नारी स्वातंत्र्य का भारतीय प्रतिमानः सावित्री बाई फुले

 – अवनीश भटनागर

समाज में सदियों से चली आ रही रूढ़ियों को समाप्त करने तथा सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए दो बातें अत्यन्त आवश्यक होती हैं- पहली, उस कुरीति के सामाजिक प्रभाव को समझने और अनुभव करने की क्षमता और दूसरी, निडरता के साथ उसका प्रतिकार करने का आन्तरिक साहस। सावित्री बाई फुले इन दोनों गुणों का पर्याप्त समुच्चय थीं।

नारी स्वातंत्र्य – सशक्तीकरण – समान अधिकार का विषय विगत सात-आठ दशकों से दुनियाँ भर में समाजशास्त्रियों, शिक्षाविदों, राजनीतिज्ञों और विशेषत: नारी संगठनों के लिए पर्याप्त चर्चा में रहा है। परन्तु जिस स्वरूप में नारी मुक्ति को प्रचारित किया जाता है, वह भारत के मूल विचार से मेल नहीं खाता। भारत में नारी के दैवी गुणों को “यंत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” का आधार माना गया। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण इन सप्तगुणों का उल्लेख करते हैं – कीर्तिः श्रीवाक् च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा। (गीता)

भारतीय विचार में नारी पुरुष की प्रतिस्पर्धी नहीं, पूरक है। भारत में प्राचीन वैदिक काल में गार्गी, मैत्रेयी, अनसूया, अपाला, अरुंधती, मदालसा आदि विदुषी – ऋषिकाओं का वर्णन आता है। ज्ञान, विवेक, शौर्य, त्याग आदि सद्‌गुणों से सुसम्पन्न अनेक नारी रत्नों से भारत का इतिहास और वर्तमान विभूषित है।

भारत की सामाजिक संरचना में वर्ण व्यवस्था तथा जाति प्रथा के अनेक दोष गिनाए जाते हैं। भारत में जाति व्यवस्था श्रम विभाजन तथा व्यावसायिक दक्षता विकास के आधार पर प्रारंभ हुई, जो कि कालान्तर में समाज में भेदभाव एवं धुआछूत की रूढ़ि के रूप में बदल गई। वर्ण-जाति व्यवस्था के गुण-दोष की यहाँ चर्चा न करते हुए यदि ध्यान दें तो  पाते हैं कि भारतीय समाज में ‘स्त्री’ तथा ‘निर्धन’ – इन दोनों की सामाजिक स्थिति चारों वर्णों – सभी जातियों में न्यूनाधिक एक समान ही रही है। मात्र अस्पृश्यता नहीं, बल्कि स्त्री-अशिक्षा, बाल-विवाह, पर्दाप्रथा, सती प्रथा आदि सभी सामाजिक कुरीतियों की जड़ में स्त्री की सामाजिक स्थिति ही कारण रही है। फुले दंपति ने इस तथ्य को पहचान कर उससे मुक्ति पाने के प्रयोग प्रारंभ किए।

महाराष्ट्र के सातारा जिले के नायगाँव में 3 जनवरी, 1831 को खण्डोजी नेवसे – लक्ष्मीबाई के परिवार में जन्मी सवित्रीबाई, 1840 में मात्र नौ वर्ष की अल्पायु में 13 वर्ष के ज्योतिबा के साथ विवाह बंधन में बंध कर सावित्रीबाई फुले कहलाईं। ज्योतिबा के साथ विवाह शायद दैवीय प्रेरणा से घटित एक बड़ी घटना थी। वह कैसे? इसका संयोग रोचक है। सावित्री के मन में पढ़ने की ललक बचपन से थी। एक दिन पिता ने बालिका सावित्री को पुस्तक पढ़ने का प्रयास करते देखकर पुस्तक हाथ से छीनकर फेंक दी। बालमन पर विद्रोह के बीज शायद उसी दिन जम गए होंगे।

ज्योतिबा की माँ की मृत्यु तभी हो गई थी जब वे मात्र नौ माह के थे। मौसी की बेटी सगुना ने उनका पालन किया था। सावित्री बाई से विवाह के बाद जब वे दोपहर का भोजन लेकर खेत पर जाती थीं, तब ज्योतिबा खेत के एक कोने में आम के वृक्ष के नीचे धरती पर नुकीली डंडी से बहन सगुना और पत्नी सावित्री को अक्षर लिखने का अभ्यास कराते थी। ये मिट्टी में उकेरे जा रहे अक्षर मात्र नहीं थे, बल्कि देश में सामाजिक परिवर्तन का इतिहास रचा जा रहा था। ज्योतिबा के पिता को जब ग्रामीणजन से उनकी इस ‘समाजविरोधी गतिविधि’ की जानकारी मिली तो उन्होंने ज्योतिबा सावित्रीबाई को घर से निकाल दिया।

