✍ वासुदेव प्रजापति
आज हमारे देश में नाम को लेकर बहस छिड़ी हुई है। जो राष्ट्रवादी हैं, वे मानते हैं कि हमारे देश का नाम भारत होना चाहिए। दूसरी ओर वे अंग्रेजीपरस्त लोग हैं जिनका मानना है कि देश का नाम इंडिया है और इंड़िया ही रहने देना चाहिए। इंडिया नाम की वकालत करने वालों को यह ज्ञान नहीं है कि हमारे देश का आदिकाल से चला आया नाम भारत ही है। अंग्रेजों के हमारे देश में आने से पहले तक इसका नाम भारत ही था। अंग्रेजों ने अपनी सुविधा के लिए इसे इंडिया नाम दे दिया। इसलिए अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों के लिए तो देश का नाम इंडिया ही हो गया। वास्तव में इंडिया हमारा अपना नाम नहीं है, यह तो अंग्रेजों की गुलामी का चिह्न है। एक स्वतंत्र देश को अपनी गुलामी के सभी चिह्नों को हटाकर अपने चिह्नों को पुनः स्थापित करना चाहिए। परन्तु जो लोग पूरी तरह अंग्रेजियत में रचे-बसे हैं, उन्हें जैसे देश के नाम के बारे में अज्ञान है, वैसे ही हमारे देश भारत के विषय में छोटी-छोटी बातों को लेकर भी घोर अज्ञान है। यहाँ ऐसे ही कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं।
भारत विषयक अज्ञान के उदाहरण
- एक उच्च माध्यमिक विद्यालय में अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ी शिक्षिका कक्षा बारह की छात्राओं को अंग्रेजी पढ़ा रही है। उस शिक्षिका को लक्ष्मी व सरस्वती ये दो नाम अलग-अलग देवियों के हैं, इसका भी ज्ञान नहीं है तो उसे शुभलक्ष्मी, वैभवलक्ष्मी, धनलक्ष्मी या अलक्ष्मी जैसे शब्दों का ज्ञान कैसे होगा? कमला, पद्मा, श्री, नारायणी अथवा लक्ष्मीकांत, लक्ष्मीनन्दन, श्रीकान्त या श्रीपति जैसे शब्दों के अर्थ का ज्ञान न होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
- शिक्षा विभाग का एक उच्च अधिकारी राजस्थान प्रशासनिक सेवा की तैयारी कर रहे विद्यार्थियों की कक्षा में बताता है कि अंग्रेज जब हमारे देश में आए उस समय यहाँ शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी, हमारे देश में शिक्षा का विकास और विस्तार अंग्रेजों ने ही किया है। उसका यह कथन गलत है। गांधी जी के शिष्य धर्मपाल जी ने अंग्रेजी दस्तावेजों से जानकारी प्राप्त की और एक पुस्तक लिखी ‘ए ब्यूटीफुल ट्री’। उसमें वे बताते हैं कि अठारहवीं शताब्दी में अर्थात् अंग्रेजों के भारत में आने से पहले हमारे देश में शिक्षा इंग्लैण्ड की तुलना में बहुत अच्छी स्थिति में थीं तथा विद्यालय भी अधिक संख्या में थे। बीसवीं शताब्दी में दी गई शिक्षा सम्बन्धी ऐसी प्रामाणिक जानकारी हमारे शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारियों को नहीं है तो पाँच सौ-हजार वर्ष पूर्व की अधिकृत जानकारी होने की तो कोई संभावना ही नहीं है।
- देश के तथाकथित आधुनिक विद्वानों में वेद, उपनिषद व गीता आदि ग्रंथों को खोले बिना या देखे बिना ही उनकी आलोचना करने की प्रवृत्ति बहुत अधिक मात्रा में दिखाई देती है। वास्तव में इन ग्रंथों में कौन सा ज्ञान भरा पड़ा है, इसकी लेशमात्र भी जानकारी उन्हें नहीं हैं। भारत के बारे में इससे अधिक अज्ञान और क्या हो सकता है?
