क्रांतिकारी विचारों के जनक विपिन चंद्र पाल

 – चन्द्रभूषण त्रिवेदी

भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में ‘लाल-बाल-पाल’ प्रसिद्ध हैं। इनमें से विपिन चन्द्र पाल एक वीर स्वतंत्रता सेनानी के साथ साथ एक शिक्षक, वक्ता, समाज सुधारक, लेखक और पत्रकार भी थे। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में इनका प्रभावशाली योगदान रहा। इन्हें भारत में क्रांतिकारी विचारों का जनक माना जाता है।

विपिन चन्द्र पाल का जन्म 7 नवंबर 1858 को अविभाजित भारत के हबीबगंज जिले में ‘पोइल’ नामक गाँव में एक सम्पन्न घर में हुआ था। उनके पिता रामचन्द्र पाल एक पारसी विद्वान और छोटे जमींदार थे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा ‘चर्च मिशन सोसाइटी कॉलेज’ (अब सेंट पौल्स कैथेड्रल मिशन कॉलेज) में हुई।

बहुत ही कम उम्र में विपिन चन्द्र पाल ने ब्रह्म समाज में प्रवेश किया। 1876 में शिवनाथ शास्त्री ने पाल को ब्रह्म समाज की दीक्षा दी। मूर्ति पूजा को न मानने वाले समाज में शामिल होकर उन्होंने सामाजिक बुराइयाँ और रुढ़िवादी परम्पराओं के खिलाफ विरोध किया। उन्होंने छोटी उम्र में ही जाति के आधार पर होने वाले भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाई। अपने से ऊँची जाति वाली विधवा से विवाह किया जिसके कारण उन्हें अपने परिवार से रिश्ता तोड़ना पड़ा।

Its stand point is intensely national is spirit, breathy deepest veneration for the spiritual, moral and intellectual achievements of Indian civilization and distinctly universal in aspiration.

विपिन्न चन्द्र पाल ने अध्यापन का कार्य करते हुए कटक, म्हैसुर और सिल्हेट में शिक्षक की नौकरी की। उनका मानना था कि भारतीय समाज की प्रगति शिक्षा के माध्यम से ही संभव होगी। सन् 1886 में वे कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। सन् 1887 में कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज सरकार द्वारा लागू किए गए ‘शस्त्र अधिनियम’ को तत्काल हटाने की मांग की। शस्त्र बंदी कानून के विरुद्ध में उनके द्वारा दिया गया भाषण उत्तेजना पूर्ण तथा प्रेरक रहा।

1887-1888 में उन्होंने लाहौर से प्रकाशित ‘ट्रिब्यून’ पत्रिका का संपादन किया। सन् 1900 में विपिन चन्द्र पाल पाश्चात्य और भारतीय तत्व ज्ञान का तुलनात्मक अभ्यास करने के लिए इंग्लैण्ड गये। वहाँ पर उन्होंने ‘स्वराज्य’ नामक मासिक पत्र निकाला। 1905 में इंग्लैण्ड से कलकत्ता आने के बाद उन्होंने ‘न्यु इंडिया’ नामक एक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्र निकाला।

1905 में लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया। लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय भी इनके साथ विरोध में शामिल हो गए। ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध पुरे देश में आन्दोलन शुरू हुए। और इस क्रान्ति में ‘लाल-बाल-पाल’ का उदय हुआ। 1906 में उन्होंने ‘अनुशीलन समिति’ की स्थापना की। उन्होंने महसूस किया कि विदेशी उत्पादों की वजह से देश की अर्थव्यवस्था बेहाल हो रही है। यहाँ तक कि लोगों का काम-काज भी छिन रहा है। अत: अपने आन्दोलन में उन्होंने इस विचार को सामने रखा। वे क्रांतिकारी विचार धारा ‘इंडिया हॉउस’ से जुड़ गए। उन्होंने एक मुक़दमे में अरविन्द घोष के विरुद्ध गवाही देने से इनकार कर दिया।

ब्रिटिश सरकार के खिलाफ संयोजित तथा संगठित रूप से विरोध करने वाले प्रथम आन्दोलनकारी विपिन चन्द्र पाल ही थे। ‘स्वदेशी आन्दोलन’ और ‘बायकाट आन्दोलन’ की पहली वर्षगांठ में पाल ने सिर्फ 500 रुपये से एक अंग्रेजी पत्रिका ‘वंदेमातरम्’का उद्धघाटन किया। 1907 में इस ‘वन्देमातरम’ पत्र के माध्यम से अंग्रेजी विरोधी जनमत तैयार करने पर उनके विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उन्हें कारावास दिया गया। वहाँ से मुक्त होते ही उन्होंने अपना आन्दोलन और तेज कर दिया।

1908 में विपिन चन्द्र पाल ने इंग्लैण्ड से ‘स्वराज्य’ पत्रिका निकाली, इस पर प्रतिबन्ध लगने पर वे भारत लौट आए। यहाँ आते ही उन्होंने ‘हिन्दू रिव्यू’ नामक पत्र प्रारम्भ किया। वे ब्रिटिश सरकार के आगे गिड़गिड़ाने में विश्वास नहीं रखते थे। 1909 में कर्जन वाइली की हत्या कर दिए जाने के कारण उनकी इस पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया। इस समय लंदन में उन्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। इस घटना के बाद वह उग्र विचार धारा से अलग हो गए और स्वतंत्र देशों के संघ की परिकल्पना पेश की।

उन्होंने कई अवसरों पर महात्मा गाँधी जैसे नेताओं की आलोचना भी की और उनके विचारों का विरोध भी किया। सन् 1921 में गांधी जी की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा था- “आप के विचार तार्किक नहीं बल्कि जादू पर आधारित है”।

श्री विपिन चन्द्र पाल राष्ट्रीयता के प्रबल पक्षधर थे। निर्भीकता उनके विचारों की शक्ति थी। वे कहते थे- “दासता मानवीय आत्मा के विरुद्ध है। ईश्वर ने सभी प्राणियों को स्वतंत्र बनाया है”

वे प्राचीन भारतीय गौरव के समर्थक थे। ब्रह्म समाज के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने भी विधवा विवाह का समर्थन किया। स्वयं विधवा से विवाह कर एक आदर्श प्रस्तुत किया। वे जाति वर्ग, धर्म, सम्प्रदाय से विहीन समाज की कल्पना करते थे। वे एक ऐसा समाज का सपना देखते थे जहाँ समस्त नागरिकों को समान अधिकार और सुविधाएँ हो। उनके विचारों से भारतीय आन्दोलनकारी तथा समाज सुधारकों को एक नई दिशा मिली। उन्होंने भारतीय जन मानस में जागरूकता और राष्ट्रवाद स्थापित किया। उन्होंने अपनी प्रमुख पुस्तकें ‘राष्ट्रीयता और साम्राज्य’, ‘भारतीय राष्ट्रवाद, ‘स्वराज और वर्तमान स्थिति’, ‘भारत की आत्मा’, ‘सामाजिक सुधार का आधार’, ‘हिन्दू धर्म’, और ‘नई आत्मा’ द्वारा स्वराज्य और देशभक्ति की जागरूकता फैलाने की प्रयास किया। अपने जीवन के अंतिम दस वर्षों के दौरान विपिन चन्द्र पाल ने स्वयं को कांग्रेस से अलग कर लिया और एकांकी जीवन व्यतीत किया। 20 मई 1932 को उनका निधन हो गया।

(लेखक सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य है और विवेकानन्द विद्या विकास परिषद, दक्षिण बंगाल के कार्यकारिणी सदस्य है।)

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