– दिलीप वसंत बेतकेकर
औद्योगिक क्रांति के पश्चात जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अत्यधिक परिवर्तन हुए। परिवार प्रबन्धन भी अपवाद नहीं रहा। अनेक देशों में तो परिवार संस्था ध्वस्त हो रही है। भारत में भी परिवार प्रबन्ध पर विपरीत प्रभाव दृष्टिगोचर हो रहा है। हमारी प्राचीन संयुक्त परिवार की पद्धति धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। इसका स्थान अब एकल परिवार पद्धति ले रही है।
बदलती सामाजिक, आर्थिक परिस्थिति के साथ अनेक परिवर्तन होना स्वाभाविक है, वे होते ही रहेंगे। इनसे परेशान होना बेमतलब! किन्तु मूल आधार बरकरार रहे ये सावधानी रखना आवश्यक है। आत्मा ही न रही तो शेष शरीर किस काम का? बाह्य रूप में परिवर्तन होते हुए भी यदि मूल शाश्वत रूप को तो हम भुला नहीं रहे हैं, इस बात को ध्यान में रखें तो अधिक नुकसान न होगा।
परिवार के बारे में भी ऐसा ही है। कुछ बाह्य परिवर्तन तो होना ही है। किन्तु परिवार का मूल अंतरंग परिवर्तित न हो! वर्तमान परिस्थितियों में तो पाया ही उखड़ रहा है, ऐसी स्थिति निर्मित हुई है। जीवन स्वकेन्द्रित हो चला है। प्रातः से रात्रि तक आपाधापी युक्त जीवन में हम स्वयं एवं पत्नी-बच्चों के छोटे से पेट की भूख मिटा दें, यही एकमात्र उद्देश्य रहता है। इस हेतु कुछ भी करने को तैयार!
जन्म से मृत्यु तक प्रत्येक व्यक्ति हर पल समाज पर निर्भर रहता है। समाज के कारण ही हमारा जीवन सुखमय होता है। हमारे सुख-दुःख में हमारे पड़ोसी, स्वजन भी सहभागी होते हैं, इस बात को हम भूलते जा रहे है। समाज की ओर से हमें बहुत कुछ प्राप्त होता है, ये हम भूल रहे हैं –
देने वाला देता रहे, लेने वाला लेता रहे,
लेते-लेते एक दिन हाथ ही उसका ले लें..
ये कहां तक उचित है? समाज की ओर से हम बहुत कुछ ले रहे हैं, किन्तु लेने के साथ हमें भी कुछ देना आवश्यक नहीं क्या? कृतज्ञता का भाव नष्ट होने का अर्थ है मानवता का अंत। यह कृतज्ञता की भावना परिवार के प्रत्येक सदस्य में रहे तो अनेक प्रश्न आसानी से हल हो सकेंगे। यह जागृति निर्मित करना परिवार के वरिष्ठजनों की जिम्मेदारी है।
“तुम अपना देखो, दूसरों की चिंता क्यों करते हो?” इस प्रकार के वाक्य जिस परिवार में सदैव सुनाई पड़ते हों, उस परिवार के बच्चे दूसरों के सुख-दुःख में कभी सहभागी नहीं हो सकते। इतना ही नहीं, वे बड़े होकर आत्म-केन्द्रित हो जाते हैं, स्वार्थी बन जाते हैं कि अपने जन्मदाता माता-पिता को भी भूल जाते हैं। उनका अनादर करते हैं। कहावत है न – “जैसा बोओगे वैसा काटोगे”! आत्मकेन्द्रित विचारों का रोपण करने पर इसमें लगने वाले फल भी स्वार्थ के अतिरिक्त कैसे होंगे?