- भारत के इतिहास के बारे में भी ऐसा ही अज्ञान भरा हुआ है। कौन पाँच हजार वर्ष पूर्व का है, कौन तीन हजार वर्ष पूर्व का और कौन मात्र तीन सौ वर्ष पूर्व का है, इसका कोई ज्ञान नहीं। दस हजार वर्ष ओर तीन सौ वर्ष के अन्तर का कोई अहसास ही नहीं। वर्तमान युग से उसका कोई नाता है या हमारा अपना उससे कोई सम्बन्ध है? इसकी कोई अनुभूति नहीं। देश के इतिहास के सम्बन्ध में इतना अज्ञान होना, निश्चय ही चिन्तनीय विषय है।
- पदार्थ विज्ञान से सम्बन्धित जितनी भी खोजें यूरोप में हुई हैं, उनसे हजारों वर्ष पहले भारत के ऋषि-मुनियों ने वह ज्ञान प्राप्त कर लिया था और वह ज्ञान भारत से ही सम्पूर्ण विश्व में गया था। चाहे वह शून्य की खोज हो, चाहे काल गणना की हो या अन्तरिक्ष की हो। आज के उच्च विद्या विभूषितों को इसकी भनक मात्र भी नहीं है। यही तो उनका भारत विषयक अज्ञान है।
- हमारे तथाकथित विद्वानों को यह तो जानकारी है कि यूरोप के दो नाविक कोलम्बस और वास्कोडिगामा दुनिया के भ्रमण पर निकले, कोलम्बस ने अमेरिका की खोज की और वास्कोडिगामा ने भारत को खोजा। परन्तु उन्हें भारत के उन दिग्विजयी महापुरुषों अगस्त्य, चौलराज, कम्बु व कौण्डिन्य तथा गुजरात के अनेक व्यापारी जो विश्व के प्रमुख सभी देशों में व्यापार हेतु जाते थे, उनकी कोई जानकारी उन्हें नहीं हैं। क्या भारत के सम्बन्ध में यह कोई कम अज्ञान है?
ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। परन्तु प्रश्न यह खड़ा होता है कि अंग्रेजीपरस्त भारतीय विद्वान वास्कोडिगामा को तो जानते हैं, लेकिन कौण्डिन्य को क्यों नहीं जानते? युक्लिड को जानते हैं लेकिन भास्कराचार्य को क्यों नहीं जानते? सोक्रेटिस को जानते हैं लेकिन याज्ञवल्क्य को क्यों नहीं जानते? जबकि ये सब तो उसके अपने देश के महापुरुष हैं। आखिर अपनों के प्रति इतना अज्ञान क्यों? आओ! इसका कारण जानते हैं –
भारत विषयक अज्ञान के कारण
सीधासा एक कारण तो यह समझ में आता है कि भारतीयों को यूरोप तो पढ़ाया गया परन्तु भारत नहीं पढ़ाया गया। अंग्रेजों ने षडयन्त्र पूर्वक भारतीय शिक्षा का अंग्रेजीकरण अर्थात् यूरोपीकरण कर दिया। शिक्षा का यूरोपीकरण करने का उनका उद्देश्य स्पष्ट था। वे चाहते थे कि भारतीयों को भारत विषयक ज्ञान नहीं दिया जाए, क्योंकि वह श्रेष्ठ है। यदि उन्हें श्रेष्ठ ज्ञान मिलता रहा तो उनमें भारत के प्रति गौरव व स्वाभिमान का भाव दृढ़ होगा। उस स्थिति में भारतीय कभी भी स्वयं को निम्न और यूरोप को श्रेष्ठ नहीं मानेंगे और हम भारतीयों पर दीर्घकाल तक अपना शासन नहीं चला पायेंगे। इसलिए उन्होंने भारतीय ज्ञान को शिक्षा की मूलधारा से बाहर निकाल दिया। परिणाम स्वरूप आज दस पीढ़ियों के बाद भी भारत विषयक अज्ञान का होना अस्वाभाविक नहीं लगता।
दूसरा प्रश्न यह उठता है कि अंग्रेजों ने भारत की प्रजा को भारत के विषय में अज्ञानी रखने में अपना स्वार्थ देखा, जो स्वाभाविक था। परन्तु स्वतंत्र भारत में शिक्षा को पूर्णतया भारतीय क्यों नहीं बनाया गया? यह कितनी विचित्र बात है कि भारत के विश्वविद्यालय दुनियाभर का ज्ञान तो देते हैं, परन्तु भारत का ज्ञान नहीं देते। भारत विषयक जानकारी भी वे लोग देते हैं, जो स्वयं भारतीय नहीं हैं। है न कितनी विचित्र बात!
