– प्रशांत पोळ
पिछले एक वर्ष से पूरा विश्व ‘कोरोना’ की महामारी से जूझ रहा हैं। इस महामारी पर वैक्सिन बनाना कितना कठीन हैं, यह हम सब देख रहे हैं। पश्चिमी जगत ने तो अभी 200 वर्ष पहले ही महामारी पर वैक्सिन का इलाज खोजा हैं। किन्तु हमारी भारतीय चिकित्सा पद्धति में यह सैकड़ों वर्षों से हैं। अंग्रेजों के यहां आने से पहले, हम ऐसी अनेक महामारियों का सफलता पूर्वक सामना कर चुके हैं।
भारतीय पुराणों में ‘शीतला माता’ का अलग महत्व हैं। स्कंद पुराण में शीतला माता का उल्लेख हैं। माता के अर्चना का का स्तोत्र, ‘शीतलाष्टक’ के रूप में दिया गया हैं। इसमें एक मंत्र हैं –
वन्देऽहं शीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्।
मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्।।
इसमे कहा गया हैं, कि देवी का वाहन गदर्भ हैं और ये दोनों हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाड़ू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं। अर्थात इस वंदना मंत्र से यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता हैं कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हजारों वर्षों से भारतीय जनमानस की धारणा हैं कि यह महामारी को नष्ट करने वाली देवी हैं। प्राचीन काल से, हमारे समाज के पुरोधाओं ने इस देवी के व्रत को, महामारी से निपटने के लिए टीकाकरण के रुप में प्रस्थापित किया था। संसर्गजन्य रोग, महामारी आदि से बचने का एक पूरा पारतंत्र (इको सिस्टम) ‘शीतला माता व्रत’ के रुप में निर्माण की गई थी। गांव-गांव शीतला माता के मंदिर स्थापित किए गए और महामारियों से बचने के लिए इस देवी के व्रत से जोड़कर, जिसमें नीम के पत्ते से स्नान करने से लेकर सब कुछ हैं, एक पूरी व्यवस्था बनाई गई।
दसवीं शताब्दी के आयुर्वेद के ‘साक्तीय ग्रंथम’ में इस टीकाकरण विधि का उल्लेख हैं। खुद अंग्रेजों ने ही इस संपूर्ण पारतंत्र की खूबियों का वर्णन किया हैं। प्रख्यात गांधीवादी चिंतक, धरमपाल जी ने अपने ‘18 वीं शताब्दी में भारत में विज्ञान एवं तंत्रज्ञान’ इस पुस्तक में अंग्रेजों के दो उद्धरण दिये हैं। इन में से पहला हैं, ‘आर। कोल्ट का ओलिवर कोल्ट को, 10 फरवरी 1731 को लिखा पत्र’। इस पत्र में कोल्ट महाशय ने बंगाल में चेचक के टीकाकरण का विवरण दिया हैं।
दूसरा उल्लेख एक विस्तृत भाषण का हैं। यह भाषण डॉ. जॉन झेड। हालवेल ने, लंदन के कॉलेज ऑफ फिजीशियन के पदाधिकारी और सदस्यों के सम्मुख, वर्ष 1767 में दिया हैं। भाषण का विषय हैं, ‘भारत में चेचक की परंपरागत टीकाकरण पध्दति’।
(संयोग से डॉ. जॉन हॉलवेल यह 1756 की कुप्रसिध्द ‘ब्लैक होल घटना’ में जीवित अत्यंत कम भाग्यशाली लोगों में से एक थे। प्लासी के युद्ध के एक वर्ष पहले, अर्थात 1756 में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौल्ला ने कलकत्ता में अंग्रेजों के किला नुमा गढ़ी पर धावा बोल दिया था और 146 अंग्रेज़ बंदियों को, जिनमे स्त्रियाँ और बच्चे भी शामिल थे, एक 18 फीट X 14 फीट के कमरे में बंद कर दिया। 20 जून, 1756 की रात को उन्हे बंद किया और 23 जून की प्रातः जब कोठरी को खोला गया, तब उस में मात्र 23 व्यक्ति ही जीवित बचे थे। इन में से जॉन हॉलवेल भी एक थे। हालांकि जे। एच। लिटल जैसे आधुनिक इतिहासकारों ने इस घटना को झूठ और मनगढ़ंत बताया हैं। उनके अनुसार, अगले वर्ष 1757 में अंग्रेजों ने बंगाल के नवाब के विरोध में आक्रामक युद्ध छेडने के लिए इस झूठी घटना का कारण दिया।)
