राष्ट्र की सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी का मानकीकरण अपेक्षित

भारत जैसे विशाल देश में, जहाँ संविधान में 18 भाषाओं को आठवीं अनुसूची में रखा गया है और 800 से अधिक भाषाएँ बोली-समझी जाती हों, देश के विभिन्न क्षेत्रों-प्रान्तों के मध्य संवाद बनाए रखने के लिए एक सम्पर्क भाषा (Link language) की  अपरिहार्य आवश्यकता है । सामान्य तौर पर ऐसी भाषा के लिए ‘राष्ट्र भाषा’ शब्द प्रचलन में है और अपने व्याप-विस्तार के कारण हिन्दी को इस देश की ‘राष्ट्रभाषा’ की महत्ता सहज प्राप्त है । जिसे ‘हिन्दी-भाषी क्षेत्रा’ कहा जाता है, वह भले ही उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखण्ड, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा राज्यों तक ही सीमित क्यों न माना जाता हो, परन्तु हिन्दी सामान्यतः सम्पूर्ण भारत में, कम से कम नगरीय क्षेत्रों में और कामचलाऊ तौर पर ही सही, बोली-समझी तथा लिखी-पढ़ी जाती है ।

इन राज्यों में भी अनेक बोलियाँ-लोकभाषाएँ बृज, अवधी, भोजपुरी-मैथिली, गढ़वाली-कुमाऊँनी, बुन्देलखण्डी; बघेलखण्डी, मारवाड़ी-हाड़ौती, हरियाणवी आदि न केवल प्रचलन में हैं वरन् वे साहित्य रचना की दृष्टि से भी समृद्ध हैं । यदि उच्चारण की विभिन्नता को छोड़ दिया जाये तो ये सभी हिन्दी के ही विशाल परिवार की शाखाएँ हैं, किसी का कोई पृथक व्याकरण आदि नहीं है । सभी की जननी के रूप में हिन्दी ही है और यदि इसी रूपक में कहा जाये तो संस्कृत को भारत में ही नहीं विश्व में प्रचलित असंख्य भाषाओं की ‘नानी’ होने का गौरव प्राप्त है ।

वैदिक संस्कृत से प्रारम्भ हुई यह विकास यात्रा लोकसंस्कृत-पाली-प्राकृत-अपभ्रंश के मार्ग से गुजरते हुए वर्तमान स्वरूप तक आ पहुँची है, जिसमें अनेक भाषाओं के नये शब्द जुड़े, अनेक पुराने शब्द अप्रचलित होकर अपना अर्थ खो बैठे, अपनी ‘बंजारा-वृत्ति’ के कारण स्थानीय प्रयोग, अर्थ-विस्तार, अर्थ-संकुचन, मूल भाव के प्रति अज्ञानता, मुख-सुख, प्रयत्नलाघव, भाषा में नये प्रयोग करने की ललक, अलंकारों तथा अभिधा-लक्षणा-व्यंजना प्रयोगों तथा अनेक बार एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त होते रहने के कारण रूढ़ होकर शब्द ‘बहुरूपिये’ बन गए ।

भाषा में परिलक्षित होने वाले यह सतत् परिवर्तन ही भाषा के विकास का कारण हैं । भारत में ‘विविधता में एकता’ है, ऐसा बहुत चर्चा में आता है और यही शायद भारत की राष्ट्रीय एकता का वह सूत्र है जिसके कारण इतने आक्रमणों के बाद भी भारत अक्षुण्ण है, एक गौरवशाली राष्ट्र के रूप में शताब्दियों से खड़ा है । भारत की भाषायी विविधता भी जीवन-मूल्यों, रीति-रिवाज-परम्पराओं, मानबिन्दुओं-श्रद्धाकेन्द्रों, व्रत-पर्व-त्यौहारों की सांस्कृतिक धरोहरों को संजोये रखने में, भारत को एकात्म बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । भाषा के रूप में हिन्दी का क्रमिक ऐतिहासिक विकास, भाषा की अपनी प्रकृति-संस्कृति, संस्कृत की तत्सम शब्दावली के साथ-साथ देशज एवं विभिन्न बोलियों से आये हुए शब्दों का प्रयोग, विदेशी भाषाओं के आगत शब्दों की स्वीकार्यता आदि ऐसे अनेक कारण गिनाये जा सकते हैं जिनसे देश के अलग-अलग क्षेत्रों-प्रान्तों में ही नहीं, एक ही प्रान्त के अलग-अलग जिलों-नगरों में अर्थ विभिन्नता हो जाती है । ऐसे में यदि हिन्दी को राष्ट्रभाषा अथवा राष्ट्र की सम्पर्क भाषा (Link language) के रूप में स्थान बनाये रखना है तो उसके एक मानकीकृत (Standardized) स्वरूप की आवश्यकता है ।

