✍ राजेन्द्र सिंह बघेल
अपने शिक्षण संस्थानों में हम कक्षा में प्रत्यक्ष शिक्षण करते हैं, विद्यार्थियों से प्रतिदिन मिलते हैं, वार्ता करते हैं और उनके साथ अनेक क्रियाकलाप करते हैं। साथ ही संस्कारक्षम वातावरण बने इसके लिए भी अनेक प्रयत्न करते हैं। विद्यालय में प्राय: यही तो दिन-प्रतिदिन का हमारा क्रियाकलाप रहता है। न जाने कि किस क्षण हमारे इन कार्यों का परिणाम विद्यार्थी के मन-मस्तिष्क में प्रभाव छोड़ जाए कि वह हमें अपना समझने लगे इसका अनुमान करना कठिन होता है। हां! कभी-कभी ऐसे प्रसंग आते हैं जो यह सोचने को मजबूर करते हैं कि अमुक विद्यार्थी विशेष पर या उनके समूह पर ऐसा सार्थक परिणाम कैसे व कब आया होगा? यह प्रभाव अकस्मात होता होगा या अनेक अवसरों पर हमारे किए गए कार्यों का परिणाम होता होगा। यहां हम दो ऐसे प्रसंगों का वर्णन कर रहे हैं जो किसी के भी जीवन के लिए अत्यंत महत्व का हो सकता है।
पहला प्रसंग
प्रातःकाल विद्यालय आरंभ होने का समय था। पहली चेतावनी की घंटी बज चुकी थी। दूर-दूर से आने वाले छात्र-छात्राएं शीघ्रता से अपनी-अपनी कक्षाओं की ओर तेजी से डग भरते चले आ रहे थे क्योंकि दूसरी चेतावनी की घंटी पर उनके कक्ष में गुरु जी आने वाले हैं। विद्यार्थी रमेश बार-बार मुख्य द्वार की ओर जाकर वहां खड़े अपने गुरु जी लोगों से प्रश्न करता है, क्या अभी जयप्रकाश गुरुजी नहीं आए? उत्तर मिलता है शायद अभी तो नहीं। वह अपनी कक्षा की और लौट आता है। थोड़ी देर में पुनः वह छात्र गेट की ओर जाकर वही प्रश्न वहां खड़े गुरुदेव से पूछता है, क्या जयप्रकाश गुरुजी अभी तक नहीं आए? उत्तर मिलता है हां! हां! शायद अभी तक तो नहीं। अब जब तीसरी बार मन में उत्कंठा लिए पुनः मुख्य द्वार पर खड़े एक गुरु जी से यही प्रश्न दोहराते हुए रमेश अपने जयप्रकाश गुरु जी के बारे में पूछता है तो वहां खड़े गुरुजी ने कहा, “क्या बात है- बार-बार जयप्रकाश जी, जय प्रकाश जी करते पूछने आ जाते हो। इतने सारे गुरुजी आ चुके हैं तुम्हे यह सब नहीं दिखाई देते?”
