महान शिक्षाविद व समाज सुधारक महात्मा हंसराज का जीवन-दर्शन

 – डॉ. सुरेन्द्र कुमार बिश्नोई

उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में जिन महापुरुषों ने देश में शिक्षा व समाज-सुधार के क्षेत्र में महान योगदान दिया उनमें महात्मा हंसराज जी का नाम उल्लेखनीय है। एक ओर जहां वे डी.ए.वी. शिक्षा संस्थाओं के संस्थापक थे, वहीं दूसरी ओर वे महान समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अपना सारा जीवन ही शिक्षा और समाज-सुधार के कार्यों के लिए अर्पित कर दिया और बड़ी-से-बड़ी बाधा उन्हें पथ से डिगा नहीं सकी।

माँ भारती के इस महान सपूत का जन्म 19 अप्रैल 1864 को होशियारपुर शहर (पंजाब) से दो-तीन मील दूर बसे बजवाड़ा नामक कस्बे में हुआ था। उनके पिता का नाम चुन्नीलाल और माता का नाम गणेश देवी था। इनका सम्बन्ध एक साधारण परिवार से था। कहा जाता है कि उनका विद्यालय घर से बहुत दूर था। गर्मियों में नंगे पैर से आते समय धूप से तपती हुई रेत से जब उनके पैर जलने लगते, तो वह अपनी तख्ती नीचे रख देते और उस पर खड़े होकर अपने पैरों की जलन मिटाते और कुछ देर बाद फिर तपती रेत पर चलने लगते।

हंसराज जी अभी 12 वर्ष के ही थे कि उनके पिता का देहांत हो गया। तब उनके बड़े भाई लाहौर चले आए और अपने छोटे भाई को भी ले गए। लाहौर में एक बार एक दुकान पर गणित की पुस्तक खरीदने गए। दुकानदार ने मजाक में गणित का एक कठिन प्रश्न उन्हें हल करने के लिए दिया और कहा कि ‘यदि तुमने यह प्रश्न हल कर दिया तो मै तुम्हें मुफ्त में किताब दे दूंगा’। कहना न होगा कि हंसराज जी को मुफ्त में ही किताब मिली। यह उनके बाल्यकाल से ही मेधावी होने का परिचायक है।

सन् 1880 में उन्होंने एंट्रेस-परीक्षा पास की और 1885 में बी.ए. की पंजाब-भर में उन्हें द्वितीय स्थान मिला। संस्कृत और इतिहास में उन्होंने विशेष योग्यता प्राप्त की। उन दिनों बी.ए. पास करने पर ऊंची-से-ऊंची नौकरी के दरवाजे खुल जाते थे, परिवार वालों को स्वाभाविक रूप से आशा हुई कि अब हमारी गरीबी दूर हो जाएगी। परंतु इसी बीच एक ऐसी घटना हुई, जिसने उनकी जीवन-धारा ही बदल दी।

1877 में आर्य समाज का प्रचार करते हुए स्वामी दयानंद जी लाहौर पहुंचे और वहां उनकी धूम मच गई। ये दोनों भाई भी उनसे बहुत प्रभावित हुए। 30 अक्तूबर 1883 को जहर दिए जाने के कारण अजमेर में स्वामी जी का स्वर्गवास हो गया। लाहौर के आर्यसमाजियों ने अगले ही महीने यह तय किया कि उनकी स्मृति में दयानंद एंग्लो वैदिक (डी.ए.वी.) महाविद्यालय व विद्यालय खोले जाएं, जहां पाश्चात्य विद्या के साथ-साथ भारतीय ज्ञान और विशेषकर वेदों की शिक्षा दी जा सके। परन्तु अर्थाभाव के कारण यह कार्य आगे नहीं बढ़ पा रहा था। महात्मा हंसराज जी यह सब देखकर बहुत दुःखी हुए ।

एक दिन वे अपने बड़े भाई लाला मूलखराज से कहने लगे कि ‘यह बहुत दुख की बात है कि पैसे की कमी के कारण दयानंद महाविद्यालय शुरू नही हो पा रहा। मैं महाविद्यालय चलाने के लिए अपना जीवन अर्पण करना चाहता हूं। मेरी इच्छा है कि बिना एक पैसा लिए अपना जीवन महाविद्यालय को दान कर दूं। परंतु यह काम बिना आपकी सहायता के नहीं हो सकता’।