अंग्रेजी तंत्र नहीं बदला
सामान्य बुद्धि को विचित्र लगने वाली बातें और उनसे उठने वाले प्रश्नों का उत्तर यही है कि 15 अगस्त 1947 में जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ तब केवल सत्ता का हस्तान्तरण हुआ था। अब तक देश जिस अंग्रेजी तंत्र से चल रहा था, वह तंत्र यथावत चलता रहा। तंत्र चलाने वाले लोग अवश्य बदले परन्तु व्यवस्थाएँ वही बनी रहीं। जैसे विश्वविद्यालय वही रहे, उनका संचालन वही रहा। विद्यालयों-महाविद्यालयों में पाठ्यपुस्तकें वही रहीं, विद्यार्थियों को दिया जाने वाला ज्ञान वही यूरोपीय रहा, भारतीय ज्ञान नहीं आया। प्राथमिक विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक संख्या तो बढ़ी परन्तु शिक्षा तो वही की वही यूरोपीय ही रही।
देश की स्वतंत्रता से पहले शिक्षक कक्षाकक्ष में जो पढ़ाते थे, स्वतंत्रता के बाद भी वही पढ़ाते रहे। देश में सत्ता हस्तान्तरण से शिक्षा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। अंग्रेजी शिक्षा रूपी वटवृक्ष भारतीय मिट्टी में खूब फला फूला, उसकी जड़ें भूमि में जाकर नये वृक्ष में पनप रही है। इस वृक्ष का पनपना हमारे देश के लिए ठीक नहीं है। क्योंकि इस वृक्ष को मिलने वाला जीवनरस अभी भी यूरोपीय ही है। इसलिए इसके फल भी यूरोपीय ही होंगे, वेद,उपनिषद और गीता तो हो नहीं सकते।
अब प्रश्न यह खड़ा होता है कि स्वतंत्रता के पश्चात भारतीयों ने शिक्षा में परतंत्र छोड़कर स्व का तंत्र क्यों नहीं अपनाया? क्योंकि भारतीय अंग्रेजी पढ़े-लिखे विद्वानों की मान्यता रही कि देश का विकास तो यूरोपीय ज्ञान से ही होगा। जब सरकार का यही मानना था तो शिक्षा स्व के तंत्र वाली कैसे बनती? इसलिए आज तक भारत की शिक्षा भारतीय नहीं बन पायी। अब वर्तमान सरकार राष्ट्रवादी लोगों के हाथों में है। इनकी मान्यता है कि “देश में वैभव तो स्वदेशी तंत्र से ही आयेगा।” इसलिए अब जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनी है उसमें भारतीय ज्ञान परम्परा का समावेश हुआ है। अतः अब कक्षाकक्ष में भारतीय ज्ञान मिलने लगेगा।
भारतीय ज्ञान के सम्बन्ध में तथ्य यह बतलाते हैं कि आज दुनिया के पास जितना ज्ञान है, उतना तो भारत के पास पहले से था। आज भी वह ज्ञान हमारे ग्रंथों में, लोगों के मस्तिष्क में विद्यमान है। इससे भी आगे जो ज्ञान दुनिया के पास नहीं है, वह भारत के पास है। तभी तो भारत चन्द्रमा की दक्षिणी सतह पर अपना चन्द्रयान सफलतापूर्वक उतारने वाला विश्व का पहला देश बना है। इसलिए आवश्कता इस बात की है कि हम भारतीय ज्ञान पर विश्वास करें और उसे कक्षकक्ष तक सिखाने की व्यवस्था करें। यदि हम वेद-उपनिषदों का ज्ञान भावी पीढ़ी को सिखाने में सफल हुए तो कोई आश्चर्य नहीं कि हम अपनी खोई हुई अस्मिता पुनः प्राप्त कर लेंगे।
हमें अपनी दिशा बदलनी होगी
स्वतंत्रता से लेकर अमृतकाल तक देश उसी दिशा में बढ़ता रहा है, जो दिशा अंग्रेजों ने हमारे लिए निर्धारित की थी। फलस्वरूप आज तक स्वतंत्रता का अर्थ ही स्पष्ट नहीं है। स्वतंत्रता का अर्थ स्पष्ट न होने से स्वैराचार पनपता है। युवक एवं युवतियों के सम्बन्धों से लेकर राष्ट्रीयता के विषय पर इस देश के साम्यवादी, नक्सलवादी या अलगाववादियों को कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता है। वे कुछ भी कर सकते हैं, भले ही देश का सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जाए, उन्हें देश से कोई लेना-देना नहीं।
