– राजेश लिटौरिया ‘प्रकाश’
श्रीमद्भगवत्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘न हि ज्ञानेन सदृश पवित्रमिह विद्यते।’ अर्थात् ज्ञान के समान पवित्र करने वाला संसार में दूसरा कुछ नहीं। फिर ऐसा सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम ज्ञान सत्ता का या धन का अनुगामी कैसे हो सकता है। श्रेष्ठ शिक्षाविद् आचार्य काका कालेलकर जी भी यही कहते हैं, “शिक्षा कहती है कि मैं सत्ता की दासी नहीं, कानून की किंकरी नहीं, अर्थशास्त्र की बांदी नहीं। मैं तो धर्म का पुनरागमन हूँ।’’ निश्चित ही ऐसे ज्ञान का आराधक ऐसी शिक्षा का यथार्थ साधक शिक्षार्थी समुत्कर्ष का अभिलाषी विज्ञान का सखा प्रयोग धर्म वैज्ञानिक होगा या निश्रेयस का भाव लिए युग सृजन की सामर्थ्य एवं चाह लिए शिक्षक। वास्तव में शिक्षक यदि यथार्थ शिक्षक है तो उसकी सामर्थ्य असीम है अपार है। इसीलिए भारतीय ज्ञान परम्परा गुरू को ब्रह्मा विष्णु और महेश से अधिक सम्मान देती है।
ऐसे ही यथार्थ और आदर्श शिक्षकों की अर्वाचीन परम्परा में प्रो० राजेन्द्रसिंह उपाख्य ‘रज्जू भैया’ का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। प्रो० रज्जू भैया का शिक्षक बनना अकस्मात् संयोग न था, वे तो बाल्यावस्था से ही देश निर्माण का स्वप्न संजोए रहते थे। सन् 1938 में रज्जू भैया जब इण्टर मीडिएट के अंतिम वर्ष में थे, वे हमेशा कक्षा में प्रथम स्थान पाने वाले अत्यन्त मेधावी छात्र थे। उनके कुछ साथी प्रसिद्ध रूड़की इंजीनियरिंग में प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। रूड़की इंजीनियरिंग कॉलेज का बड़ा क्रेज था। रज्जू भैया के पिताजी चाहते थे कि रज्जू भैया भी रूड़की इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा में बैठे लेकिन कुँअर बलवीरसिंह जी बहुत उच्च सोच वाले व्यक्ति थे। उन्होंने कभी भी अपनी महत्वाकांक्षाएं अपनी संतानों पर नहीं थोपीं। बल्कि अपने बच्चों की इच्छाओं को महत्त्व दिया, उनकी इच्छाओं का सम्मान किया।
एक बार रज्जू भैया अपने पिताजी के साथ रूड़की भ्रमण पर गये, इस दौरान उन्हें प्रसिद्ध रूड़की इंजीनियरिंग कॉलेज घूमने का अवसर मिला। काँलेज घूमते हुए जब राजेन्द्र ने देखा कि वहाँ एक बहुत बड़े बोर्ड पर विभिन्न वर्षों के सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों के नाम स्वर्णअक्षरों में लिखे हुए थे और उन नामों में अपने पिता का नाम लिखा देखकर वह आनन्द विभोर हो गये। उस वक्त उन्हें अपने पिता और उनके कारण अपने आप पर जिस गौरव की अनुभूति हुई वह वर्णन से परे हैं। रज्जू भैया ने गद्गद् कण्ठ से अपने पिता से कहा पिताजी मुझे बेहद गर्व है कि मैं आपका पुत्र हूँ। कुँअर बलवीरसिंह जी ने प्यार से रज्जू भैया के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, मुझे विश्वास है तुम में भी यह क्षमता है, यदि तुम चाहो तो इस तरह इस सूची में तुम्हारा नाम भी लिख सकता है। रज्जू भैया ने पिताजी का मन्तव्य समझ कर विनम्रता से उत्तर दिया कि वे अंग्रेज सरकार के अधीन किसी भी पद पर नहीं रहना चाहेंगे। इंजीनियर बनने की अपेक्षा वे एक वैज्ञानिक या अध्यापक बनना पसंद करते हैं। उनकी रूचि एक अध्यापक बनने की है क्योंकि यहाँ स्वायत्तता और स्वतंत्रता दोनों पर्याप्त रूप से बने रहेंगे। पिता ने सहजता से उनकी बात का समर्थन किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक श्रेष्ठ शिक्षक की भूमिका में आने का संकल्प वे बहुत पहले ले चुके थे।
इण्टर मीडिएट की परीक्षा रज्जू भैया ने विज्ञान विषयों में विशेष योग्यता के साथ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और अब वे उच्च शिक्षा के लिए प्रयाग विश्वविद्यालय आए।