इसके अलावा भी इस परंपरागत, और इसीलिए प्रभावी, टीकाकरण पद्धति पर अनेक ने पुस्तकें लिखी हैं। इनमें डेविड अर्नोल्ड की ‘कोलोनाइजिंग द बॉडी’ यह पुस्तक प्रमुख हैं। अर्थात यह स्पष्ट हैं कि विश्व में टीकाकरण की कल्पना और पद्धति, हम भारतीयों ने ही हजारों वर्ष पहले खोज निकाली। उस पद्धति को पौराणिक श्रद्धा से जोड़ा गया, जिसके कारण वह सहज स्वीकार्य और प्रभावी बन गई।
किन्तु दुर्भाग्य से टीकाकरण (वैक्सीनेशन) का श्रेय दिया जाता हैं एडवर्ड जेनर को, जिन्होने बहुत बाद, अर्थात वर्ष 1796 में टीके (वैक्सीन) की खोज की!
श्रीमति लीना मेहंदले यह वरिष्ठ आई एस एस अफसर रह चुकी हैं। महाराष्ट्र सरकार में ‘अतिरिक्त प्रमुख सचिव’ इस पद से उन्होने सेवा निवृत्ति ली थी। बाद में वे गोवा में सूचना आयुक्त रही और सेंट्रल ट्रिब्यूनल में सदस्य भी रही हैं। उन्होने एक सुंदर लेख लिखा हैं, जिसमें चेचक जैसी महामारी से लड़ने की हमारी व्यवस्था क्या थी और अंग्रेजों ने उसे कैसे ध्वस्त किया, यह विस्तार से बताया गया हैं।
उन्हीं की लेखनी से –
सन् 1802 में इंग्लैण्ड के श्री एडवर्ड जेनर (Edward Jenner) ने चेचक के लिए वैक्सीनेशन खोजा। यह गाय पर आए चेचक के दानों से बनाया जाता था। लेकिन इससे दो सौ वर्ष पहले भी भारत में बच्चों पर आए चेचक के दानों से वैक्सीन बनाकर दूसरे बच्चों का बचाव करने की विधि थी। इस संदर्भ में ब्रिटन के ही प्रोफे। ओर्नोल्ड ने काफी काम किया हैं।
कुछ वर्षों पहले मुझे पुणे से डॉ देवधर जी का फोन आया, यह बताने के लिए कि वे American Journal for Health Sciences के लिए एक पुस्तक की समीक्षा कर रहे हैं। पुस्तक थी लंदन यूनिवर्सिटीके प्रोफेसर आरनॉल्ड लिखित Colonizing Body। पुस्तक का विषय है, प्लासी की लड़ाई अर्थात् 1756 से लेकर भारत की स्वतन्त्रता, अर्थात 1947 तक, अपने शासन काल में अंग्रेजी शासकों ने भारत में प्रचलित कतिपय महामारियों को रोकने के लिए क्या-क्या किया। इसे लिखने के लिए ओर्नोल्ड ने अंग्रेजी अफसरों के द्वारा दो सौ वर्षों के दौरान लिखे गये कई सौ डिस्ट्रिक्ट गझेटियर और सरकारी फाइलों की पढ़ाई की और जो जो पढ़ा उसे ईमानदारी से इस पुस्तक में लिखा। पुस्तक के तीन अध्यायों में चेचक, प्लेग और कॉलरा जैसी तीन महामारियों के विषय में विस्तार से लिखा गया है। अन्य अध्याय विश्लेषणात्मक हैं।