बड़े भाई को अपने छोटे भाई की यह बात बहुत पसंद आई। उन्होंने कहा कि ‘तुम बेखटके महाविद्यालय की सेवा करो। मैं तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के खर्च के लिए आधा वेतन, अर्थात 40 रुपये मासिक देता रहूंगा’। हंसराज जी की मनोकामना पूरी हुई। उन्होंने आर्य समाज लाहौर के प्रधान को चिट्ठी लिख दी कि विद्यालय खुलने पर वह अवैतनिक मुख्याध्यापक बनने के लिए तैयार हैं। इस पत्र ने आर्य समाज के कार्यकर्ताओं में नई जान फूक दी। एक जून 1886 को आर्य समाज, लाहौर, के भवन में विद्यालय खोल दिया गया। महात्मा हंसराज जी इसके अवैतनिक मुख्याध्यापक नियुक्त हुए और विद्यालय तेजी से प्रगति करने लगा।

1889 में ही विद्यालय बढ़कर महाविद्यालय बन गया और महात्मा जी ही उसके प्रधानाचार्य नियुक्त किए गए। 1896 में महाविद्यालय में इंजीनियरिंग की कक्षाएं भी प्रारम्भ हो गई । महात्मा जी महाविद्यालय के विद्यार्थियों को अंग्रेज़ी और इतिहास के साथ-साथ धर्म-शिक्षा भी देते थे। महाविद्यालय के प्रधानाचार्य होने के साथ-साथ वह छात्रावास के मुख्य अधीक्षक भी थे, छात्रावास में संध्या-हवन के साथ वह विद्यार्थियों के स्वास्थ्य पर भी बहुत बल देते थे। इसलिए कुश्ती सिखाने के लिए एक पहलवान भी रखा गया।

यद्यपि महाविद्यालय के लिए महात्मा जी ने लाखों रुपये जमा किए, परंतु उनका अपना जीवन बहुत ही सादा था। काफी समय तक वह चार रुपये महीने के किराए वाले छोटे से मकान में रहे। उनके अपने कमरे में सादी-सी दरी बिछी रहती थी, जिसके एक कोने पर महात्मा जी बैठते थे। कमरे का कुल फर्नीचर दो डेस्क और एक छोटी-सी तिपाई थी। मेहमानों को भी भूमि पर ही बैठना होता था, क्योंकि कमरे में कोई कुर्सी ही न थी। इसके बगल में उनके आराम का कमरा था, जिसमें एक चारपाई और एक कंबल ही होता था। उनकी पोशाक थी – खादी का कुर्ता और पाजामा, और पैरों में देसी जूता। इससे अधिक कपड़े वह न पहनते थे और न ही रखते थे। सर्दियों में कश्मीरी पट्टू का कोट पहन लेते थे।

महात्मा हंसराज सहकार की भावना रखते थे । आपने महाविद्यालय के आजीवन सदस्यों की योजना शुरू की। ये सदस्य महाविद्यालय से नाममात्र का खर्चे लेकर आजीवन महाविद्यालय की सेवा करते थे। इन्हीं आजीवन सदस्यों के बल पर देश-भर में डी.ए.वी. महाविद्यालयों व विद्यालयों  का जाल बिछ गया है। जब महाविद्यालय की सेवा करते-करते 25 वर्ष हो गए तो उन्होंने महाविद्यालय के प्रधानाचार्य-पद से त्यागपत्र दे दिया। उस समय उनकी आयु केवल 48 वर्ष की थी और यदि वह चाहते तो और कई वर्षों तक प्रधानाचार्य बने रह सकते थे परंतु उन्हें तो समाज-सेवा की धुन थी।

जब उन्होंने त्यागपत्र दिया तो डी.ए.वी. महाविद्यालय पंजाब का सबसे बड़ा महाविद्यालय बन चुका था। एम.ए. की कक्षाओं के अतिरिक्त वहा इंजीनियरिंग कक्षा, आयुर्वेद विभाग, उपदेशक विद्यालय, दस्तकारी विद्यालय आदि भी खुल चुके थे। संस्कृत शिक्षा का विशेष प्रबंध था। महाविद्यालय का अपना भवन था और उसके कोष में आठ लाख से भी अधिक रुपये जमा थे। इस सबका श्रेय महात्मा हंसराज जी को ही था।