दादा धर्माधिकारी के अनुसार, “जो परिवार केवल स्वयंकेन्द्रित रहता है, उसे समाज में मान्यता नहीं मिलती है। ऐसा परिवार सेवाभावी नहीं हो सकता। किन्तु जिस परिवार का सेवाभाव परिवार के बाहर भी होता है, ग्रामव्यापी होता है, उसका सामर्थ्य और गौरव बढ़ जाता है। परिवार हित और समाजहित ये दोनों परस्पर विरोधी नहीं हैं, वरन् परस्पर पूरक हैं। परिवार अच्छा होगा तो समाज निर्दोष होगा और समाज हित को ध्यान में रखकर कार्य करें तो स्वाभाविकतः उसका लाभ परिवार को मिलेगा ही”।
गृहस्थाश्रम अथवा गृहस्थधर्म क्या है? जिसे अपने परिवार का समन्वय समाज के साथ करना आ गया, वही उत्तम गृहस्थ। जिसे समाज ऋण का ध्यान है, उसे उस ऋणमुक्ति के लिये प्रयासरत होना चाहिये –
अपना ही नहीं देश का, सब पर भार रहे,
हर व्यक्ति क्या समझे इसको व्याकुल हूँ मैं इसीलिये
व्यक्तिगत और परिवार के सुखों के लिये हर व्यक्ति जितनी आपाधापी करता है, उसका एक प्रतिशत भी यदि समाज के सुख के लिये कर सकें तो लाभकारी होगा। सेनापति बापट इसलिये व्याकुल हैं कि ऐसा नहीं हो रहा है। सेनापति बापट ने बम्ब भी प्रयोग किया और गांव को स्वच्छ करने के लिये हाथ में झाडू भी उठाई। स्वच्छता अभियान चलाते समय उन्हें अत्यंत कटु अनुभव प्राप्त हुए समाज की ओर से!
संस्कृति का संरक्षण, संवधर्न और इसे आने वाली पीढ़ियों को अग्रेषित करना, ये महत्वपूर्ण कार्य परिवार संस्था पर होता है। जो धरोहर हमें प्राप्त है उसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी हम पर है। व्यक्ति कुछ ही समय के लिये रहता है किन्तु समाज निरंतर, इसीलिये मानव को केवल स्वयं के पेट की खातिर पूरा जीवन काटने का उद्देश्य नहीं रखना चाहिये। संत बहिणाबाई के अनुसार- (मराठी में)
नको लागू जीवा सदा मतलबा साठी,
हिरीताचं देणं घेणं नाहीं पोटासाठी।
अर्थात्, हे जीव आत्मा, अपने स्वार्थों में ही लिप्त न रह। तेरे सारे क्रियाकलाप केवल पेट भरने मात्र के लिये ही नहीं।
माता-पिता को चाहिये कि वे अपने व्यवहार से, अपने आचरण से, समाज ऋण का विचार अपने बच्चों में संक्रमित करें। इस हेतु छोटे-बड़े प्रयास घर से ही प्रारंभ होने चाहिये। अपने बच्चे समाजाभिमुख कैसे हों, कृतज्ञ कैसे बने, ये देखना आवश्यक है –
जो अपने ही सुख-दुःख में रहता मगन
उसकी क्या गिनती करें, उसका क्या मंथन?
जो अपने ही सुख-दुःख में मगन रहता है, उसे उस समय अच्छा लगता हो, परन्तु कालांतर में उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे, इसका ध्यान पालकों को रखना आवश्यक है अन्यथा बच्चें भी पालकों के बुढ़ापे में उनका ध्यान रखना आवश्यक नहीं समझेंगे।
आज राजनैतिक दृष्टि से हम स्वतंत्र हैं परन्तु सांस्कृतिक हमले निरंतर हैं और उसे रोकने की क्षमता व जिम्मेदारी प्रत्येक परिवार पर है। हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं, ऐसा शोर सभी मचाते हैं। पाश्चात्य संस्कृति के पंजे में सभी युवा फंसते जा रहे हैं, ऐसी व्यथा सभी व्यक्त करते हैं। अंधानुकरण से बहुत बड़ी हानि हम अनुभव कर रहे हैं। किन्तु उसे रोकने के लिये केवल संस्कारों की बात पर निर्भर रहना उचित नहीं होगा। परिवारों को सतर्क होना होगा, क्रियाशील होना होगा। परिवारों को अपनी जिम्मेवारी समझना आवश्यक है। इसी से परिवार का हित और सुख जुड़ा हुआ है। यह किसी पर एहसान नहीं है।
अपनी संस्कृति में व्यक्ति, परिवार, राष्ट्र, विश्व और संपूर्ण सृष्टि के मध्य एक सुंदर समन्वय रखा गया है। क्या हम जागृत होंगे?
(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)
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