यहाँ पति-पत्नी की पारस्परिक पूरकता के साथ-साथ दूसरा सिद्धान्त भी स्पष्ट होता है – उद्देश्य प्रमुख होता है, साधन नहीं। फुले दंपती ने अपना उद्देश्य निर्धारित कर लिया था। केवल नौ छात्राओं के साथ पुणे के भिड़ेवाडी में 13 मई, 1848 को फुले दंपति ने पहला बालिका विद्यालय प्रारंभ किया और स्वयं सावित्रीबाई प्रथम महिला शिक्षिका बनी।

कल्पना करें उस समय की सामाजिक परिस्थिति की जहाँ लड़कियों-स्त्रियों की शिक्षा को अनुचित माना जाता हो, इसे अपराध मान कर पिता ने घर से निकाल दिया हो, उन परिस्थितियों में लड़कियों के लिए विद्यालय खोलना कितना संघर्षपूर्ण रहा होगा? सावित्रीबाई को समाज के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। घर से विद्यालय जाने के मार्ग में लोग उन्हें अपशब्द कहते, वे सिर नीचा किए, अनसुना करती हुई अपने विद्यालय पहुँचतीं। किसी-किसी दिन लोग जूठन या गंदगी उनके ऊपर फेंक देते। सावित्रीबाई एक अतिरिक्त धोती साथ लेकर जातीं, विद्यालय पहुंच कर गन्दी हो गई धोती को धोकर सुखा देतीं और साथ में ले गई साफ धोती पहन कर शिक्षण कार्य में जुट जातीं।

प्रत्येक अच्छे कार्य को प्रारम्भ में उपहास-विरोध-आलोचना का सामना करना पड़ता है और बाद में उसको समर्थन मिलने लगता हैं। फुले दंपती को भी धीरे धीरे समाज का सहयोग मिलने लगा और परिणामस्वरूप 1852 आते-आते पुणे महानगर की विभिन्न बस्तियों में 18 बालिका विद्यालय प्रारम्भ हो गए। ये सभी नि:शुल्क थे क्योंकि बालिकाओं की शिक्षा पर व्यय करने की न अधिकांश अभिभावकों की सामर्थ्य थी न ही मानसिकता। अत: संघर्ष-समर्थन के बीच समाज के सहयोग से इन विद्यालयों का संचालन होने लगा। पाठ्यक्रम का निर्णय भी स्वयं संचालकों को ही करना था। व्याकरण, गणित, भूगोल में भारत–एशिया–यूरोप के मानचित्र, मराठा शक्ति का इतिहास के साथ-साथ नीतिबोध और बालबोध के रूप में जीवनमूल्य भी सिखाने की योजना की गई। ध्यान देने की बात यह है कि इनमें से कोई भी विषयवस्तु आज के अधिकांश सामाजिक चेतना के आंदोलनों की भाँति पूर्व की परिस्थितियों के प्रतिकार या प्रतिक्रिया स्वरूप नहीं था।

फुले दंपती को अपने इस संघर्ष के लिए वैचारिक प्रेरणा का स्रोत बनी थॉमस क्लार्कसन की जीवनी, जिसने अमेरिका में लाए गए अफ्रीकी गुलामों के जीवन संघर्ष को जान कर गुलामी प्रथा के विरुद्ध आन्दोलन खड़ा किया। उन्हीं की प्रेरणा से उनकी छात्राओं ने भी अपने सुपुष्ट विचारों से नये प्रतिमान गढ़े। भिड़ेवाडी विद्यालय की दो छात्राओं – 14 वर्षीया मुक्ताबाई का निबन्ध – ‘माँग महारों के दुःख के विषय में’ कालान्तर में दलित उत्थान आन्दोलन का और ताराबाई शिन्दे का लेख – ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ भारत में नारी विमर्श का अभिलेख कहे जा सकते हैं। इसी विद्यालय की छात्रा फातिमा शेख आगे चल कर मुस्लिम समाज से पहली शिक्षिका बनी।

