भारतीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन के लिए शिक्षा मातृभाषा में हो – 21 फरवरी मातृभाषा दिवस विशेष

-डॉ कुलदीप मेहंदीरत्ता

निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषा को मूल ।

                                  बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल ॥ — भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

भारतेंदु हरिश्चन्द्र जी की यह पंक्तियाँ हमें मातृभाषा का महत्व समझाने में पर्याप्त सामर्थ्य रखती हैं। लौकिक जीवन हो या आध्यात्मिक जीवन, जो समझ और भाव हम मातृभाषा में ग्रहण कर पाते हैं, वे किसी अन्य भाषा में सम्भव नहीं हो पाते। यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन) ने इक्कीस फरवरी को सम्पूर्ण विश्व के लिए ‘मातृभाषा दिवस’ घोषित किया है। यह मातृभाषा दिवस एक लम्बी, ऐतिहासिक और बलिदान की पृष्ठभूमि लिए हुए है।

भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान के दो भौगोलिक रूप दुनिया के सामने आए, जिनमें से एक को पश्चिमी पाकिस्तान और दूसरे को पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना गया। पूर्वी पाकिस्तान के हिस्से के लोग बांग्ला बोलते थे तो पश्चिमी पाकिस्तान के लोग पंजाबी मिश्रित उर्दू का प्रयोग करते थे।

पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने बांग्ला भाषी लोगों से सलाह किये बिना 1948 में उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया। भाषा का मुद्दा बड़ा भावनात्मक होता है इसीलिए पूर्वी पाकिस्तान में इसकी जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। वहां ‘आमार सोनार बांग्ला’ का गीत गाते लोगों ने बांग्ला भाषा को राजभाषा बनाने की मांग को लेकर जबर्दस्त आंदोलन छेड़ दिया। सुप्रसिद्ध ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों ने ‘राष्ट्रभाषा संग्राम परिषद’ का गठन कर 11 मार्च 1949 को ‘बांग्ला राष्ट्रभाषा दिवस’ मनाने की घोषणा कर दी। विद्यार्थियों द्वारा चलाया गया यह आन्दोलन तीन वर्ष बीतते- बीतते सामान्य जनमत द्वारा समर्थित आन्दोलन बन गयाऔर एक बड़े राजनीतिक आंदोलन की शक्ल में दुनिया के सामने आया। पाकिस्तान की सरकार के द्वारा निरंतर बांग्ला भाषियों की मांग को नजरंदाज किया जाता रहा।

21 फरवरी 1952 के दिन ढाका में कानून सभा की बैठक में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों को ज्ञापन देने का फैसला भाषा आंदोलनकारियों ने किया।जैसे ही ज्ञापन देने के ढाका विश्वविद्यालय के विद्यार्थी और आम जनता निकलकर राजपथ पर आये, पुलिस ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी जिसमें बहुत से लोग मारे गए। इस घटना के बाद पूर्वी पाकिस्तान के लोग ‘आमार भायेर रोक्तो रन्गानो एकुशे फरवरी, आमि की भूलते परइ’ (हमारे भाइयों के रक्त से रंगी इक्कीस फरवरी, क्या मैं इसे भूल सकता हूँ) का गीत गाते हुए हर वर्ष 21 फरवरी को ‘भाषा शोहीद दिबस’ के रूप में मनाने लगे। आख़िरकार बांग्ला भाषियों का संघर्ष रंग लाया और 1956 में बांग्ला भाषा को पाकिस्तान की सरकार ने पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा के रूप में शामिल कर लिया। मातृभाषा के प्रति बांग्ला भाषियों का यह उत्कट प्रेम ही आगे चलकर बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम बना और बांग्लादेश की स्थापना का मुख्य कारक बना। 1999 में बांग्लादेश के प्रस्ताव पर यूनेस्को ने वर्ष 2000 से इक्कीस फरवरी को सम्पूर्ण विश्व के लिए ‘मातृभाषा दिवस’ घोषित करने का निर्णय लिया।

मातृभाषा के अर्थ को लेकर कई विद्वानों द्वारा कई विचार प्रकट किये गये हैं, कुछ विद्वान माँ की भाषा को ही मातृभाषा के रूप में स्वीकार करते हैं। लेकिन यह भाव थोड़ा सा संकीर्ण प्रतीत होता है। सम्भवतः शिशुकाल और बाल्यकाल में बालक स्वाभाविक रूप से माता के ज्यादा निकट होता है, माता को पहला गुरु भी कहा जाता है और भाषा का प्रारम्भिक ज्ञान भी माता से ही बालक ग्रहण करता है तो इसीलिए मातृभाषा का ऐसा अर्थ विकसित हुआ। परन्तु वास्तव में मातृभाषा का अर्थ, विषय-क्षेत्र और महत्त्व अत्यंत व्यापक है। मातृभाषा में ‘मातृ’ शब्द का अर्थ एक विशिष्ट स्थान, समाज, परिवेश तथा समूह में बोली जाने वाली भाषा से है जिसे व्यक्ति जन्म से ही प्रयोग करता है। जीवन के सभी प्रकार के संस्कार प्राप्त करने और सामाजिक व्यवहार सीखने के अवसर शिशुकाल अथवा बाल्यकाल में मातृभाषा से ही प्राप्त होते हैं।


