✍ दिलीप वसंत बेतकेकर
हम किससे और कितना सीखते हैं यह संस्कृत के विद्वानों द्वारा सुंदर रीति से प्रस्तुत किया गया है –
आचार्यात पादम आधत्ते, शिष्यः पादम स्वमेधया
पादम सब्रह्मचारिभ्यो, पादम काल क्रर्मेशु तु!!
(हम एक चौथाई भाग शिक्षकों से ग्रहण करते हैं, एक चौथाई स्वयं के परिश्रम से सीखते हैं, एक चौथाई समवयस्क बंधु, मित्रों आदि द्वारा, और एक चौथाई भाग जीवन के अनुभव द्वारा सीखते हैं।)
आज हम अपने अध्ययन में मित्रों की भूमिका कितनी है, और कैसे महत्त्वपूर्ण है इस का विचार करेंगे। उपरोक्त वर्णित सुभाषित के अनुसार मित्रों की सहायता एक चौथाई भाग की है जो बहुत है परन्तु इसका उपयोग अभी नहीं होता है।
कक्षा में शिक्षक व्याख्यान दे रहे होते हैं, उस समय कभी कभी हमारा ध्यान व्याख्यान से हटकर अन्यत्र भटक जाता है, अथवा कभी कभी शिक्षक के व्याख्यान का कुछ भाग हमारी समझ में नहीं आता, अथवा मन में कुछ शंकाएं, कुछ प्रश्न उभरते हैं, परन्तु कक्षा में खड़े होकर उसका निराकरण करने के लिए शिक्षक से पूछने का साहस नहीं होता। किसी भी स्थिति में नुकसान अपना ही होता है। ऐसे में पहले का भाग समझ में न आने से उस पर आधारित आगे का भाग समझना कठिन हो जाता है। परंतु ‘पादम स ब्रह्मचारिभ्यो’ को ध्यान में रखकर अपने वर्ग बंधुओं की मदद लेकर नुकसान को टाल सकते हैं।
इसीलिए अध्ययन की अनेक पद्धतियों में समूह चर्चा पद्धति उपयुक्त है। कक्षा में हमें न समझ में आने वाला अंश अपने मित्रों की समझ में बेहतर आया हो या जो मित्रों के समझ में जो अंश न समझ आया हो हमें अधिक अच्छा समझ आया हो। अपना ध्यान कक्षा में व्याख्यान की ओर न होगा उस समय मित्र का ध्यान उस ओर होगा, और उस मित्र का ध्यान न हो उस समय हमारा ध्यान व्याख्यान पर होगा। ऐसे में समूह चर्चा में एक दूसरे का ज्ञान आपस में प्राप्त होने में बहुत मदद मिलती है। अपने मन में उभरे हुए अन्य प्रश्न भी मित्रों के समूह चर्चा द्वारा निराकृत कर सकते हैं। ऐसे अनेक लाभ समूह चर्चा के हैं।
यदि हम दूसरों को सिखाएंगे तो वह हमसे आगे प्रगति कर जायेंगे ऐसी धारणा अनेक में होती है। किन्तु यह भाग निराधार है। वास्तव में तो हम यदि दूसरों को ज्ञान देंगे, समझाएंगे तो इसे हमें भी लाभ होगा। अध्ययन की सबसे अधिक प्रभावी पद्धति तो एक दूसरे को पढ़ाना ही है। Teaching is the best method of learning. यह सत्य है।
महान विचारवन्त सिनेका के अनुसार Man, in teaching others, learns himself. (मानव जब दूसरों को पढ़ाता है तब स्वयं पढ़ रहा होता है।)
इस अध्ययन पद्धति का उपयोग करते समय कुछ शर्तों का पालन करना आवश्यक है। अन्यथा ‘समूह और चर्चा’ दोनों विपरीत दिशा में चलने लगेंगे। ये शर्तें इस प्रकार से हैं –
(१) ‘समूह’ बनाते समय यह देखे कि सदस्यगण एक ही कक्षा में अध्ययन करते हों, और हरसंभव आसपास रहने वाले हों, अन्यथा सदस्यों के आने जाने में ही समय नष्ट होगा।
(२) हरसंभव ‘समूह’ सदस्यों की संख्या चार पांच तक सीमित हो अन्यथा संख्या अधिक होने पर आवंछित समस्याएं उभर सकती हैं।
(३) प्रतिदिन एक घंटे इस पद्धति में अभ्यास करें। ज्यादा देर एकत्र होने से अन्य बातों में भटकने की समस्या आ जाती है। यदि प्रतिदिन एकत्र बैठना संभव न हो तो सप्ताह में तीन चार बार बैठना भी पर्याप्त होगा।
उपरोक्त तीन शर्तों का पालन करने से समूह चर्चा में और चर्चा समूह को ही लाभ होगा। परन्तु शर्तों का पालन न होने से नुकसान की संभावना अधिक रहती है। अतः सावधानी रखते हुए, विचार पूर्वक इस पद्धति का उपयोग करें। समूह चर्चा के अनेकों लाभ हैं –
(१) ‘समूह चर्चा’ द्वारा अभ्यास में टालमटोल करने की संभावना कम होती है। ‘बाद में करेंगे’, ‘कल करेंगे’ ऐसा नहीं होगा। अभ्यास समय पर हो सकेगा।
(२) समूह के साथ अभ्यास करने से आलस्य हावी नहीं होगा। अभ्यास प्रसन्नतापूर्वक होगा।
(३) कक्षा में छूटे हुए अभ्यास के अंश लिखते हुए छूटे अंश, मित्रों के साथ अभ्यास से पूर्ण हो जाते हैं।
(४) अकेले अभ्यास कर करने का अकेलापन दूर होता है।
(५) अधिक व्यापक और गहन चर्चा करने का अवसर प्राप्त होता है।
(६) आपस में एक दूसरे से स्पर्धा नहीं होती और आपसी सहायता करने की प्रवृति में वृद्धि होती है।
(७) इस पद्धति की आदत शालेय जीवन से ही डालने पर उच्च शिक्षा के लिए लाभ होगा।
आजकल की अकेले कार्य करने की आदत अब भविष्य में उपयोगी नहीं होगी। आज का मंत्र है टीम वर्क! यह कार्यशैली, कार्य संस्कृति अपनानी पड़ेगी। ‘सामूहिक अभ्यास’ इस दिशा में एक अच्छी पहल रहेगी।
“एक मेका का सहाय्य करू, अवधे धरू सुपंथ” (मराठी उक्ति) इस एक दूसरे की सहायता करने की उक्ति को सार्थक बनाने का प्रयास करें!!
(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)
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