाना कम होता है। इसके बावजूद भी प्रतिवर्ष दो-तीन प्रतिशत कर्मचारी अन्य संस्थानों में, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में बेहतर वेतन अथवा सेवा शर्तों के कारण जाते हैं। श्री नारायण मूर्ति की चिन्ता तब प्रारंभ हुई जब Infosys को छोड़कर जाने वालों का प्रतिशत बढ़ा। कारणों की विवेचना करने पर उनकी जानकारी में आया कि यह बेहतर वेतन अथवा सेवा शर्तों के लालच के कारण न होकर Infosys द्वारा सौंपे गए प्रोजेक्ट के दायित्व को संभालने में विफल होने के कारण उत्पन्न निराशा का परिणाम था। श्री मूर्ति कहते हैं कि वे अपने-अपने संस्थानों के टोपर्स यदि किसी प्रोजेक्ट को संभालने में, नेतृत्व करने में विफल होते हैं तो यह केवल Infosys की चिन्ता का विषय नहीं है बल्कि शिक्षा व्यवस्था के सम्मुख यह विचार करने की चुनौती है कि प्रतिष्ठित संस्थानों के टोपर्स इस प्रकार की क्षमता से युक्त क्यों नहीं हो पा रहे हैं?
पिछले दिनों प्राथमिक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा को लेकर दो अलग-अलग सर्वेक्षण रिपोर्टों की खूब चर्चा शिक्षा जगत में हुई है। पहली वह रिपोर्ट जिसमें बताया कि विश्व की टॉप 200 शिक्षण संस्थाओं में भारत की कोई संस्था नहीं है। स्वाभाविक रूप से शिक्षाविदों के लिए यह एक गहन चिन्ता का विषय बना क्योंकि हमारे स्तर का मूल्यांकन अंतर्राष्ट्रीय पैमानों पर यदि खरा नहीं उतरता तो हमें आत्मग्लानि जैसा लगता है। इस बात का विचार किए बिना कि यह मानक क्या थे, किसने तय किए थे और तय करने वाली संस्था के देश और भारत की शिक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं में कहीं कोई आधारभूत अंतर तो नहीं, हम हीन ग्रंथि के शिकार हो गए। आवश्यकता है कि उन मानकों का अध्ययन कर और यदि आवश्यक हो तो अपने विश्वविद्यालयों को उनके अनुरूप स्तर तक ले जाने की। सामान्यतः वैज्ञानिक अनुसंधान तथा उन पर आधारित पेटेंट आदि को लेकर हम अन्य देशों की तुलना में आज भी पीछे ही हैं। शायद इसका कारण हमारी यह भारतीय मनोवृत्ति भी हो सकती है कि हम ज्ञान के किसी भी क्षेत्र को एकाधिकार अथवा लाभ प्राप्ति का साधन नहीं मानते। दूसरी रिपोर्ट प्रथम नामक एन.जी.ओ. द्वारा जारी उस वार्षिक सर्वेक्षण पर आधारित है जिसे सामान्यतः ‘असर’ के नाम से पहचाना जाता है। इस रिपोर्ट के तथ्य, जैसे – कक्षाओं में उत्तरोतर वृद्धि होने के साथ-साथ विद्यालय छोड़ने वालों की संख्या में वृद्धि अथवा पांचवीं कक्षा का विद्यार्थी तीसरी कक्षा की पुस्तक नहीं पढ़ सकता या आठवीं कक्षा का विद्यार्थी पांचवीं कक्षा के स्तर का अंकगणित का सरल प्रश्न नहीं हल कर सकता आदि, वास्तव में शिक्षा जगत के लिए गहन चिन्ता का विषय है। यदि अधिगम परिणाम इस प्रकार के हैं तो शिक्षा की पद्धति में, व्यवस्थाओं में और सबसे अधिक शिक्षकों के मानस में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
