-डॉ. कुलदीप मेहंदीरत्ता
यह एक सर्वमान्य तथा सर्वस्वीकृत तथ्य है कि भारत 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ था। 1757 में प्लासी के युद्ध से लेकर 1947 तक भारतीयों ने अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पाने के लिए हर संभव उपाय किए। इन लगभग 200 वर्षों में साम्राज्यवादी तथा उपनिवेशवादी ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ों को निर्मूल करने के लिए प्रयास निरंतर किया गया। ऐसा कहा जाता है कि अगर किसी देश को पूरी तरह से जीतना है तो वहां के नागरिकों के सामाजिक और सांस्कृतिक मनोविज्ञान को बदलना होगा। अंग्रेजों ने भारत में अपने साम्राज्य को स्थाई बनाने के लिए भारत में तत्कालीन प्रचलित शिक्षा प्रणाली को बदल दिया। 1835 के मैकाले मिनट्स की अनुपालना में लागू की गई शिक्षा प्रणाली भारतीय समाज की अनुकूल नहीं थी, क्योंकि इसने तात्कालिक समाज को राष्ट्रीय चेतना की जड़ों से काट दिया।
स्वतंत्रता अथवा स्वतंत्र शब्द अत्यंत व्यापक शब्द है जहां आजादी शब्द एक सामान्य अर्थ का द्योतक है वही स्वतंत्र शब्द आजादी से अगले चरण का अनुभव करने वाला शब्द है क्योंकि आजादी का सामान्य अर्थ हुआ कि हमने किसी बंधन से मुक्ति पा ली जैसे कि 1947 में भारत ने ब्रिटिश साम्राज्य से। लेकिन स्वतंत्र शब्द का अर्थ इसलिए व्यापक है कि इसमें हमने ‘स्व’ अर्थात अपने तंत्र की स्थापना का उद्देश्य भी सम्मिलित है जो कि राजनीतिक मुक्ति से आगे की बात है और साथ ही साथ यह अत्यंत महत्वपूर्ण और अपेक्षित है।
जब हम ‘स्वतंत्र’ की बात करते हैं तो शिक्षा के संदर्भ में स्वतंत्र शब्द का अर्थ होना चाहिए था कि “अपनी संस्कृति, अपने विचार, अपनी आवश्यकता, अपने समाज, और अपनी जनसंख्या के अनुसार अपनी शिक्षा प्रणाली का तंत्र खड़ा करना”, अर्थात “भारत की, भारतीयों द्वारा, भारतीय भाषा में तथा भारतीयों के लिए शिक्षा” व्यवस्था की स्थापना।
शिक्षा में ‘स्वतंत्र’ अर्थात भारतीय दृष्टि से, भारतीय वातावरण के अनुसार, भारतीय जनमानस के लिए भारतोपयोगी शिक्षा का तंत्र हम नहीं खड़ा कर पाए। हमने अंग्रेजों द्वारा प्रतिपादित शिक्षा प्रणाली का न केवल अनुसरण जारी रखा बल्कि आधुनिकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के नाम पर पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली को और अधिक समृद्ध और पालित-पोषित किया। यह विधि की विडम्बना ही कही जा सकती है कि मुग़ल शासन के बाद आए ब्रिटिश शासन ने पुरातन भारतीय शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त कर दिया। इस विध्वंस से पहले भारतीय शिक्षा के विकसित होने के प्रमाण १९३८ में पंडित सुन्दरलाल की प्रकाशित पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’, सईद नुरुल्ला तथा जे.पी. नायक की १९४३ में प्रकाशित पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ़ एजुकेशन इन इंडिया ड्यूरिंग द ब्रिटिश पीरियड’, एस. एम्. जाफ़र की १९३६ में प्रकाशित पुस्तक ‘एजुकेशन इन मुस्लिम इण्डिया’, विलियम एडम की ‘रिपोर्ट्स ऑन द स्टेट ऑफ़ एजुकेशन इन बंगाल (१८३५ व १८३८) आदि में देखे जा सकते हैं।
आजादी के बाद के कालखंड में हम इसका एक बड़ा कारण तो यह है तत्कालीन परिस्थितियों में राजनीतिक स्वतंत्रता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य था, और फिर लगभग ५६५ रियासतों और रजवाड़ों को एक भारत के रूप में आकार दे पाना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। इसके अलावा आर्थिक दृष्टि से भी भारत के समक्ष पुनर्निर्माण की एक बहुत बड़ी चुनौती हमारे सामने थी। प्रशासनिक दृष्टि से हम अंग्रेजी संसदीय प्रणाली को अपना चुके थे और शिक्षा के क्षेत्र में भी अंग्रेज बहुत अधिक परिवर्तन कर चुके थे। ब्रिटिश शासन ने प्राचीन