✍ वासुदेव प्रजापति
अंग्रेजी राज्य ने अपने हित के लिए हमारे सामाजिक ढ़ाँचे को छिन्न-भिन्न कर दिया। हमारे यहाँ व्यवस्थाओं का विकेंद्रीकरण था, अंग्रेजों ने उसे केन्द्रीकृत कर दिया। उन्होंने भारतीयों से कहा, तुम्हें किसी भी बात की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं, सभी व्यवस्थाएँ सरकार उपलब्ध करवायेंगी। यहाँ तक की तुम्हें अपनी सुरक्षा की चिन्ता करने की भी आवश्यकता नहीं है। पुलिस को तुम्हारी सुरक्षा के लिए ही रखा है, वह तुम्हारी सुरक्षा करेगी। पानी-बिजली, अनाज आदि सब कुछ सरकार उपलब्ध करवायेगी। सभी व्यवस्थाएँ और समस्त अधिकार अपने हाथ में लेकर सभी भारतीयों को अंग्रेजी शासन पर पूर्णतया निर्भर बना दिया। उस समय हमारे लोगों को लगा कि यह सरकार अच्छी है, हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता, सब कुछ सरकार करती है। परन्तु वे यह नहीं समझ पाए कि अंग्रेजों ने उन्हें निकम्मा व आलसी ही नहीं तो दायित्वहीन बना दिया है। इस तरह अंग्रेजी शासन में दायित्व हीनता का स्वभाव बन जाने के कारण देश की स्वतंत्रता के उपरान्त भी भारतीयों को यह समझ में नहीं आ रहा कि देश व समाज की सेवा का दायित्व हमारा है, केवल सरकार का नहीं। यही कारण है कि आज दायित्व बोध के अभाव में हमें अनेक संकटों से जूझना पड़ रहा है।
व्यावहारिक संकटों के उदाहरण
- किसी व्यक्ति ने हमसे किसी स्थान का मार्ग पूछा, हमने उसे बिना सोचे-समझे मार्ग बता दिया। वह व्यक्ति उस मार्ग पर आगे बढ़ा परन्तु गलत स्थान पर पहुँच गया, उसे बड़ा भारी नुकसान हुआ। हमारे गलत बताने के कारण उसकी यह स्थिति बनीं। क्या हम उसकी हानि का उत्तरदायित्व लेंगे?
- हमने किसी दुकान से कपड़ा खरीदा। कपड़े की गुणवत्ता के बारे में दुकानदार ने बताया था, आप निश्चिंत रहो कपड़ा बहुत अच्छा है। घर आकर हमने उस कपड़े को अन्य कपड़ों के साथ धो दिया। उस नए कपड़े का रंग तो उतरा ही उस रंग से दूसरे कपड़े भी बदरंग हो गए। उस दुकानदार से शिकायत की तो उसने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ दिया कि साहब कपड़ा मैंने थोड़े ही बुना है। अब हम क्या करेंगे?
- हमारे मित्र ने अपने एक काम के लिए हमसे मदद माँगी। हमने उसे मदद देना स्वीकार कर लिया। परन्तु न तो हमने उसकी मदद की और न उसे यह बताया कि मैं मदद नहीं कर पाऊँगा। वह तो हमारे भरोसे रहा और उसका काम बिगड़ गया। इसका जिम्मेदार कौन?
शिक्षा क्षेत्र के संकटों के उदाहरण
- सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में प्रशिक्षित व अनुभवी शिक्षक हैं। विद्यालय में शैक्षिक सामग्री भी पर्याप्त है, विद्यार्थियों की संख्या भी अच्छी है। परन्तु शिक्षक उन्हें पढ़ाते ही नहीं, इसलिए वे कमजोर ही रहते हैं। क्या शिक्षक यह दायित्व अपने ऊपर लेने को तैयार हैं?
- एक शिक्षक के पास चार विद्यार्थी पढ़ रहे हैं। वे चारों पढ़ने में बहुत तेज हैं। उनके आगे बढ़ने की पूरी संभावनाएँ हैं। उन शिक्षक के पास वे पूरे पाँच वर्ष रहे। किसी दूसरे शिक्षक के पास रहे होते तो उनका विकास अधिक होता। क्योंकि उन्होंने जितना पढ़ाना चाहिए उतना पढ़ाया नहीं और दूसरे शिक्षक के पास भी भेजा नहीं। इस बात को वे विद्यार्थी नहीं जानते, परन्तु वह शिक्षक स्वयं तो जानता ही है। उन तेजस्वी विद्यार्थियों की जो हानि हुई उसका दायित्व किसका?