सत्रहवीं, अठारवीं और उन्नीसवीं सदी में, या शायद उससे कुछ सदियों पहले भी, चेचक की महामारी से बचनेके लिए हमारे समाज में एक खास व्यवस्था थी। उसका विवरण देते हुए ओर्नोल्ड ने काशी और बंगाल की सामाजिक व्यवस्थाओं के विषय में अधिक जानकारी दी है। चेचक को शीतला माता के नाम से जाना जाता था और यह माना जाता था कि शीतला माता का प्रकोप होने से बीमारी होती है। लेकिन इससे जूझने के लिए जो समाज व्यवस्था बनाई गई थी उसमें धार्मिक भावनाओं का अच्छा खासा उपयोग किया गया था। शीतला माता को प्रेम और सम्मान से आमंत्रित किया जाता था, उसकी पूजा का विधि विधान भी किया गया था। चैत्र के महीने में शीतला उत्सव भी मनाया जाता था। यही महीना है जब नई कोंपलें और फूल खिलते हैं, और यही महीना है जब शीतला बीमारी अर्थात् चेचक का प्रकोप शुरू होने लगता है। शीतला माता को बंगाल में बसन्ती-चण्डी के नाम से भी जाना जाता है।
इन्हीं दिनों काशी के गुरूकुलों से गुरू का आशीर्वाद लेकर शिष्य निकलते थे और अपने-अपने सौंपे गये गाँवों में इस पूजा विधान के लिये जाते थे। चार-पांच शिष्यों की टोली बनाकर उन्हें तीस-चालीस गांव सौंपे जाते थे। गुरू के आशीर्वाद के साथ-साथ वे अन्य कुछ वस्तुएं भी ले जाते थे – चाँदी या लोहे के धारदार ब्लेड और सुईयाँ, और रुई के फाहों में लिपटी हुई ‘कोई वस्तु’।
इन शिष्यों का गांव में अच्छा सम्मान होता था और उनकी बातें ध्यान से सुनी व मानी जाती थीं। वे तीन से पन्द्रह वर्ष की आयु के उन सभी बच्चों और बच्चियों को इकट्ठा करते थे, जिन्हें तब तक शीतला माता का आशीर्वाद न मिला हो (यानि चेचक की बीमारी न हुई हो)। उनके हाथ में अपने ब्लेड से धीमे धीमे कुरेद कर रक्त की मात्र एकाध बूंद निकलने जितना एक छोटा-सा जख्म करते थे। फिर रूई का फाहा खोलकर उसमें लिपटी वस्तु को जख्म पर रगड़ते थे। थोड़ी ही देर में दर्द खतम होने पर बच्चा खेलने कूदने को तैयार हो जाता। फिर उन बच्चों पर निगरानी रखी जाती। उनके माँ-बाप के साथ अलग मीटिंग करके उन्हें समझाया जाता कि बच्चे के शरीर में शीतला माता आने वाली है, उनकी आवभगत के लिये बच्चे को क्या क्या खिलाया जाए। यह वास्तव में पथ्य विचार के आधार पर तय किया जाता होगा।
एक दो दिनों में बच्चों को चेचक के दाने निकलते थे और थोड़ा बुखार भी चढ़ता था। इस समय बच्चे को प्यार से रखा जाता और इच्छाएं पूरी की जाती। ब्राह्मण शिष्यों की जिम्मेदारी होती थी कि वह पूजा पाठ करता रहे ताकि जो देवी आशीर्वाद के रूप में पधारी हैं, वह प्रकोप में न बदल पाये। दाने बड़े होकर पकते थे और फिर सूख जाते थे – यह सारा चक्र आठ-दस दिनों में सम्पन्न होता था। फिर हर बच्चे को नीम के पत्तों से नहलाकर उसकी पूजा की जाती और उसे मिष्ठान दिये जाते। इस प्रकार दसेक दिनों के निवास के बाद शीतला माता उस बच्चे के शरीर से विदा होती थीं और बच्चे को ‘आशीर्वाद’ मिल जाता कि जीवन पर्यंत उस पर शीतला का प्रकोप कभी नहीं होगा।
उन्हीं आठ-दस दिनों में ब्राह्मण शिष्य चेचक के दानों की परीक्षा करके उनमें से कुछ मोटे-मोटे, पके दाने चुनता था। उन्हें सुई चुभाकर फोड़ता था और निकलने वाले मवाद को साफ रुई के छोटे-छोटे फाहों में भरकर रख लेता था। बाद में काशी जाने पर ऐसे सारे फाहे गुरू के पास जमा करवाये जाते। वे अगले वर्ष काम में लाये जाते थे।