प्रयाग आना रज्जू भैया के जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी, क्योंकि यहीं से उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। यद्यपि देश भक्ति के संस्कार बीज रूप में उन्हें गर्भ में ही प्राप्त हो गये थे। रज्जू भैया का जन्म 29 जनवरी 1922 को शांहजहाँपुर उ०प्र० में हुआ था। आपके पिता कुँअर बलवीरसिंह जी शांहजहाँपुर में सिंचाई विभाग में इंजीनियर थे। उस समय इंजीनियर काँलोनी में आपके पड़ौस में ही काँकोरी कांड में प्रमुख सहयोगी रहे क्रांतिकारी श्री प्रेमकृष्ण खन्ना के पिता रायबहादुर श्री रामकृष्ण खन्ना जी भी रहते थे। प्रसिद्ध क्रांतिकारी पं० रामप्रसाद बिस्मिल जी प्रेमकृष्ण खन्ना के साथ उनके घर प्रायः आते रहते थे। श्री रामप्रसाद बिस्मिल जी शरीर से बलिष्ठ स्वभाव से सरल बड़े ही तेजस्वी व्यक्ति थे। उनके तेजस्वी व्यक्तित्त्व की छाप कुँअर बलवीरसिंह जी के मन मस्तिष्क पर भी थी और वे उनसे बहुत प्रभावित थे। अतः अपने पड़ौसी श्री प्रेम कृष्ण खन्ना के घर ‘बिस्मिल जी’ एवं अन्य देशभक्त क्रांतिकारियों से उनकी भेंट होती रहती थी और उन बातों की चर्चा कुँअर बलवीरसिंह जी अपनी पत्नि श्रीमती ज्वाला देवी जी से प्रायः करते रहते थे।
इसी तरह गर्भावस्था से ही रज्जू भैया को देश भक्ति के विचार बीज रूप में प्राप्त हुए थे। माता-पिता की तेजस्विता ने उन संस्कारों को पुष्ट किया और अब प्रयाग की भूमि में आकर यहाँ के वातावरण ने शीघ्र ही पल्लवित पुष्पित किया।
प्रयाग में गंगा यमुना और सरस्वती का संगम है। वहाँ गंगा-यमुना तो प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं किन्तु सरस्वती लुप्त हैं। ये गुप्त सरस्वती धारा मानो प्रयाग विश्वविद्यालय में प्रकट हो रही थी। सन् 1939 में जब राजेन्द्रसिंह उर्फ रज्जू भैया ने बी.एससी. प्रथम वर्ष में यहाँ प्रवेश लिया तो वहाँ के कुलपति डाँ. अमरनाथ झा के भगीरथ प्रयत्नों से मानों देश की उत्कृष्ट प्रतिभा यहाँ एकत्र हो गई थी। रज्जू भैया के समूह के 16 विद्यार्थी तो सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने वाले थे। हर एक की अपनी विशिष्टता थी। एक विद्यार्थी सुनील कुमार राय ने बी.एससी. प्रथम वर्ष में प्रवेश लेने से पूर्व ही एम.एससी. का पाठ्यक्रम पूर्ण कर लिया था, ऐसी अद्वितीय प्रतिभा के धनी अनेक थे। ऐसी श्रेष्ठ प्रतिभाओं के बीच अध्ययन करते हुए रज्जू भैया ने बी.एससी. फाईनल की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। प्रयाग विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने वाले पाँच विद्यार्थियों में वह एक थे।
शिक्षक नवसृजन के लिए तत्पर प्रयोग धर्मा ही होता है। पूज्य रज्जू भैया सदैव इस हेतु तत्पर रहे। बी.एससी. परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जब उनके पिताजी ने रज्जू भैया से पूँछा- रज्जू! अब आगे की क्या योजना है? तो रज्जू भैया का निश्चयात्मक उत्तर था- एम.एससी. करूँगा। बलवीर सिंह जी- बहुत अच्छा! किस विषय में? रज्जू भैया- यही विचार कर रहा हूँ। बलवीर सिंह जी- अरे भई विचार क्या करना, गणित में तुम्हारें सर्वाधिक अंक है। हमेशा रहे हैं।
रज्जू भैया- हाँ पिताजी! किन्तु आप जानते हैं कि मुझे प्रायोगिक कार्य करना ज्यादा अच्छा लगता है। गणित में कोई प्रायोगिक परीक्षा होती नहीं। यद्यपि रसायन-शास्त्र प्रयोग में भी मेरे शत-प्रतिशत अंक हैं किन्तु मैं भौतिक विज्ञान से एम.एससी. करने की सोच रहा हूँ।
बलवीर सिंह जी- ठीक है, परन्तु ये तुम्हारे लिए ज्यादा चुनौती पूर्ण होगा। वैसे चुनौतियों में ही व्यक्तित्व का पूर्ण निखार होता है और शिक्षक का पथ तो हमेशा चुनौतियों भरा रहता है।