भाषा विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है, दो व्यक्तियों के मध्य संवाद का सेतु है । इसीलिए आवश्यक है जो बात जिस अर्थ में कही या लिखी जाये, दूसरे पक्ष द्वारा वह उसी अर्थ में सुनी या पढ़ी भी जाये । यह तभी संभव है जब दोनों पक्ष एक समान, मानक भाषा का प्रयोग करें । व्यापार-व्यवसाय और सरकारी कार्यालयों में होने वाले पत्राचार में इस सिद्धान्त का पालन और भी अधिक आवश्यक हो जाता है, क्योंकि अलग-अलग क्षेत्रों से आने वाले, अलग-अलग मातृभाषा वाले व्यक्तियों के मध्य संवाद स्थापित होना होता है । ऐसे में यदि वक्ता-श्रोता अथवा लेखक-पाठक के मध्य संवाद को समान अर्थों में ग्रहण नहीं किया गया तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है ।

भारत के संविधान और भारत सरकार ने हिन्दी के मानकीकरण की दृष्टि से कुछ प्रयोग किए हैं । 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने हिन्दी को भारतीय संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया । इसी दिनांक विशेष को विभिन्न सरकारी विभागों-कार्यालयों आदि में ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, भले ही वह औपचारिकता निर्वाह जैसा ही रहता है । भारत के संविधान के भाग 5, 6 व 17 में हिन्दी का ‘संघ की भाषा’ के रूप में उल्लेख है । इस दृष्टि से हिन्दी का सरकारी कामकाज में प्रयोग संवैधानिक दायित्व है, यह अलग बात है कि हम भारतीय अधिकारों के प्रति अधिक और दायित्वों के प्रति कम जागरुक हैं ।

यहाँ एक महत्वपूर्ण तथ्य पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है । हिन्दी के लिए शब्द ‘राष्ट्रभाषा’ प्रचलित है । संविधान में शब्द राजभाषा (Official Language) है, न कि राष्ट्रभाषा National Language) जिसका सीधा अर्थ है सरकारी कामकाज में प्रयोग आने वाली भाषा । वैसे थोड़ा व्यापक दृष्टि से विचार किया जाये तो राष्ट्र में प्रचलित सभी भाषायें राष्ट्रभाषा ही तो हैं- अराष्ट्रीय नहीं ।

संविधान का अनुच्छेद 343, संघ की राजभाषा हिन्दी, लिपि देवनागरी तथा अंकों के अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप का प्रावधान करता है अर्थात् हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जायेगी, रोमन में लिखी गई हिन्दी अस्वीकार्य परन्तु अन्य भारतीय तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों को देवनागरी में लिखकर हिन्दी के विस्तार को उदारतापूर्वक मार्ग देना, स्वीकार्य है । भाषा के विकास के लिए यह औदार्य आवश्यक भी है, परन्तु इसका अतिरेक जिस प्रकार आज के प्रिन्ट/इलेक्ट्रोनिक मीडिया में हिंग्लिश के रूप में प्रयोग होकर भाषा की शुचिता को नष्ट कर रहा है, वह समाज के बुद्धिजीवी और विशेषकर भाषा-साहित्य प्रेमी वर्ग के लिए चिन्ता का विषय है । परन्तु यह आज के बाजार की आवश्यकता है, संविधान की अपेक्षा यह नहीं ही थी । अंकों के अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप का अर्थ है – 1, 2, 3, 4 को १, २, ३, ४ के रूप में लिखा नहीं जायेगा परन्तु इसको बोला-पढ़ा एक, दो, तीन, चार ही जायेगा, वन, टू, थ्री, फोर नहीं ।

अनुच्छेद 351 में हिन्दी का राजभाषा के रूप में विकास करने का दायित्व भी संघ के ऊपर डाला गया है । यह एक अलग तथ्य है कि हिन्दी को स्थापित करने के लिए 15 वर्ष की अवधि ऐसी तय की गई थी जिसमें हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी सरकारी कामकाज जारी रखा जायेगा, परन्तु यह 15 वर्ष की अवधि अभी तक पूर्ण नहीं हो पाई है । शायद हमारे राजनीतिज्ञों में दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव इसके मूल में हो । 1963 में पारित राजभाषा नियम की धारा 3(3) में कुछ विशेष प्रकार के कागजात जैसे – राष्ट्रीय स्तर की निविदायें, संसद के समक्ष प्रस्तुत किए जाने वाले कागज-पत्र, करार-संविदाएँ, कार्यालय आदेश आदि को शत-प्रतिशत द्विभाषी रूप में अर्थात् हिन्दी के साथ-साथ उनका अंग्रेजी अनुवाद भी जारी करने का प्रावधान रखा गया है । इस नियम को सही भावना में पालन करने से कैसे बचा जा सकता है, इसका एक अच्छा प्रयोग अधिकांश सरकारी कार्यालयों ने खोज निकाला है । पत्र अंग्रेजी में जारी करते हुए उसमें अंतिम पंक्ति ‘Hindi version will follow (हिन्दी अनुवाद बाद में भेजा जाएगा)’ जोड़ दी जाती है । नौकरशाहों की अंग्रेजी मानसिकता में परिवर्तन आये बिना इस परिस्थिति में संविधान या नियम कोई विशेष योगदान कर पायेंगे – विचारणीय विषय है ।

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