यह सारा वर्णन पढ़कर मैं दंग रह गई। थोड़े शब्दों में कहा जाय तो यह सारा ‘पल्स इम्युनाइजेशन प्रोग्राम’ था जो बगैर अस्पतालों के एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में चलाया जा रहा था। ब्राह्मणों के द्वारा किये जाने वाले विधि विधान या पथ्य एक तरह से कण्ट्रोल के ही साधन थे। हालांकि पुस्तक में सारा ब्यौरा बंगाल व काशी का है, लेकिन मैं जानती हूँ कि महाराष्ट्र में और देश के अन्य कई भागों में ‘शीतला सप्तमी’ का व्रत मनाया जाता है और हर गांव के छोर पर कहीं एक शीतला माता का मंदिर भी होता है।
इससे अधिक चौंकाने वाली दो बातें इस अध्याय में लेखक अर्नोल्ड ने आगे लिखी हैं।
अंग्रेज जब यहाँ आये तो अंग्रेज अफसरों और सोल्जरों को देसी बीमारियों से बचाये रखने के लिए अलग से कैण्टोनमेंट बने जो शहर से थोड़ी दूर हटकर थे। लेकिन यदि महामारी फैली तो अलग कैण्टोंमेंट में रहने वाले सोल्जरों को भी खतरा होगा। अतः महामारी के साथ सख्ती से निपटने की नीति थी। महामारी के मरीजों को बस्तियों से अलग अस्पतालों में रखना पड़ता था। उन्हें वह दवाईयाँ देनी पड़ती थीं जो अंग्रेजी फार्मोकोपिया में लिखी हैं, क्योंकि देसी लोगों की दवाईयों का ज्ञान तो अंग्रेजों को था नहीं, और उन पर विश्वास भी नहीं था। अंग्रेजों के लिये यह भी जरूरी था कि कैन्टोंमेंट के चारों ओर भी एक बफर जोन हो – अर्थात् वहाँ रहने वाले भारतीय (प्रायः नौकर चाकर, धोबी, कर्मचारी इत्यादि) विदेशी टीके द्वारा संरक्षित हों।
वैसे देखा जाय तो ब्रिटानिका इनसाइक्लोपीडिया में जिक्र है कि अठारहवीं सदी के आरंभ में चेचक से बचने के लिए टीका लगवाने की एक प्रथा भारत से आरंभ कर अफगानिस्तान व तुर्किस्तान के रास्ते यूरोप में – खासकर इंग्लैंड में पहुँची थी। जिसे Variolation का नाम दिया गया था। अक्सर डॉक्टर लोग इसे ढकोसला मानते थे फिर भी ऐसे कई गणमान्य लोग इसके प्रचार में जुटे थे जिन्हें इंग्लैंड के समाज में अच्छा सम्मान प्राप्त था। सन् 1767 में हॉलवेलने एक विस्तृत विवरण लिखकर इंग्लैण्ड की जनता को Variolation के संबंध में आश्वस्त कराने का प्रयास किया। स्मरण रहे कि तब तक ‘जेनर विधी’ जैसी कोई बात नही थी।
सन् 1796 में डॉ. एडवर्ड जेनर (1749 – 1823) ने गाय के चेचक के दानों से चेचक का वॅक्सिन बनाने की खोज की। चूंकि यह एक अंग्रेज डॉक्टर का खोजा हुआ तरीका था, अतः इस पर तत्काल विश्वास किया गया और भारत में उसे तत्काल लागू किये जाने की सिफारिश की गई ताकि अंग्रेज सिपाहियों की स्वास्थ्य रक्षा हो सके। इन वॅक्सिन को बर्फ के बक्सों में रखकर भारत लाया जाता था। फिर उससे भारतीयों को चेचक के टीके लगवाये जाते थे। टीका लगाने का तरीका ठीक वही था जो हमारे लोग इस्तेमाल करते थे। लेकिन इस पद्धति का नाम पडा वॅक्सिनेशन। इसके लिये बड़ी सख्ती करनी पड़ती थी क्योंकि यदि किसी भारतीय ने अंग्रेजी टीका नहीं लगवाया तो अंग्रेज डॉक्टरों का डर था कि आगे उसे चेचक निकलेंगे और वह महामारी फैलाने का एक माध्यम बनेगा। आरंभ काल में अंग्रेजी टीका लगाने के तरीके काफी दुखद होते थे। उनकी जख्में बड़ी होती थीं और बच्चे या बूढ़े उन्हें लगवाने से डरते और रोते पीटते थे। ‘जेनर विधि’ के अर्न्तगत वैक्सिनेशन का टीका लगवाने पर उस जगह घाव हो जाता था और बुखार भी निकलता था, लेकिन चेचक के दाने नहीं उभरते थे, जैसा कि देसी वेरीओलेशन की प्रणाली में निकलते थे। कई बार टीके का बुखार तीव्र होकर मृत्यु भी हो जाती जिस कारण भारतीयों का विरोध अधिक था।