केवल शैक्षिक स्तर ही चुनौती का विषय है इतना नहीं। शिक्षा आज संस्कार नहीं सिखाती, लोक-व्यवहार, शिष्टाचार, सामाजिक सरोकार और संवेदनशीलता भी नहीं विकसित करती। विद्यार्थी के व्यक्तित्व का विकास करने की जिम्मेदारी जिन शिक्षकों पर है उनकी शैक्षिक गुणवत्ता, उनके प्रबोधन और विकास की भी कोई योजना प्रभावी नहीं है। अपनी रूचि से कोई शिक्षक नहीं बनना चाहता। रोजगार के अन्य किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त न होने पर अंतिम उपाय के रूप में व्यक्ति मजबूरी में शिक्षक बनना स्वीकार करता है। ऐसी स्थिति में उनके सामने केवल रोजगार का प्रश्न होता है, शैक्षिक गुणवत्ता अथवा विद्यार्थी-विद्यालय-समाज-देश के प्रति किसी प्रतिबद्धता का विचार नहीं होता। ऐसे में ‘गुरु’ के ‘गौरव या गुरुत्व’ का विचार कहाँ से उत्पन्न हो सकता है? अन्य देशों की नकल पर हमने अपने देश में भी शिक्षा मंत्रालय का नाम बदलकर ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ कर दिया। विचार करने वाली बात यह है कि क्या इस मंत्रालय के पास आगामी 20-25 या 50 वर्ष के लिए अपेक्षित मानव संसाधन के विकास के कोई लक्ष्य या आंकड़े उपलब्ध हैं और क्या उस दिशा में उनके पास कोई कार्ययोजना है? 2050 तक इस देश को कितने परमाणु वैज्ञानिक, कितने कृषि वैज्ञानिक, कितने चिकित्सा विशेषज्ञ, कितने अन्तरिक्ष अनुसंधानकर्ता, कितने विश्वविद्यालय प्राध्यापक अथवा प्राथमिक शिक्षक तैयार करने होंगे, इसको लेकर हमारी क्या तैयारी है? प्रश्न यह भी है कि क्या इन विभिन्न क्षेत्रों में जिस प्रकार के मानव संसाधन की आवश्यकता पड़ने वाली है उसका विकास करने की जिम्मेदारी किसकी है – राष्ट्र की, सरकार की, विद्यार्थी की या अभिभावक की? यदि अभिभावक को अपना पेट काटकर या विद्यार्थी को बैंक से ऋण लेकर पढ़ाई करनी है तो देश उससे यह अपेक्षा कैसे कर सकता है कि पढ़ाई पूरी करने के बाद वह देश की सेवा के लिए अपना जीवन लगा देगा? व्यापार का सरल सिद्धान्त है – ‘‘लगाएगा सो पाएगा’’। ऐसी स्थिति में देशसेवा, कर्तव्य निष्ठा, जिम्मेदारी अथवा समर्पण के प्रश्न बेमानी हो जाते हैं।
यदि राष्ट्र के विकास के लिए विविध क्षेत्रों में हमको आगामी 25-50 वर्षों में विशेषज्ञों की आवश्यकता है तो उस प्रकार के मानव संसाधन के विकास की आधारभूत योजना की आवश्यकता से भी नहीं बचा जा सकता। समस्याएँ और चुनौतियां असंख्य हैं। केवल उनको गिनते रहने से कोई समाधान नहीं निकल सकता। शिक्षा में मूलभूत परिवर्तन लाने हैं तो शिक्षाविदों को ही आगे आना होगा। बुद्धिजीवी समाज को एकजुट होकर भारत की शिक्षा को भारत केन्द्रित करना होगा अर्थात् डा० कोठारी की चिन्ता के अनुसार गुरुत्वाकर्षण केन्द्र को वापस भारत में लाना होगा। विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों के समुचित प्रबोधन की आवश्यकता है कि पढ़ाई का अर्थ केवल कैरियर या रोजगार ही नहीं होता बल्कि श्रेष्ठ मनुष्य का निर्माण करना, जीवन-मूल्य, आत्मगौरव तथा राष्ट्र गौरव के भाव का जागरण करना भी शिक्षा के कार्य हैं। व्यक्तित्व का समग्र विकास होने से आज की आत्म-केन्द्रित युवा पीढ़ी को सामाजिकता के भाव के साथ जोड़ना आवश्यक है। शिक्षा क्षेत्रा में राष्ट्रीयता का भाव रखने वाले विद्वानों के समूह के ध्रुवीकरण तथा उनके सक्रिय होने की भी बड़ी आवश्यकता है। यह प्रयास कुछ व्यक्ति या संगठन मात्रा नहीं कर सकते। इसके लिए समाज में शिक्षा को सही अर्थों में समाजोपयोगी तथा राष्ट्रोपयोगी बनाने का विचार रखने वाले सभी सहयात्रियों को साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा।
(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय मंत्री और संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र के सचिव है।)