फुले दंपती का कार्य केवल स्त्री शिक्षा या अस्पृश्यता निवारण तक सीमित नहीं रहा। समाज में प्रचलित प्रत्येक कुरीति का उन्मूलन करने के लिए प्रतिबद्ध फुले दंपती ने जैसा स्त्री शिक्षा का प्रयोग अपने घर से प्रारंभ किया, वैसी ही पहल अन्य कार्यों में भी की। उन दिनों शिशुओं को विशेषकर बालिकाओं को जन्म के तुरन्त बाद मार-देना, समाज में व्याप्त बड़ी कुरीति थी। ज्योतिबा सावित्रीबाई ने 1853 में ‘बाल हत्या प्रतिबंधक गृह’ प्रारंभ किया। विधवा ब्राहमणी काशीबाई को पुत्र सहित आत्महत्या करने से रोका, उन्हें अपने घर में स्थान दिया और उसके पुत्र यशवंत राव को पढ़ा-लिखा कर डॉक्टर बनाया, उसका अन्तर्जातीय विवाह कराया और पुणे के हडपसर में उसके माध्यम से चिकित्सालय प्रारंभ किया। सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से उनके कुछ और प्रयोग उल्लेखनीय हैं। उन दिनों विधवा होने पर महिलाओं के बालों का मुंडन कर दिया जाता था और उन्हें आजीवन उसी प्रकार रहना होता था। समाज की जागृत करने के साथ फुले दंपती ने स्थान-स्थान पर बाल काटने का व्यवसाय करने वाले नाई समाज को इस कुरीति का विरोध करने और महिलाओं का मुंडन न करने के लिए तैयार किया।

28 नवम्बर, 1890 को महात्मा फुले का देहावसान हो गया। सवित्रीबाई ने यहाँ भी अपने कर्तव्य को पहचाना और प्रचलित रूढ़ि को तोड़कर स्वयं पति का अंतिम संस्कार किया।

पति के स्वर्गवास के उपरान्त दोनों ने मिलकर शुरू किए गए प्रयासों को सवित्रीबाई ने शिथिल नहीं होने दिया। उस समय की स्थितियों में अंग्रेज सरकार का सहयोग लेने की आवश्यकता सावित्रीबाई को अनुभव  हुई। पुणे विद्यापीठ के प्रो.कैंडी को उन्होंने अपने विद्यालय के अवलोकन के लिए आमंत्रित किया। 1892 में राज्य के शिक्षा विभाग द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया।

महिलाओं के सामने एक और बड़ी समस्या थी, आर्थिक रूप से पराश्रित होने की। परिवार से किसी प्रकार का विवाद होने पर अथवा पति की मृत्यु हो जाने पर वे या तो घर से निकाली जाती या निराश्रित हो जाती थी या घरों में गुलामों जैसा जीवन जीने को विवश होती थीं। इसके समाधान के लिए भारत का पहला महिला संगठन तथा स्व-सहायता समूह बनाने का श्रेय भी सवित्रीबाई फुले को जाता है ताकि वे निराश्रित महिलाएँ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होकर सम्मानपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकें। उनके द्वारा गठित ‘महिला सेवा मण्डल’ कालान्तर में देश भर में इस प्रकार के सहकारी महिला स्व-सहायता समूहों के गठन में प्रेरणा बना।

सावित्रीबाई फुले की प्रतिभा के एक अन्य क्षेत्र का उल्लेख किए बिना उनके जीवन का चित्रण पूर्ण नहीं होता। उन्होंने अपने संदेश समाज को अपनी कविताओं के माध्यम से संप्रेषित किए। 1854 में  उनकी कविताओं की पहली पुस्तक ‘काव्य फुले’ का प्रकाशन हुआ। इस समय सावित्रीबाई की आयु केवल 23 वर्ष थी। पहली पुस्तक के 39 वर्ष बाद महात्मा फुले के निधन के बाद उनकी जीवनी पर आधारित दूसरी पुस्तक 1891 में ‘सुबोध रत्नाकर’ आई, जिसमें भुजंगप्रयात छंद में निबद्ध 6 पंक्तियों के 52 पद हैं जिन्हें 6 भागों में बांटा गया है – उपोद्घात, सिद्धान्त, पेशवाई, आंग्लाई, ज्योतिबा तथा उपसंहार इस पुस्तक के समर्पण का छंद प्रमाणित करता है सावित्रीबाई की लक्ष्य तथा ज्योतिबा के प्रति प्रतिबद्धता और पति-पत्नी की पूरकता को –