अंग्रेजों को यह लग रहा था कि जब तक काशी के ब्राह्मणोंके शिष्य अपना वेरिओलेशन (टीकाकरण) का कार्यक्रम कर रहे हैं, तब तक उनके लिये चुनौती कायम रहेगी। उसे रोकने के लिए देशी तरीके को अशास्त्रीय करार दिया गया और ‘शीतला माता’ का टीका लगाने वाले ब्राह्मणों को जेल भिजवाया जाने लगा। तब ब्राह्मणों ने अपनी विद्या गांव-गांव के सुनार और नाइयों को सिखाई। इस प्रकार उनके माध्यम से भी यह देसी पद्धति से टीके लगाने का काम कुछ वर्षों तक चलता रहा। जिन सुनार या नाइयों को यह विद्या सिखाई गई उनका नाम पडा ‘टीकाकार’ और आज भी बंगाल व उड़ीसा में ‘टीकाकार’ नाम से कई परिवार पाये जाते हैं, जो मूलतः सुनार या नाई, दोनों जातियों से हो सकते हैं। शायद उनके वंशज नहीं जानते थे कि यह नाम उनके हिस्से में कहाँ से आया।
हमारे पुराने सारे कर्मकाण्डों में यह पाया जाता है कि एक छोटी सी शास्त्रीय घटना को केन्द्र में रखकर ऊपर से उत्सवों का और कर्मकाण्डों का भारी भरकम चोला पहनाया जाता था। वह चोला दिखाई पड़ता था, उसमें चमक-दमक होती थी। लोग उसे देखते, उन कर्मकाण्डों को करते और सदियों तक याद रखते। आज भी रखते हैं। लेकिन प्रायः उनकी आत्मा अर्थात् वह छोटा-सा शास्त्रीय काम जिसके लिए यह सारा ताम झाम किया गया, काल के बहाव में लुप्त हो जाता, क्योंकि उसके जानकार लोग कम रह जाते थे। आज भी महाराष्ट्र, कर्नाटक और आन्ध्र में रिवाज है कि चैत्र मास में छोटे-छोटे बच्चे, सिर पर तांबे का कलश लेकर नदी में नहाने जाते हैं। कलश को नीम के पत्तों से सजाया जाता है। गीले बदन नदी से देवीके मंदिर तक आकर कलश का पानी कुछ शीतला देवी पर चढ़ाते हैं और कुछ अपने सिर पर उंडेलते हैं। इसी प्रकार शीतला सप्तमी का व्रत भी प्रसिद्ध है जो श्रावण मास में किया जाता है।
संदर्भ –
- 1. Colonizing the Body: State Medicine and Epidemic Disease in Nineteenth Century India – David Arnold (August 1993)
- 2. Medical History of British India
- 3. Public Health in British India: A Brief Account of the History of Medical Services and Disease Prevention in Colonial India – Muhammad Umair Mushtaq (January 2009)
- 4. War Against Smallpox – Michael Bennet
- 5. The Anarchy – William Darymple
- 6. An Era of Darkness – Shashi Tharoor
- 7. 18वीं शताब्दी में भारत में विज्ञान एवं तंत्रज्ञान – धरमपाल
- 8. Medical Encounters in British India – Deepak Kumar and Raj Sekhar Basu
- 9. The British in India – David Gilmour
- 10. The Social History of Health and Medicine in Colonial India – Biswamoy Pati and Mark Harrison
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