शिक्षा प्रणाली से हमारे समाज को बिलकुल काट दिया था और स्वतन्त्रता संघर्ष में भाग लेने वाली पीढ़ी का एक बड़ा भाग तात्कालिक शिक्षा प्रणाली से जुड़ा हुआ था इसके अतिरिक्त कहीं ना कहीं अंग्रेजों की श्रेष्ठता और प्रभुत्व का हम भारतीयों पर अत्यधिक प्रभाव था जिसके कारण सम्भवत: हम भारतीय भी अधिक परिवर्तनों के आकांक्षी नहीं थे। ऐसे वातावरण में जहां राजनीतिक एकीकरण और आर्थिक पुनर्निर्माण का बहुत बड़ा लक्ष्य सामने हो ऐसे में शिक्षा व्यवस्था के परिष्कार पर उतना ध्यान नहीं दिया जा सका जितना दिया जाना चाहिए था।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शिक्षा के ‘स्वतंत्र’ की स्थापना के बारे में विचार अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। महात्मा गाँधी ने २० अक्तूबर १९३१ को लन्दन में रॉयल इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंटरनेशनल अफेयर्स’ में श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि पिछले पचास सौ वर्षों में भारत की शिक्षा और साक्षरता में जो कमी आई है उसके लिए ब्रिटिश सरकार जिम्मेदार है। महात्मा गाँधी भारत की परिस्थितियों और भारतीयों की आवश्यकताओं को भली भांति समझते थे। उनकी बुनियादी शिक्षा वास्तव में भारत के पुनर्निर्माण की प्रस्तावना थी जिसमें उन्होंने बल दिया कि विद्यार्थियों की मातृभाषा में शिक्षा हो, भारत की विशाल जनसंख्या को ध्यान में कहते हुए हस्त कौशल द्वारा प्रत्येक हाथ को काम अर्थात प्रत्येक भारतीय आत्म-निर्भर हो, श्रम की गरिमा की स्थापना हो। परन्तु यह विडम्बना ही कही जा सकती है कि उनकी राष्ट्र-निर्माण की व्यावहारिक और मूलभूत बात को हम भारतवासी ही भुला बैठे।
१९४७ के बाद शिक्षा के स्वतंत्र को खड़ा करने के कई प्रयास किये गये थे, जिन्हें विभिन्न शिक्षा नीतियों, शिक्षा आयोगों तथा समितियों के प्रतिवेदनों आदि के सन्दर्भ में देखा और समझा जा सकता है। परन्तु इनमें भी आधुनिकता, वैश्विक प्रतियोगिता, रोजगार के अंतरराष्ट्रीय अवसरों, अंग्रेजी भाषा की विश्व व्यापकता और स्वीकार्यता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने के नाम पर पाश्चात्य शिक्षा का अनुसरण और विकास ही जारी रखा गया। इस प्रकार हम भारतीय नागरिक, विकास तथा तथाकथित वैज्ञानिक शिक्षा के नाम पर भारत और भारतीय मूल्यों से दूर होते चले गए। हालांकि यह कहना अनुचित होगा कि शिक्षा के भारतीयकरण अथवा ‘स्वतंत्र’ विकसित करने के कोई प्रयास नहीं किए गए, कारण भले ही कुछ भी रहे हों, लेकिन जिस गति और इच्छा-शक्ति से ये किया जाना चाहिए था, वैसा किया नही जा सका।
रोजगार के क्षेत्र में, विद्यार्थी वर्ग के चरित्र निर्माण का महान लक्ष्य, प्रत्येक विद्यार्थी के व्यक्तित्व में नैतिक मूल्यों के समावेश, स्वदेशी शिक्षा और उत्पादन प्रणाली का अधिकाधिक प्रसार, मातृभाषा में शिक्षा की व्यवस्था, प्रत्येक हाथ को काम अर्थात सभी आत्म-निर्भर हों, सभी के पास कोई न कोई कौशल हो, मातृभाषा में सभी को शिक्षा मिले, अपने राष्ट्र, अतीत और संस्कृति के प्रति गौरव का भाव हो, समानता आधारित तथा भेदभाव रहित सर्व-समावेशी समाज का विकास हो। इस प्रकार भारत के देश, काल और वातावरण के आधार पर विद्यार्थी के समग्र विकास अर्थात उसके चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व विकास के साथ आदर्श और आत्म-निर्भर नागरिक के रूप में विकसित करने के ध्येय लेकर चलने वाली शिक्षा का विकास ही शिक्षा में ‘स्वतंत्र’ की स्थापना करना है।
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(लेखक विद्या भारती विद्वत परिषद के अखिल भारतीय संयोजक है एवं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र-हरियाणा में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर है।)