डॉ० भीमराव अम्बेडकर का शैक्षिक दृष्टिकोण – 14 अप्रैल जन्मदिवस विशेष

-डॉ प्रीतम सिंह

दुनिया की अनेक विद्वानों ने शिक्षा की व्यापक संकपना को अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। शिक्षा को ज्ञान का तीसरा नेत्र भी कहा है – ‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात् विद्या ऐसी हो जो मुक्ति के द्वार खोल दे। शिक्षा व्यक्ति के आन्तरिक और बाहरी गुणों को विकास कर उसे नर से नारायण बनने की दिशा की ओर अग्रसर करती है। प्रतिभाओं को शिक्षा के दम पर ही निखारा जा सकता है। बाबा साहब भीमराव अम्बेडर ने कहा कि शिक्षा शेरनी का वह दूध है जो पियेगा वही दहाड़ेगा और उन्होंने शिक्षा को सामाजिक समरसता व व्यक्ति में सात्विक गुणों का विकास करने वाली बताया।

बाबा साहब ने अपने भाषणों में, पुस्तकों व लेखों में यह स्वीकार किया है कि शिक्षा व्यक्ति का बौद्धिक विकास करती है, इस कारण उन्होंने शिक्षा की प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से व उसके उद्देश्यों की व्यापक चर्चा भी की है। उन्होंने शिक्षा के उद्देश्यों की चर्चा में कहा कि व्यक्ति निर्माण में शिक्षा का अमूल्य योगदान होना चाहिए। समाज के लिए संस्कारित व चरित्रवान सद्गुणयुक्त, सज्जन व्यक्ति

यों की परम आवश्यकता रहती है क्योंकि संस्कारवान व चरित्रवान व्यक्ति ही सबल समाज का निर्माण कर सकेगा। बाबा साहब के अनुसार विभिन्न वर्गों में बटे समाज में शिक्षा के माध्यम से सामाजिक समरसता व लोक तांत्रिक मूल्यों का संरक्षण संभव है। यदि समाज में समरसता व जीवन मूल्यों का संरक्षण नहीं होगा तो हम आदर्श समाज की स्थापना नहीं कर सकेंगे।

बाबा साहब प्रचलित शिक्षा व शिक्षण पद्धति को बदलना चाहते थे। उनका मानना था कि समरसता निर्माण करने वाली व लोकतान्त्रिक मूल्यों की भावना का विकास करने वाली शिक्षा व पाठ्यक्रम ही पढ़ाया जाना चाहिए। उनका ये दृढ़मत था कि समाज में ऐसी शिक्षा व्यवस्था होनी चाहये जिसकी समय के अनुकूल आवश्यकता है। वे मानते थे की शिक्षा का माध्यम मातृभाषा में होना चाहिए, जिससे बालक में रुचि से पढ़ने का स्वभाव निर्माण हो। विदेशी भाषा में पढ़ने वाले व्यक्ति का समुचित विकास हो पायेगा, ऐसी उनके मन में शंका थी।

परिवर्तन का केंद्र विद्यालय : बाबा साहब पाठशाला को एक सजीव सामाजिक संस्था मानते थे। विद्यालयों के सम्बन्ध में बाबा का ऐसा विचार था कि विद्यालय समाज को नया रूप देने वाले तथा समाज परिवर्तन के केंद्र के रूप में विद्यालय की एक बढ़ी भूमिका है। इसलिए वे विद्यालयों के प्रचलित स्वरूप से भी संतुष्ट नहीं थे और वे विद्यालयों के स्वरूप को भी बदलने के पक्षधर थे। उनका मनना था कि प्रचलित शिक्षा, शिक्षण पद्धति और विद्यालयी व्यवस्थाएं बालकों में सामाजिक समरसता व लोकतान्त्रिक जीवन मूल्यों का निर्माण करने में समर्थ नहीं है। वे कहा करते थे कि फैक्टरी में काम करने वाले जितने लोग सक्षम व योग्य होंगे वहां से निर्माण होने वाला सामान भी उतना ही अच्छा होगा अत: विद्यालय का वातावरण व वहां के शिक्षक जितने योग्य होंगे उसी अनुपात में वहां से शिक्षा ग्रहण करके निकलने वाले छात्र भी उतने ही समर्थ व योग्य होंगे। बाबा साहब विद्यालय को समाज का एकलघुरूप मानते थे इसलिए वे सामूहिक शिक्षा पद्धति का आग्रह करते थे। उन्होंने अपने छात्र जीवन में इस बात को महसूस किया था कि सामूहिक शिक्षा पद्धति से समाज में प्रचलित अनेक कुप्रथाओं और अवधारणाओ को समाप्त किया जा सकता है।