सहज काव्यरचना करती हूँ भुजंगप्रयात छंद में, मन के भीतर रचती हूँ पंक्तियाँ,

फिर उतारती हूँ कागज पर गीत,

पति ज्योतिबा को वे सारे गीत अर्पण करती हूँ आदर के साथ,

अब वे नहीं हैं इस जगत में किन्तु सदा रहते हैं मेरे चिंतन में।

सावित्रीबाई की काव्य रचना स्वान्तः सुखाय के साथ-साथ समाज का जागरण करने के संदेशों से भी युक्त है। मूल मराठी में रचित उनकी कुछ कविताओं का सरल हिन्दी अनुवाद पाठकों के लिए प्रस्तुत है –

मानव जीवन को करें समृद्ध,

भय चिन्ता छोड़ कर सभी-आओ

खुद – जियो औरों को भी जीने दो

मानव प्राणी – निसर्ग सृष्टि एक ही सिक्के के दो पहलू,

एक जान कर सारी जीवसृष्टि को प्रकृति की अमूल्य निधि-मानव की,

चलो, कद्र करें।

भाग्य की गति पर विश्वाश करने वालों के किए-

ज्योतिष-पंचांग-हस्तरेखा में पड़े मूर्ख, स्वर्ग-नरक की कल्पना में रूचि,

पशुओं के जीवन में भी ऐसे भ्रम के लिए स्थान नहीं।

औरत बेचारी काम करती रहे, मुफ्तखोर-बेशर्म  बैठा खाता रहें,

पशुओं में भी ऐसा अजूबा होता नहीं,

उन्हें इंसान कैसे कहें?

आज के राजनैतिक उद्देश्य युक्त दलित-विमर्श आन्दोलनों से भिन्न, सावित्रीबाई लिखती हैं –

‘शुद्र’ शब्द का सही अर्थ है –नेटिव’,

आक्रमण शासकों ने ‘शुद्र’ का ठप्पा लगाया

पराजित शुद्र हुए गुलाम ईरानियों के और ईरानी ब्राह्मण बने गुलाम अंग्रेजों के।

असल में  शुद्र ही स्वामी इंडिया के, नाम उनका था ‘इंडियन’

थे शुर-पराक्रमी हमारे पुरखे उन्हीं प्रतापी योद्धाओं के हम सब है वंशज।

उनकी एक प्रसिद्ध कविता है जिसमें वे सबको, पढ़ने-लिखने प्रेरणा देने और जाति तोड़ने की बात कहती हैं –

जाओ, जा कर पढ़ो-लिखो, बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती, काम करो,

ज्ञान और धन इकट्ठा करो। ज्ञान के बिना सब खो जाता है

ज्ञान के बिना हम पशु बन जाते हैं

इसलिए, खाली न बैठो, जाओ, जा कर शिक्षा लो

तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है, इसलिए सीखो, पढो-लिखो

और जाति के बन्धन तोड़ दो।

स्वाभिमान से जीने के लिए

पढ़ाई करो पाठशाला की

इन्सान का सच्चा गहना शिक्षा है,

चलो, पाठशाला जाओ। विद्या ही सच्चा धन है, सभी धन-दौलत से बढ़कर

जिसके पास है ज्ञान का भंडार,

है वही सच्चा ज्ञानी लोगों की नजरों में,

इसलिए, चलो, पाठशाला जाओ।

जीवन के अंतिम चरण में सावित्रीबाई के सामने दो और बड़ी चुनौतियाँ आई – 1895-96 संपूर्ण महाराष्ट्र-कोंकण में अकाल पड़ा। सावित्रीबाई ने समाज के सहयोग से प्राप्त समस्त संसाधनों का उपयोग करते हुए प्रतिदिन दो हजार तक बच्चों और वृद्धों को भोजन उपलब्ध कराया। किन्तु एक के पीछे दूसरी आती हैं। 1897 में पुणे और आसपास के क्षेत्र में भयंकर प्लेग फैला। सावित्रीबाई ने पुनः अपनी महिला सेना को पीड़ित मानवता की सेवा के लिए तैयार किया। रोगियों की सेवा-सहायता का कार्य प्रारंभ हुआ किन्तु स्वयं सावित्रीबाई रोग की चपेट में आने से न बच सकीं। प्लेग के प्रकोप से ही 10 मार्च, 1897 को उस श्रेष्ठ महिला की उद्देश्यपूर्ण जीवनयात्रा पूर्ण हुई।

(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय मंत्री एवं संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र के सचिव है।)

 

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