समन्वय के नाम पर चावल-दाल की जगह चावल और कंकड़ की खिचड़ी पकाने का प्रयास किया जाता है। सहिष्णुता के नाम पर असहिष्णुता का व्यवहार किया जाता है। समानता के नाम पर हास्यास्पद स्थिति निर्माण होती है। जैसे, स्त्री और पुरुष दोनों समान हैं तो पुरुष शिशु का लालन-पालन क्यों नहीं कर सकता और महिला ट्रक क्यों नहीं चला सकती? ऐसा पूछा जाता है। महिला ट्रक चलाकर बता देती है और पुरुष शिशु का लालन-पालन करके यह सिद्ध कर देता हैं कि पुरुष महिला के व महिला पुरुष के काम कर सकती है। परन्तु यह सिद्ध कर देने से मिला क्या? यही मिला कि एक परिवार टूट गया।
हमारे देश में जिसके पास ज्ञान है, उसके पास प्रमाणपत्र नहीं है और जिसके पास प्रमाणपत्र है, उसके पास ज्ञान नहीं है। ऐसे हजारों उदाहरण सभी क्षेत्रों में मिल जाते हैं। आज भी मान्यता और प्रतिष्ठा प्रमाणपत्र को है, ज्ञान को नहीं। नौकरी प्रमाणपत्र वाले को मिलती है, ज्ञानवान को नहीं। बिना प्रमाणपत्र के ज्ञान का प्रयोग अपराध माना जाता है। अर्थात् आज भी देश के सभी क्षेत्रों में विकास के मानक जो यूरोप व अमेरिका ने मान्य किये हुए हैं, हम भी उन्हें ही अपनाते हैं। अर्थात् स्वतंत्र भारत के अपने मानक आज भी नहीं हैं।
सरकार भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहती है, परन्तु वास्तव में प्रतिष्ठा अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को देती है। सभी सरकारी प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में बात करते हैं। सरकारी पत्र-व्यवहार अंग्रेजी में होता है। न्यायालयों में बहस अंग्रेजी में होती है, न्याय अंग्रेजी में लिखा जाता है। प्रशासनिक अधिकारी मानो अंग्रेजों के प्रतिनिधि हैं, क्योंकि सत्ता के हस्तान्तरण के समय अंग्रेज सत्ता इनके हाथों में सौंपकर गये थे। सरकार तो प्रजा की प्रतिनिधि है जबकि अधिकारी अंग्रेजों के प्रतिनिधि हैं, इसलिए इन दोनों के बीच कभी समन्वय नहीं हो पाता है।
इन सब कारणों से देश में विचारधाराओं का, मत-मतान्तरों का, अपेक्षाओं व आकांक्षाओं का संघर्ष चलता ही रहता है फलतः अशान्ति और असुरक्षा का वातावरण हमेशा बना ही रहता है। निश्चयात्मिका बुद्धि का अभाव दिखाई देता है। सम्पूर्ण देश मानो प्रवाह पतित होकर घसिटा जा रहा है। गन्तव्य कहाँ है? पता नहीं, मार्ग कौन सा है और दिशा कौन सी है? निर्धारित ही नहीं है। बिना नियमन के देश राम भरोसे चल रहा है। ये सब पश्चिमी शिक्षा के भीषण परिणाम हैं। इस दिशा में अब आगे बढ़ना असंभव है। यदि इसी दिशा में अब भी आगे बढ़े तो विनाश आज नहीं तो कल अवश्यंभावी है। इसलिए दिशा तो बदलनी ही होगी, चलने की गति भी बदलनी होगी, व्यवस्थाएँ व पद्धतियाँ भी बदलनी होगी, तभी हम भारत के गत वैभव ‘विश्व गुरुत्व’ को पुनः प्राप्त करने में समर्थ होंगे।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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Aziel Hart