- विश्वविद्यालयों में जो पाठ्यक्रम होते हैं, उनके बारे में दो प्रकार की शिकायतें होती हैं। एक वे व्यावहारिक जीवन के साथ सुसंगत नहीं होते और दूसरा वे भारतीय जीवन दृष्टि को पुष्ट करने वाले भी नहीं होते। इन पाठ्यक्रमों का निर्माण करने का कार्य विश्वविद्यालयों का ही होता है। फिर वे वैसे पाठ्यक्रम क्यों नहीं बनाते? उनके अतिरिक्त कोई अन्य इसमें कर ही क्या सकता है?
चिकित्सा क्षेत्र के संकटों के उदाहरण
- रोगी स्वस्थ होने के लिए डॉक्टर के पास आते हैं। अनेक रोगियों को दवाई की आवश्यकता नहीं होती, फिर भी उन्हें दवाई दे दी जाती है। डॉक्टर का निदान ही गलत निकलता है। रोगी का पैसा भी खर्च होता है और रोगी रोगमुक्त भी नहीं हो पाता। रोगी के इस संकट का दायित्व किसका? क्या डॉक्टर यह दायित्व लेने को तैयार हैं?
- इसी तरह एक और धन्धा चला है, जाँच करवाने का। डॉक्टर जानता है कि रोगी को इस जाँच की आवश्यकता नहीं है, फिर भी वह जाँच करवाता है। रोगी बताता है कि यह जाँच पहले वाले डॉक्टर ने करवा रखी है। डॉक्टर कहता है, वह नहीं चलेगी, नई करवानी होगी और हाँ मैं जहाँ बता रहा हूँ वहीं से करवानी है। बेचारा गरीब “मरता क्या नहीं करता” दुबारा जाँच करवाता है। इस तरह अनेक बार जाँच करवाते-करवाते वह कर्ज के बोझ तले दबता जाता है। क्या गरीब की इस स्थिति के उत्तरदायी डॉक्टर नहीं?
- एक शिशु अनेक संभावनाएँ लेकर जन्म लेता है। परन्तु उस घर में कोई अनुभवी दादा-दादी अथवा नाना-नानी नहीं हैं। नव विवाहित दम्पत्ति ही है, जिसे शिशु के लालन-पालन का कोई अनुभव नहीं है। शिशु के आहार-विहार विषयक कोई जानकारी भी नहीं है। इस परिस्थिति में शिशु की सारी संभावनाएँ कुण्ठित हो जाती हैं। बताओ ऐसे माता-पिता का क्या करे?
उपर्युक्त सभी संकटों के उदाहरण दायित्व बोध न होने के कारण से बनते हैं। इनमें से कुछ उदाहरण तो मानवीय दायित्व बोध से सम्बन्धित हैं, जिन्हें हम नैतिक दायित्व भी कह सकते हैं। कुछ व्यावसायिक दायित्व हैं और इन्हें भूलने वाला तो और भी अधिक गंभीर अपराधी है। क्योंकि ये स्वार्थवश किए गए प्रमाद का परिणाम हैं। कुछ संकट ऐसे हैं, जहाँ व्यवस्था में दायित्व से मुँह मोड़ने वालों की पहचान कर उन्हें दण्डित करने की आवश्यकता है, परन्तु दण्डित करने की क्षमता रखने वाले लोग ही नहीं हैं। इसलिए ऐसे संकट धीरे-धीरे स्थायी हो जाते हैं और कुछ समय बाद समाज भी उन्हें स्वीकार कर लेता है। ऐसे सभी संकट देश व समाज को कमजोर बनाते हैं।
दायित्वबोध के अभाव के कारण
- दायित्व बोध न होने का प्रमुख कारण पश्चिमी शिक्षा ही है। इस शिक्षा में दायित्व के सम्बन्ध में कुछ भी सिखाया नहीं जाता। जब व्यक्ति स्वैच्छा से अपना कर्तव्य स्वीकारता है, तब उसमें दायित्व का बोध होता है। पश्चिमी जीवन दृष्टि केवल अधिकार प्राप्त करना ही सिखाती है। उन अधिकारों को प्राप्त करने के लिए जिन न्यूनतम कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य होता है, उतना करके वह अपनी इतिकर्तव्यता मान लेता है। ऐसी शिक्षा का स्वाभाविक परिणाम दायित्व हीनता ही होता है।
- पश्चिमी शिक्षा के परिणाम स्वरूप वे लोग सृष्टि के सभी पदार्थों को अपने लिए सुख के संसाधन मानते हैं। इसी क्रम में वहाँ तो मनुष्यों को भी संसाधन मानने लगे हैं। दुर्बल मनुष्य बलवान के लिए, अनपढ़ शिक्षित के लिए, गरीब धनवान के लिए तथा बिना सत्तावान सत्तावान के लिए सुख के संसाधन बन जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने मनोराज्य में मनुष्य सहित सम्पूर्ण सृष्टि को संसाधन ही मानता है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 से पूर्व तक हमारी तत्कालीन सरकार का शिक्षा मंत्रालय अपने आपको ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ ही कहता था। जब शिक्षा का घोषित उद्देश्य ही मनुष्य का संसाधन के रूप में विकास करना है, तब एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के लिए संसाधन बनना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। इस स्थिति में कोई भी प्रजा, कोई भी समाज या कोई भी देश स्थिरता, सुरक्षा और निश्चिंतता कैसे प्राप्त कर सकता है?
