– वासुदेव प्रजापति
आज देश के गाँव-गाँव तथा गली-गली में विद्यालय खुलते जा रहे हैं। क्यों? क्योंकि हमने शिक्षा को व्यवसाय बना लिया है। आज शिक्षा खरीदने-बेचने की वस्तु बना दी गई है और उसे धन कमाने का साधन मान लिया गया है। इसलिए उसका विचार ज्ञान के सन्दर्भ में न कर केवल पैसे के सन्दर्भ में ही किया जाने लगा है। शिक्षा के प्रत्येक चरण पर शुल्क, वेतन, भत्ता, संचालन व प्रशासन आदि बातों का प्रथम विचार किया जाता है। यह विचार भारत का नहीं है, अत: ज्ञान और अर्थ के सम्बन्ध में मूल भारतीय विचार को जानने व समझने की नितान्त आवश्यकता है।
ज्ञान क्रय-विक्रय की वस्तु नहीं है
भारतीय शिक्षा व्यवस्था में ज्ञान भौतिक वस्तु न होकर एक अमूर्त तत्त्व है। क्रय-विक्रय तो मूर्त वस्तुओं का होता है, अमूर्त तत्त्व का नहीं। इस मूल बिन्दु को समझने की आवश्यकता है। ज्ञान का सम्बन्ध मन, बुद्धि व कुशलता के साथ है, पैसों के साथ नहीं। इसलिए अध्ययन हो या अध्यापन उसका मूल्य रुपयों से नहीं आँका जा सकता।
व्यवहार में भी यही दिखाई देता है कि अधिक पैसे देने वाले को अधिक ज्ञान और कम पैसे देने वाले को कम ज्ञान नहीं मिलता। क्योंकि ज्ञान तो बुद्धि, श्रद्धा, एकाग्रता, संयम, सेवा व साधना से प्राप्त किया जाता है। ये सभी योग्यताएँ केवल धनवान में ही होती है, गरीब में नहीं होती, ऐसा तो नहीं होता। अनेक बार एक गरीब से गरीब विद्यार्थी में भी ये योग्यताएँ पायीं जाती हैं। तब अमीर विद्यार्थी से वह गरीब विद्यार्थी अधिक ज्ञान प्राप्त करता है। इसी प्रकार अधिक वेतन पाने वाला शिक्षक अधिक अच्छा पढ़ाता है और कम वेतन पाने वाला अच्छा नहीं पढ़ता, ऐसी बात भी नहीं है। क्योंकि पढ़ाने का सम्बन्ध शिक्षक की ज्ञाननिष्ठा, विद्यार्थीनिष्ठा तथा समाजनिष्ठा से है, पैसों से नहीं है।
आजकल अधिकांश अभिभावक अपने पुत्र को प्रवेश करवाने से पूर्व यह देखते हैं कि उस विद्यालय में भौतिक सुख-सुविधाएँ कितनी हैं? उनकी मान्यता यह बन गई है कि अधिक सुविधाओं वाला विद्यालय अच्छा है। इसलिए विद्यालय संचालक भी शिक्षा की गुणवत्ता के स्थान पर ए.सी. क्लास रूम, वाटरकुलर तथा महँगा फर्निचर लाने पर अधिक जोर देते हैं। अधिक सुविधापूर्ण स्थान में बैठकर ही अच्छा अध्ययन किया जाता है, यह मान्यता ही गलत है। इसलिए विद्यार्थी का शुल्क, शिक्षक का वेतन तथा विद्यालय का संचालन व्यय को ज्ञान के साथ कभी नहीं जोड़ना चाहिए। भारत में हमेशा अर्थनिरपेक्ष शिक्षा का विचार ही किया गया है। अत: यहाँ भी हम इसका ही विचार करेंगे।
ज्ञान अर्थ से श्रेष्ठ व पवित्र है
ज्ञान के सम्बन्ध में श्रीमद् भगवत गीता कहती है कि ज्ञान पवित्र है। “न हि ज्ञानेन पवित्रमिह विद्यते” भगवान कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन! ज्ञान से पवित्र और कुछ भी नहीं है। अर्थात् ज्ञान पवित्रतम है, इसलिए श्रेष्ठ भी है। भारत में पवित्र और श्रेष्ठ वस्तुओं को अर्थ से मुक्त रखा गया है। जैसे- अन्न, पानी, सेवा, शिक्षा व चिकित्सा ये अर्थ से परे हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं, इसलिए इनका मूल्य पैसों से नहीं लगाया जा सकता, इनका तो दान किया जाता है। आज हमने इन श्रेष्ठ वस्तुओं को भी पैसों से तौलना शुरु कर दिया है। यही हमारी भूल है।
इसका मतलब यह नहीं है कि अर्थ का कोई महत्त्व नहीं है। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए अर्थ आवश्यक है। मनुष्य को अपने रहने, खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के लिए पैसों की आवश्कता होती है। यहाँ हमें यह बिन्दु ध्यान में रखना चाहिए कि पैसों का सम्बन्ध मनुष्य से है, ज्ञान से नहीं। इसलिए यहाँ ज्ञानदान की परम्परा रही है।
