– गोपाल माहेश्वरी
कल्पना भी आज उसकी है भला संभव कहीं,
यातना यमयातना से बढ़ शहीदों ने सही।
“कितने साल के हो?” अंग्रेज़ न्यायाधीश क्रूर व्यंग्यात्मक स्वर में पूछ रहा था।
“चौदह साल का।” संक्षिप्त पर निर्भीक उत्तर मिला।
“तो तुम्हें चौदह साल की ही कालेपानी की सजा दी जाती है।” फिर वह पुलिस की ओर देख कर बोला “इस खतरनाक बच्चे को अण्डमान भेज दिया जाए।”
अपराधी बताया जा रहा था बंगाली बालक ननी गोपाल और अपराध था उस दुष्ट अंग्रेज़ अधिकारी को मारने का प्रयत्न, जिसने समूचे क्षेत्र में निर्दोष जनता और राष्ट्रभक्तों पर अपने अत्याचारों से आतंक मचा रखा था। वह निर्दोषों को भी अपने नियमों की आड़ में ऐसे शिकार बनाता मानों पागल श्वान खरगोशों को दबोचता हो लेकिन हर नागरिक खरगोश नहीं होता, इस भूमि पर सिंह के शावक भी विचरते हैं।
जब ननी गोपाल ने निश्चय प्रकट किया कि वह उस अंग्रेज़ को यमलोक पहुँचाएगा तो उसकी छोटी अवस्था देख किसी ने उसकी बात को गंभीरता से नहीं लिया था, पर जब उस सतर्क और सुरक्षित रहकर अत्याचार करने वाले अंग्रेज़ पर अनेक प्राणघातक आक्रमण होने लगे तो क्रांतिकारी भी सुखद आश्चर्य में थे। आश्चर्य तो यह था कि वार भले असफल हुए पर उन्हें करने वाला कभी पकड़ा न जा सका। सब इस परमसाहसी और चतुर देशभक्त के प्रशंसक बन चुके थे। लेकिन एक ओर सतर्क गुप्तचरों और सैनिकों की फौज, दूसरी ओर एक बच्चा। अन्ततः एक और प्रयास करते हुए उसे बन्दी बना ही लिया गया। पूछने पर बन्दी जज से कह रहा था “हाँ, मैं उसे (अंग्रेज़ अधिकारी को) मार डालना चाहता हूँ कि उसके आतंक से मुक्ति मिले। आप जो चाहे दण्ड दीजिए।” इतने छोटे बच्चे को ऐसा कठोर कारावास नियम विरुद्ध था पर न्यायाधीश ही अन्याय करे तो कौन बचा सकता है?
कुख्यात सेल्यूलर जेल, अण्डमान या कालापानी। क्रान्तिकारियों के लिए अंग्रेज़ों द्वारा धरती पर रचा साक्षात् नरक ही था जिसके बन्दी राक्षसों की भाँति ऐसी-ऐसी यमदूतों द्वारा दी जाने वाली यातनाओं के तुल्य अत्याचारों के मानो विशेषज्ञ ही हो, नरपिशाच जेलर बारी के कारण अत्यन्त बदनाम था।
डण्डा-बेड़ी, कोल्हू में जोतना, नारियल की जटाएँ कूट कर रस्सी बनाना और पशुओं के भी गले न उतरे ऐसा भोजन। नाली के कीड़े भी न स्वीकारें, ऐसी गन्दी आवास व्यवस्था और उल्लुओं को भी बेचैन कर दे, ऐसा एकांत। ये सब वज्र जैसे मजबूत तन-मन के लोगों को भी दहला देने वाले बारी के हथकण्डे थे।
ननी था तो बच्चा ही पर सिंह का बच्चा। उसने कोल्हू में जुतने से इंकार किया तो चिढ़े हुए बारी ने डण्डा-बेड़ी की सजा दे दी। ननी गोपाल को जेलर ने अपने कपड़े धोने का काम दिया। उत्तर मिला “मैं चोर नहीं, लुटेरा नहीं अपनी मातृभूमि का लाडला बेटा हूँ, मैं यह काम नहीं करुँगा।” बारी ने ननी गोपाल के सारे कपड़े उतरवाकर उसे लज्जित करने का आदेश दिया। ननी गोपाल बोला “मैं अब कपड़े पहनूँगा ही नहीं।” बारी ने जबरदस्ती उसे टाट का कुर्ता पहना दिया। उसने अंगुलियों से नोच-नोच कर फाड़ दिया। अगली बार फिर वैसा ही कुर्ता पहनाया और हाथों में हथकड़ियाँ डाल दीं कि वह उसे फाड़ न सके। अगले दिन कुर्ता टुकड़े-टुकड़े, हथकड़ियाँ टूटी हुईं और ननी गोपाल एक कोने में अवधूत दिगम्बर अवस्था में। बारी आगबबूला। ऐसा कैदी उसे कभी न मिला था। उसने उसे अकेले रहने की सजा दी। उस कोठरी में मनुष्य तो क्या कोई पंछी तक न दिखता। कैदी भी निराला था। उसने कहा, “अब मुझे इस कोठरी से बाहर ही नहीं आना। सारे-सारे दिन और रात मौन, एकांत सहना इतना कठिन होता है कि आदमी पागल हो सकता है पर ननी गोपाल तो मानो महात्माओं जैसा धीरज लेकर आया था।
बारी क्रूरतम हो गया। उस बच्चे को समुद्र के खारे पानी से भरी टंकी में डाला गया, घाव-घाव असह्य पीड़ा देने लगा। उस पर उसके नंगे शरीर पर नारियल की जटाओं से ऐसे रगड़ा गया जैसे मैल छुड़ाने के लिए कपड़ों को ब्रश से रगड़ते हैं। उस पर खारा पानी मृत्यु जैसा भयानक कष्ट देता पर ननी गोपाल तो मानो देह का आभास ही त्याग चुका था।
अन्तिम समय में उसे सजा मिली एक भुतहा खण्डहर जैसी पुरानी जेल में रहने की। न कोई मनुष्य दिखता न प्रकाश की किरण। जंगली मच्छर प्रतिपल खून चूसते, शरीर सूज जाता। जहरीले सांप और कीड़े चारों ओर रेंगते रहते। रात-दिन समुद्र की लहरों का भीषण कर्कश शोर, ऐसे में ननी गोपाल ने आमरण अनशन का व्रत ले लिया। केवल हड्डियाँ बाकी रहीं। देह अत्यन्त दुर्बल, पर मन में कोई पश्चाताप नहीं, कोई दीनता नहीं। मन तो अपनी भारतमाता को समर्पित हो चुका था, उसका रहा ही कहाँ था? हाँ, देह अवश्य अब साथ नहीं निभा पा रही थी।
दो माह ऐसी अवस्था में बीते। फिर 1916 की अक्तूबर की किसी तारीख को वह यह देह छोड़ अपनी भारतमाता की सेवा के लिए फिर से जन्म लेने इस संसार से विदा हो गया।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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हर नागरिक खरगोश नहीं होता, इस भूमि पर सिंह के शावक भी विचरते हैं।