- किसी भी प्रकार का दायित्व बोध न होने के कारण सारे भौतिक संसाधनों का अपव्यय होता है। लोगों की क्षमताओं का विकास अवरुद्ध हो जाता है, नियम व कानून का पालन नहीं होता, अन्याय, शोषण, अत्याचार और अपराध आदि पर कोई नियंत्रण नहीं रहता। इन सबके कारण समाज को भारी हानि उठानी पड़ती है और देश की बदनामी होती है।
- पश्चिमी शिक्षा ने युवक-युवतियों को अच्छे माता-पिता बनना सिखाया नहीं, शिक्षकों को ज्ञाननिष्ठ और विद्यार्थीनिष्ठ बनाया नहीं, डॉक्टरों को रोगियों के प्रति जिम्मेदार बनाया नहीं, निष्पक्ष दिखाने हेतु हमने न्याय की देवी को अन्धी बना दिया। उद्देश्य तो यह था कि वह दोनों पक्षों में अपना व पराया न देखें, परन्तु वास्विकता में विवेक रूपी चक्षु न होने से वह अन्धी हो गई हैं। यह भारत की न्याय संकल्पना नहीं है। सत्यशोधन, निरपराध की मुक्ति और अपराधी को दण्ड कानून की निर्जीव धाराओं से नहीं होता।
वे तो साधन मात्र हैं, इन साधनों का अपने हित में उपयोग करने वाले वकील पक्षपाती हैं, स्वार्थी हैं। वे सत्य का पक्ष नहीं लेते, अपितु अपने पक्ष को सही सिद्ध करने के लिए कानून की धाराओं का यूक्तिपूर्वक उपयोग करते हैं। न्यायदान के लिए विवेक होना चाहिए, कुशाग्र बुद्धि होनी चाहिए, केवल कानून और वकीलों के अधीन नहीं रहना चाहिए, उनसे भी अधिक सक्षम होना चाहिए। जड़वादी पश्चिम और उससे प्रभावित हम इसे कैसे समझ सकते हैं? इसलिए आज न्यायालयों की ख्याति नहीं रही और ख्याति न रहने का कारण न्याय व्यवस्था का पश्चिमीकरण होना है। अतः हम अपने ही न्याय तंत्र को कोसते हैं और कहते हैं कि अन्य देशों में न्याय शीघ्र मिल जाता है, जबकि हमारे देश में न्याय मिलता ही नहीं है। हमारे न्यायालयों में पर्याप्त भ्रष्टाचार फैला हुआ है। नैतिकता विहीन पश्चिमी शिक्षा के कारण ही हमारे न्यायालयों की यह स्थिति बनी है।
धर्म दायित्व बोध सिखाता है
भारतीय शिक्षा हमें धर्म का पाठ पढ़ाती है। केवल धर्म ही हमें दायित्व बोध करवा सकता है। केवल धर्म ही व्यक्ति के मन में जो अच्छाई है, उसे प्रकट होने हेतु आवाहन कर सकता है और उसे सक्रिय होने की प्रेरणा दे सकता है। किन्तु हमने तो पश्चिमी शिक्षा से प्रभावित होकर धर्म को अफीम की गोली मान लिया है, उसे केवल पूजा-पद्धति तक सीमित कर दिया है और उसे विवाद का विषय बना दिया है। हमारे ही देश के तथाकथित विद्वान् तो धर्म को ही सारे विवादों की जड़ मानते हैं। वे आज भी धर्म की सच्चाई से अनभिज्ञ हैं, उन्हें यह नहीं पता कि धर्म तो वैश्विक नियम हैं। धर्म से ही यह सृष्टि चलती है। धर्म ने ही इस सृष्टि को धारण कर रखा है, यदि धर्म का पालन न किया जाय तो सृष्टि में चहूँ ओर अव्यवस्था ही अव्यवस्था फैल जाएगी। पश्चिमी शिक्षा ने हमें धर्म से विमुख कर अच्छाई को यांत्रिक मानकों पर तोलना सिखा दिया है और कर्तव्य को अपने सुख के गणित पर नापना सिखा दिया है। परिणामस्वरूप समाज पूर्णरूप से शिथिल हो गया है और उसमें दायित्व हीनता आ गई है। हम इस दायित्व हीनता को धर्म की शिक्षा देकर मिटा सकते हैं और सभी भारतीयों में पुनः दायित्व बोध भर सकते हैं।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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