थोड़ा झिझकता और संकोच करता रमेश कहता है, नहीं-नहीं, गुरुजी ऐसी बात नहीं है। पुनः प्रश्न आया फिर ऐसी क्या बात है जो जयप्रकाश जी को ही बार-बार पूछ रहे हो? रमेश अब थोड़ा खुलकर सामने खड़े गुरुजी से कहता है ,”जयप्रकाश गुरुजी हम सबको बहुत अच्छे लगते हैं, वह कोई बात कक्षा में बड़े अच्छे से समझाते हैं या जब भी हम कोई प्रश्न पूछते हैं तो उसका उत्तर ऐसे सरल ढंग से समझाते हैं कि हमारी कठिनाई दूर हो जाती है। उनसे बात करने या प्रश्न करने में हमें कोई संकोच नहीं होता आदि-आदि। मुख्य द्वार पर खड़े उन गुरुजी को अब सब बात स्पष्ट हो चुकी थी और छात्र रमेश को यह कहकर जाने दिया कि अच्छी बात है वह देखो जयप्रकाश गुरु जी आ गए, जाकर उनसे मिल लेना। रमेश का जयप्रकाश गुरुजी के प्रति श्रद्धा व स्नेह के जागरण की बात अब पूरी तरह उन गुरू के समझ में आ रही थी।
दूसरा प्रसंग
ऐसे ही एक दूसरे प्रसंग की जानकारी और देना यहां उचित समझता हूँ –
छात्र दिव्य दर्शन विद्यालय से लौटकर घर आ चुके थे। आकर अपना स्कूल बैग रखकर हाथ मुंह धोया और जलपान करके अपनी पुस्तक, कपड़े व अन्य उपयोग की वस्तुओं की साज-संभाल ठीक से करना आरंभ किया। पहले अपनी पुस्तक कॉपियां, स्टेशनरी व अन्य सभी चीजें रैक में ठीक से रखी। स्कूल ड्रेस व अन्य कपड़े हैंगर में लगाकर रखा तथा जूते व चप्पल भी शू-रैक में रखा। अपने छोटे भाई हरि दर्शन को भी इन सभी कार्यों को समझा कर सब चीज ठीक से रखवाने में उसकी सहायता की। थोड़ी देर में दिव्य दर्शन के पिताजी भी अपने ऑफिस से आ गए तो उन्हें भी उनके उपयोग में आने वाली चीज ठीक से रखने का आग्रह किया। यह सब कुछ आज पिताजी को बदला -बदला सा नजर आया तो वह पूछ बैठे, “क्या बात है दीपू ,आज तो तुम्हारी सब चीज बिल्कुल व्यवस्थित ढंग से रखी दिखाई दे रही है, कोई बाहर से मेहमान आने वाला है क्या? इतने में दीपू की माता जी भी आ गई और उन्होंने बहुत कुछ पिता जी को बताया जो आज विद्यालय से लौटकर दिव्य दर्शन ने व्यवस्थित कार्य किया था तथा अपने छोटे भाई को समझा कर जो कुछ पूरा कराया था। इस तरह सब कुछ व्यवस्थित साज-संभाल की बात तुरंत तो पिताजी को समझ में ना आई पर थोड़ी देर बाद दीपू ने कुछ और बातें विस्तार से पिताजी को बताई।
पिताजी आज से विद्यालय में अनुशासन के साथ-साथ व्यवस्था पखवाड़ा (15 दिन का अभियान) मनाया जाना आरंभ हुआ है। हम सब बच्चों को सुबह प्रार्थना सभा में व्यवस्थित एवं अनुशासित जीवन के महत्व के बारे में विस्तार से बताया गया तथा उन अनेक महापुरुषों के उदाहरण भी दिए गए जिन्होंने इन गुणों को अपने जीवन में अपनाया और महान बने। अपनी कक्षा में हम सब छात्रों ने गुरु जी के साथ इस विषय पर आपसी चर्चा भी की है और आगे से घर में विद्यालय में ऐसे गुणों को अपने जीवन में लाना तय किया है। अब सब बातें पिताजी को समझ में आ चुकी थी और उन्होंने अपने दोनों बच्चों को शाबाशी दी। लगभग एक मास के बाद छात्र दिव्यदर्शन के घर उनके कक्षा अध्यापक मिलने गए तो विद्यालय में मनाए गए व्यवस्था एवं अनुशासन पखवाड़े के आयोजन का परिणाम उनके बच्चों पर क्या रहा, उनके पिताजी ने विस्तार से बताया। स्वाभाविक है घर हो या विद्यालय शिक्षा व संस्कारों से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों का सार्थक परिणाम बच्चों के जीवन में आता ही है। बस इन आयोजनों की रचना करते समय उन्हें परिणामकारी कैसे बना सकेंगे इसका पूरा ध्यान रखना होगा।
(लेखक शिक्षाविद है और विद्या भारती के अखिल भारतीय प्रशिक्षण संयोजक रहे हैं।)
और पढ़ें : विद्यालय का संस्कारक्षम वातावरण
बहुत सुंदर