नैनीताल में ग्रीष्मावकाश बिताकर रज्जू भैया प्रयाग लौटकर आये और अपने निश्चय अनुसार भौतिक शास्त्र विषय से एम.एससी. में प्रवेश लिया।
भौतिक शास्त्र में प्रवेश लेने वाले कुल 20 विद्यार्थियों में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण दस छात्र प्रयाग विश्वविद्यालय से और शेष दस अन्य विश्वविद्यालयों से सर्वोच्च स्थान पाने वाले विद्यार्थी थे। कहना न होगा कि प्रयाग विश्वविद्यालय में रज्जू भैया के सहपाठियों एवं उनके सभी प्राध्यापकों के मन में रज्जू भैया के प्रति प्रेम और उदारता का उच्च भाव था। उनके सहपाठी जो कि अद्वितीय प्रतिभा के धनी थे किन्तु सभी स्वीकारते थे कि रज्जू भैया सर्वश्रेष्ठ हैं और इसीलिए उनकी बातों का प्रभाव उनके साथियों पर होता था। वे अपने सहपाठियों के प्रेरक थे। रज्जू भैया के सहपाठी हरिश्चंद्र के बड़े भाई उ०प्र० के मुख्य सचिव थे। अतः हरिश्चंद्र की भी इच्छा आई.सी.एस. बनने की थी, उन्होंने अपनी यह इच्छा रज्जू भैया को बताई कि आई.सी.एस. के क्या ठाठ रहते हैं, शान की नौकरी का बड़ा प्रभाव रहता है। रज्जू भैया ने शान्त मन से सारी बात सुनी, फिर बड़ी गम्भीरता से कहा- “तुम्हारे लिए आई.सी.एस. बहुत छोटी सी चीज है। शिक्षा के क्षेत्र में कुछ ऐसा करो कि तुम्हारा नाम हो। हम लोगों को चाहिए कि हम विज्ञान के प्रोफेसर बने। वैज्ञानिक बनकर देश के विकास के लिए रिसर्च करे। जरा सोचो आई.सी.एस. की नौकरी कितने साल रहेगी? लेकिन यदि हरिश्चंद्र के नाम से कोई इफेक्ट हो, कोई थ्योरी हो तो वह सुख, वह सम्मान, वह प्रतिष्ठा और सबसे बड़कर वह गौरव कितने आई.सी.एस. न्यौछावर किए जा सकते हैं उस पर? रज्जू भैया की बात का ऐसा प्रभाव हुआ कि हरिश्चंद्र ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. होमी जहाँगीर भाभा के साथ रिसर्च करना प्रारंभ किया और फिर कैम्ब्रिज में नोबल पुरुस्कार विजेता बी.ए.एम. डिराक जिन्होंने थ्योरी ऑफ साइंस निकाली उनके साथ कार्य किया। अमेरिका में नोबेल पुरस्कार विजेता पालीसाब के साथ कार्य किया। उनकी इतनी प्रसिद्धि हुई कि वे ‘नेशनल प्रोफेसर ऑफ मैथमेटिक्स’ बन गये। रज्जू भैया की प्रेरणा से हरिश्चंद्र दुनिया के जाने माने गणितज्ञ बन गये। रज्जू भैया की बात का उनकी प्रेरणा का यह प्रभाव कईयों के जीवन में दिखाई देता है।
प्रलोभनों और प्रसिद्धि से दूर रज्जू भैया ध्येयनिष्ठ मौन तपस्वी की तरह लक्ष्य की ओर अग्रसर अविचल पथिक थे। उनके जीवन में आचरण में भीत-बाहर एकरूपता, अविचल ध्येय निष्ठा थी। अतः उनकी कही बात का प्रभाव होता था। शिक्षक होना उनके जीवन में सर्वोपरि था। नोबल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध वैज्ञानिक सी.बी. रमन ने रज्जू भैया की परीक्षा ली थी और उन्हीं के रमन इफेक्ट पर रज्जू भैया के प्रयोग से अत्याधिक प्रभावित होकर उनको शत-प्रतिशत अंक दिये, इतना ही नहीं, वैज्ञानिक सी.बी.रमन ने आगे के शोध के लिए रज्जू भैया को बैंगलोर आने का नियंत्रण दिया। किसी भी विद्यार्थी के लिए ये बड़ा ही गौरव का विषय एवं स्वर्णिम अवसर था जिसे छोड़ने की कोई सोच भी नही सकता था लेकिन रज्जू भैया तो अपना पथ पूर्व से निश्चित कर चुके थे इसलिए वे बैंगलोर नहीं गये। उन्होंने प्रयाग में ही रहकर अपने गुरू प्रोफेसर कृष्णन के साथ रिसर्च करना और वहीं अध्यापक बनने का निर्णय कर लिया था। एक महान शिक्षक बनकर उन्हें भारत के हजारों कर्णधार गढ़ने का महान कार्य जो करना था। और बाद में वैसा किया भी।
(लेखक साहित्यकार है और विद्या भारती विद्यालय से सेवानिवृत्त प्राचार्य है।)
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