मातृभाषा में शिक्षण को विश्व के प्राय: सभी समाजों में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है क्योंकि बालक के घर, परिवार, मित्र-मंडली और आस-पास के सामाजिक परिवेश में मातृभाषा का प्रयोग किया जाता है। बालक का विकास जिस भाषा के सान्निध्य में होता है स्वाभाविक रूप से उसी भाषा में ज्ञान-प्राप्ति आसानी से होती है। गाँधी जी मातृभाषा में शिक्षण के प्रति बहुत आग्रही थे। उल्लेखनीय है कि गांधी जी स्वयं अंग्रेजी भाषा के बहुत अच्छे ज्ञाता तथा प्रखर वक्ता थे। उनके बारे में प्रचलित है कि किसी अंग्रेज विद्वान ने कहा था कि भारत में केवल डेढ़ व्यक्ति ही अंग्रेजी जानते हैं और वे हैं एक महात्मा गांधी और आधे जिन्ना। इस स्तर की अंग्रेजी जाननेवाले महात्मा गाँधी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा की ‘वर्धा योजना’ में मातृभाषा में शिक्षा को अत्यंत महत्त्व दिया। विडम्बना है कि गाँधी के देश ने ही गाँधी की अनदेखी की।

गाँधी जी के द्वारा 29 अक्तूबर, 1917 में भरूच में आयोजित दूसरी गुजरात शिक्षा-परिषद् के अध्यक्ष-पद से दिए गए भाषण को उद्धृत करना आवश्यक है। उन्होंने कहा कि ‘पिछले 60 वर्षों से हमारी सारी शक्ति ज्ञानोपार्जन के बजाय अपरिचित शब्द और उनके उच्चारण सीखने में खर्च हो रही है।…यह हमारे राष्ट्र की एक अत्यंत दु:ख पूर्ण घटना है। हमारी पहली और बड़ी-से-बड़ी समाज सेवा यह होगी कि हम अपनी प्रांतीय भाषाओं का उपयोग शुरू करें, हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में उसका स्वााभाविक स्थान दें, प्रांतीय कामकाज प्रांतीय भाषाओं में करें और राष्ट्रीय कामकाज हिंदी में करे। जब तक हमारे स्कूल और कॉलेज प्रांतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षण देना शुरू नहीं करते, तब तक हमें इस दिशा में लगातार कोशिश करनी चाहिए’। गाँधी जी की मातृभाषा सम्बन्धी तथा भारतीय भाषाओँ  के आपसी विवाद सुलझाने सम्बन्धी दूर-दृष्टि का यह अतुलनीय उदाहरण है।

आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली में मातृभाषा की अवहेलना कर अंग्रेजी भाषा में शिक्षा का एक ऐसा मायाजाल बुन दिया गया कि जैसे अंग्रेजी न जानने वाले बालक तो बहुत पिछड़े हुए हैं या अर्ध-विकसित प्रकार के हैं। मातृभाषा का पर्याप्त व्यवहार न करना गरीब-अमीर तथा ग्रामीण-शहरी बालकों में दूरियां बढ़ाने कार्य भी करता है। गाँव-देहात का बालक या गरीब बालक जो सब कुछ अपनी मातृभाषा में सीखता है या जानता है, स्वयं को शहरी अथवा अमीर परिवार के बालक के समक्ष कमतर समझने लगता है। शिक्षा क्षेत्र में हमारा सामना कई बार ऐसी परिस्थितियों से होता है जहाँ हम यह देखते हैं पर्याप्त योग्यता होते हुए भी कई बालक अंग्रेजी न आने की वजह से हीनता के शिकार होते हैं और जीवन में पिछड़ जाते हैं। किसी भी देश के लिए यह स्वीकार्य स्थिति नहीं है। भाषा के तौर पर अंग्रेजी सीखनी चाहिए परन्तु मातृभाषा की कीमत पर नहीं।

यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि मातृभाषा का अर्थ किसी अन्य भाषा का विरोध नहीँ है, बल्कि अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने का, अपनी मातृभाषा को संजोने का, विकास का आग्रह है क्योंकि मातृभाषा केवल प्रयोग का उपकरण नहीं है, यह शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता, संस्कार और मातृभूमि से प्रेम की वाहिका है। अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस को मनाने का उद्देश्य है विभिन्न समाजों और समुदायों की भाषाओं और भाषाई विविधता को बढ़ावा देना। इक्कीस फरवरी का दिन हमें संकल्प लेने की प्रेरणा देता है कि हम सब अंग्रेजी के दुष्प्रभावों से मुक्त होकर अपनी भारतीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन के लिए आने वाली पीढ़ियों की शिक्षा मातृभाषा में दी जानी सुनिश्चित करें।

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