ज्ञानदान करने वाला शिक्षक भी मनुष्य है, उसे भी भोजन, आवास एवं वस्त्र चाहिए। उसके योगक्षेम की व्यवस्था कैसे होगी? शिक्षक के योगक्षेम की व्यवस्था यदि राज्य करता है तो अच्छा है। परन्तु राज्य नहीं करता है तो समाज को यह व्यवस्था करनी चाहिए। अध्ययन-अध्यापन यह किसी व्यक्ति विशेष की आवश्कता नहीं है, यह तो सम्पूर्ण समाज की आवश्कता है। समाज को सर्वतोमुखी विकास चाहिए तो उसे ज्ञाननिष्ठ बनना आवश्यक है। उसे सहर्ष शिक्षक के योगक्षेम का दायित्व लेना चाहिए।
शिक्षा में समित्पाणि की परम्परा
भारत में एक परम्परा ऐसी भी रही है कि जिनसे हमें ज्ञान प्राप्त करना है, उनके पास खाली हाथ नहीं जाना। अपनी आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार गुरु के लिए कुछ लेकर जाना चाहिए। प्राचीन काल में शिष्य जब गुरु के पास जाता था, तब यज्ञ में डालने वाली समिधा अर्थात (पवित्र लकड़ी) लेकर जाता था। इस परम्परा का नाम है, “समित्पाणि”। समित् अर्थात् समिधा और पाणि का अर्थ है हाथ, पूरा अर्थ हुआ गुरु के पास जाते समय हाथ में समिधा लेकर जाना।
उस समय यज्ञ संस्कृति पूर्ण विकसित थीं। यज्ञ करना पवित्र व कल्याणकारी कार्य माना जाता था। यज्ञ के उपयोग में आने वाली प्रत्येक वस्तु का महत्त्व था। इसलिए समिधा ले जाने की परम्परा बनी। आज समिधा शिक्षक के लिए उपयोगी वस्तु नहीं रही। इसलिए आज अपनी सामर्थ्य के अनुसार शिक्षक के लिए उपयोगी वस्तु ले जाना ही युक्ति संगत है। शिक्षक के योगक्षेम का यह भी एक साधन हो सकता है।
इसी प्रकार अर्थ निरपेक्ष शिक्षा व्यवस्था में गुरुदक्षिणा, भिक्षा तथा दान का समावेश भी होता है। इन पर हम अगले अध्यायों में विचार करेंगे। आज तो आप अर्थ और ज्ञान से सम्बन्धित एक कथा का आनन्द लीजिए।
आत्मिक ज्ञान बेचने की वस्तु नहीं
एक गृहस्थी त्यागी महात्मा थे। एक बार उनके घर एक सज्जन दो हजार सोने की मोहरें लेकर आये और कहने लगे, मेरे पिताजी आपके मित्र थे। उन्होंने धर्म पूर्वक पैसा कमाया था। मैं उसी में से कुछ मोहरें लेकर आपकी सेवा में आया हूँ। आप इन्हें स्वीकार कीजिए। यह कहकर वे मोहरों से भरी थैली को छोड़कर चले गये।
वे सज्जन जब आये तब महात्मा का मौनव्रत चल रहा था, इसलिए बोले नहीं थे। मौन पूर्ण होने पर उन्होंने अपने पुत्र को बुलाया और कहा- बेटा! यह मोहरों की थैली उन सज्जन को वापस दे आओ। उनसे कहना आपके पिता के साथ मेरा आत्मिक सम्बन्ध था। अर्थात् ईश्वर का दिया ज्ञान का सम्बन्ध था, सांसारिक लेन-देन का सम्बन्ध नहीं था। अत: मैं यह थैली लौटा रहा हूँ।
पुत्र ने पिता से कहा, क्या आपका हृदय पत्थर का बना है? आप जानते हैं कि अपना परिवार बड़ा है और घर में कोई धन गड़ा नहीं है। इस परिस्थिति में उन सज्जन ने बिना माँगे ये मोहरें दीं हैं तो इन्हें ठुकराइये मत, कम से कम अपने परिवार जनों पर ही दया करके इन मोहरों को रख लीजिए।
महात्मा बोले, बेटा! क्या तेरी यह इच्छा है कि मेरे परिवार के लोग यह धन लेकर मौज करें और मैं अपने ईश्वरीय ज्ञान को बेचकर बदले में सोने की मोहरे खरीद लूँ और सर्वव्यापी परमात्मा के अमूल्य ज्ञान का मूल्य लेकर उसका अनादर करूँ?
बेटा निरुत्तर था।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
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