पाती बिटिया के नाम-36 (बड़ा काम कैसे होता है? पूछा मेरे मन ने)

 – डॉ विकास दवे

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प्रिय बिटिया!

आज एक सच्ची घटना सुनाता हूँ।

उस दिन भोपाल जाने हेतु सुबह की पहली ट्रेन से निकलना तय हुआ। प्रात: 7 बजे से पूर्व मैं ट्रेन में बैठ गया। डिब्बे में काफी जगह थी। तभी देखा एक वृद्ध व्यक्ति दो बड़े-बड़े झोले टांगे डिब्बे में चढ़े। धोती, कुर्ता, सिर के पूरे बाल सफेद और वैसी ही श्वेत हल्की-हल्की दाढ़ी। भाल पर लगी बड़ी-सी गोल बिंदी उनके व्यक्तित्व को और भी प्रभावशाली बना रही थी। उन्होंने वे झोले उस डिब्बे के मध्य वाले द्वार के पास पहली ही सीट पर रख दिए और दोनों झोलों के मुँह खोलकर इस प्रकार रख दिए कि उनमें रखी पुस्तकें दिखने लगीं। कोई उस सीट पर बैठने का प्रयत्न करता तो वे बाबा कहते- “भैया किसी ओर सीट पर बैठ जाईए। यहाँ मेरी पुस्तकें बैठेंगी। बहुत जगह है आगे कहीं बैठ जाएं।” मेरा पूरा ध्यान हाथ में पकड़े समाचार-पत्र से हटकर उन पर ही टिक गया था। वे बोले- “मित्रों आप सबको दशहरे की शुभ कामनाएँ। हम सबने एक रावण मैदान में जलाकर मार दिया, लेकिन क्या हमारे मन में छुपे रावण को हम मार पाए? उसे मारने कोई राम नहीं आएंगे, उसे मारने के लिए हमें सहयोग लेना होगा, इन पुस्तकों का। इस दीवाली पर एक दीप इन पुस्तकों के प्रकाश का जलाईए। ये थैले यहीं रखे रहेंगे। मैं दूसरे डिब्बे में ऐसे ही झोले रखकर आता हूँ। आपमें से कोई भी इन पुस्तकों को निकालकर देख सकते हैं। मैं देवास में आऊँगा आपसे फिर बात करने।”

इतना कहकर वे उतरकर चले गए। कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़कर कह रहे थे- “धंधा करने के नए-नए तरीके निकाल लेते हैं ये बेचने वाले भी।”

मैं फिर समाचारों में डूब गया। देवास में वे सज्जन पुन: आए। उनकी आवाज एक बार फिर गूँजने लगी- “किस-किसने ये पुस्तकें देखने के लिए ली हैं, कृपया हाथ खड़ा करें मैं आपके पास तक आता हूँ।”

एक बहन ने एक पुस्तक ली थी। केवल उसने ही हाथ खड़ा किया। बाबा प्रसन्न हो गए- “अरे वाह, मेरी बिटिया ने हिम्मत की है। कौन-सी पुस्तक ली है? वाह बेटे ये पुस्तक बहुत अच्छी है। तेरा जब विवाह होगा तो इसका ज्ञान तेरी संतानों को श्रेष्ठ संस्कार देने के काम आएगा। इसकी कीमत वैसे तो छ:रुपये है किन्तु छुट्टे पैसे न तो मेरे पास हैं और तेरे पास भी नहीं। ऐसा कर, पाँच रुपये ही दे दे। अब इतनी कम मूल्य की पुस्तकें सबके आकर्षण का केन्द्र बन गई। कई लोगों ने पुस्तकों को देखना और खरीदना प्रारंभ कर दिया। मैं देख रहा था, वे किसी को कुछ राशि बच जाने पर उससे अधिक मूल्य की पुस्तक दे देते थे। इस बीच एक युवक ने शेरो-शायरी की पुस्तक माँगी।

बाबा बोले- “बेटे मेरे पास इस प्रकार की भी पुस्तक हैं लेकिन सच कहूँ, इसकी कीमत मात्र 4 रुपये है और यह 10 रुपये में बिकती है। इसमें मैं कोई छूट भी नहीं देता। मेरी मानो तो ये अन्य गीता प्रेस की पुस्तकें खरीदो बहुत अच्छी भी हैं और स्वाध्याय की आदत भी बनेगी।”

युवक पर कोई असर नहीं हुआ। उसने वही रोमांटिक शायरी की पुस्तक ली। बाबा के चेहरे पर 10 रुपये लेकर भी कष्ट की छाप स्पष्ट दिखाई दे रही थी। वे फिर बोले- “किसी के पैसे मेरी ओर बाकी तो नहीं रह गए आप बता दें, मैं लौटा दूंगा। क्या करूँ वृद्ध हूँ ना याद नहीं रहता। अब मैं उतर रहा हूँ। आप सबसे निवेदन है अच्छा साहित्य पढ़ें और सकारात्मक सोचें, सकारात्मक करें। अरे हाँ मेरी वह बेटी कहाँ है जिसने सबसे पहली पुस्तक ली थी।”

झोले से एक पुस्तक निकालकर वे उसके पास पहुँचे और देते हुए बोले- “बेटी यह मेरी ओर से रख लो। आदर्श गृहस्थी के निर्माण में यह काम आएगी। इसके पैसे नहीं लूँगा। यह मेरा आशीर्वाद समझ कर रख ले।”

वे झोलों को मुश्किल से खींच कर दरवाजे तक ले आए। मैं उठकर उनके पास पहूँचा। “बाबा आप कहाँ रहते हैं?” मैंने पूछा। वे बोले- “खास रहने वाला शूजालपुर का हूँ लेकिन अब इन्दौर ही रहता हूँ।”

“इससे पूर्व क्या करते थे?” प्रश्न के उत्तर में बोले- “एच.आर.डी.(मानव संसाधन विभाग) से सेवानिवृत्त हुआ हूँ। केन्द्र सरकार पेंशन खूब देती है उसी का सदुपयोग करता हूँ।”

“आपका शुभ नाम जान सकता हूँ?” मैंने संकोच से पूछा।

वह तेजोमयी चेहरा एक क्षण को शून्य में ताकता रहा और धीरे से बोला- “डॉ. दीपेश्वर।” मुझे भौंचक छोड़ वे उज्जैन के प्लेटफार्म पर उतर चुके थे।

मैं सोच रहा था और कानों में आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जी की पंक्तियाँ गूंज रही थीं- “बड़ा काम कैसे होता है? पूछा मेरे मन ने….”

मेरे हाथों में इस समय यात्रा के दौरान पढने के लिए लाई गई एक पुस्तक थी- “सकारात्मक सोच”। मैं मन ही मन सोच रहा था- “केवल पढने से नहीं कुछ करने से ही दृश्य बदलता है।” तुम क्या समझी पत्र लिखकर मुझे बताना।

-तुम्हारे पापा

(लेखक इंदौर से प्रकाशित देवपुत्र” सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)

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