त्यागपत्र देने के बाद 1912 में वे दयानंद एंग्लो वैदिक महाविद्यालय प्रबंधक कमेटी के प्रधान बने। इस काल में उन्होंने विद्यालय-महाविद्यालय में भी कई सामाजिक सुधार भी लागू किए। उन दिनों बाल-विवाह का बहुत प्रचलन था। उन्होंने इस कुप्रथा के विरुद्ध कड़ा संदेश देने के लिये 1915 में डी.ए.वी. स्कूल में विवाहित छात्रों का प्रवेश बंद करा दिया। बाद में एफ.ए. कक्षाओं में भी केवल अविवाहित छात्रों को ही प्रवेश दिया जाने लगा। अस्पृश्यता निवारण के लिए भी महात्मा हंसराज जी ने बहुत काम किया। दयानंद विद्यालय व महाविद्यालय में सभी वर्णों के छात्रों को बिना भेदभाव के स्वतंत्र प्रवेश की अनुमति थी।

दयानंद महाविद्यालय के साथ-साथ महात्मा जी आर्य समाज के कार्यों में भी बहुत रुचि लेते थे, उनके परिश्रम के कारण पंजाब, सिंध, बलोचिस्तान आदि में आर्यसमाज का जाल बिछ गया। सामाजिक सुधारों और जनता की सेवा का काम भी चलता रहा। वह केवल कोरे उपदेश नहीं देते थे, वरन उन पर अमल भी करते थे। उन दिनों मोची, धोबी आदि को सवर्ण हिन्दुओं के कुछ वर्ग निम्न स्तरीय मानते थे। इस भावना को दूर करने के लिए उन्होंने अपने चचेरे भाई को लाहौर में जूतों  की दुकान खुलवा दी।

छुआछूत दूर करने का काम केवल पंजाब तक ही सीमित नहीं रहा। दक्षिण भारत में मालाबार के अछूतों को भी उन्होंने आर्यसमाजी बनाया और वहां के अछूतों को पहली बार सड़कों पर बेरोकटोक चलने की अनुमति दिलाई। कांगड़ा के अछूतों के लिए बावड़ियां और तालाब बनवाए। उनके उद्धार के लिए दयानंद दलित उद्धार मंडल की स्थापना की गई। महात्मा जी ने विधवा-विवाह और स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय काम किया। कई कन्या पाठशालाएं खुलवाईं और कट्टरपंथी पंडितों से शास्त्रार्थ तक किए। उनके प्रयासों से  इन क्षेत्रों में भी  कन्या पाठशालाएं आदि खोली गई।

महात्मा जी केवल धार्मिक नेता ही नहीं थे अपितु समाजसेवी और समाज-सुधारक भी थे। जब बीकानेर, गढ़वाल, अवध, उड़ीसा और मध्य भारत में भारी अकाल पड़े तो वह तन-मन-धन से अकाल पीड़ितों की सेवा में जुट गए। कई जगह वह स्वयं गए और कई जगह अपने सहयोगियों को भेजा। इसी प्रकार कांगड़ा, क्वेटा और बिहार के भूकंप-पीड़ितों के लिए उन्होंने लाखों रुपये एकत्र करके भेजे। स्वामी विवेकानंद की तरह ही वह भी गरीबी को देश के लिए सबसे बड़ा अभिशाप मानते थे। उनकी राय थी कि एक भी पाई जो खर्ची जाए, देश के नागरिकों के पालन और संवर्धन में ही लगे। इसलिए महात्मा जी स्वदेशी के पालन के भी आग्रही थे। उनका विशेष आग्रह रहता था कि विवाह आदि के अवसरों पर भी धन बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए।

महात्मा हंसराज जी ठोस, परंतु मूक कार्यकर्ता थे। आत्म-प्रचार से वह कोसों दूर भागते थे। लोगों ने उन पर राजनीति में शामिल होने के लिए बहुत जोर भी डाला। परंतु उनका एक ही जवाब था, मैं नींव में पड़ने वाला पत्थर हूं, रचनात्मक कार्य में लगा हूं और सदा इसी में लगा रहूंगा। अपने जीवन के 74 वर्षों में से 58 वर्ष रचनात्मक कार्य में लगाने के बाद 15 नवंबर 1938 को उन्होंने यह नश्वर देह त्याग दी। परंतु आज भी डी.ए.वी. की सहस्त्राधिक शिक्षण संस्थाओं में पढ़ने वाले 10 लाख से अधिक छात्र-छात्राएं उनकी स्मृति को जीवंत बनाये हुए है।

(लेखक दयानंद महाविद्यालय, हिसार में एसोसिएट प्रोफेसर है।)

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