शिक्षक राष्ट्र निर्माता : बाबा साहब ने शिक्षक को राष्ट्रनिर्माता कहा है। वे शिक्षक को राष्ट्ररुपी रथ का एक योग्य सारथि मानते है। शिक्षक के सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि शिक्षक ज्ञान पिपासु, अनुसंधान करने वाला व आत्मविश्वासी होना चाहिए। वे मानते थे कि व्यक्ति का उन्नयन या उद्धार तभी संभव है जब उसकी शिक्षा में किसी योग्य व संस्कारवान शिक्षक का योगदान रहा हो। उनकी दृष्टि में शिक्षक अपने विषय का पूर्णज्ञाता होना चाहिए, पूर्वाग्रहों से ग्रस्त अवगुण शिक्षक को उसके स्तर से गिरा देता है। पूर्वाग्रह वाला शिक्षक अपने छात्र व सहयोगी शिक्षकों के साथ निष्पक्षतापूर्ण व्यवहार नहीं करेगा। शिक्षक शीलवान व नैतिक गुणों से संपन्न होना चाहिए।

बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर जी भारत के शिल्पकार के साथ-साथ वे एक महान शिक्षक भी थे। उनका मानना था कि शिक्षा से ही ज्ञान का ताला खुलता है और इसलिए उन्होंने अपने समाज को शिक्षित होने के लिए आह्वान किया। उन्होंने अपने समाज में स्वाभिमान और चेतना निर्माण करने के लिए शिक्षा पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान देने के लिए बल दिया। वे एक दूरदर्शी शिक्षक की  भांति विचार करते थे कि बालक-बालिकाओं की शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाए ताकि आने वाले अच्छे समाज का निर्माण हो सके। इसी के साथ-साथ वे यह भी स्वीकारते थे कि अच्छी शिक्षा केवल जीवन निर्वाह के लिए ही नहीं अपितु सामाजिक क्रांति का एक प्रमुख माध्यम भी मानते थे। शिक्षा के बिना कोई भी समाज आगे नहीं बढ़ सकता। अंधविश्वासों से मुक्ति, अज्ञानता, अन्य्याय और शोषण के विरूद्ध ललकारने की ताकत भी शिक्षा से ही संभव है। बाबा साहब ने दुनिया के अनेक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से शिक्षा ग्रहण की जिससे उन्हें एक स्वाभिमानी व्यक्तित्व बनने का अवसर प्राप्त हो सका।

जैसे मनुष्य को पेट भरने के लिए अन्न की आवश्यकता होती है ठीक वैसी ही ज्ञान अर्जन के लिए शिक्षा आवश्यक है। जीवन में विद्या, विनय, शील, तीन गुणों का समुचय आवश्यक है। आत्मसम्मान की रक्षा का भाव निर्माण शिक्षा के बिना असंभव है।

स्त्री शिक्षा : भारत सैकड़ों वर्षों तक विदेशी सत्ता, शासकों के पराधीन रहा है, जिससे भारत के पतन और अवनति का दौर अनंतकाल तक चलता रहा। इस विषय पर भी बाबा साहब ने गहन अध्ययन किया उन्हीने देखा की देश की पराधीनता का एक मुख्य कारण शिक्षा भी है और विशेषकर महिला/स्त्री शिक्षा का न होना। सामान्य जनों की शिक्षा भी सहज उपलब्ध नहीं थी। फिर कमजोर व दबे कुचले लोगों के लिए शिक्षा उपलब्ध होना टेढ़ी खीर थी फिर उन्हीं में स्त्री शिक्षा तो दूर की कोड़ी वाली बात है। अत: बाबा साहब ने स्त्री शिक्षा पर बहुत बल दिया और विशेषकर दलित महिलाओं की शिक्षा पर अधिक बल दिया। उनका स्पर्श मत था कि यदि दलित समाज की महिलाएं शिक्षित होंगी तो वे अपनी संतानों को भी शिक्षित व संस्कारवान बना सकती है तथा जीवन में आने वाली कठिनाइयों को हल कर सकेंगी। आज की कन्याएं ही कल की राष्ट्माता होंगी यदि वे संस्कारित और शिक्षित होंगी तो समाज का विकास भी स्वाभाविक ही अच्छा होगा।

अनुसूचित वर्ग की शिक्षा : अनुसूचित वर्ग की शिक्षा के प्रति बाबा साहब बहुत चिंतित रहते थे। इसलिए वे हमेशा अनुसूचित वर्ग की शिक्षा की वकालत करते थे। अनुसूचित समाज के माथे पर लगा अज्ञानता का टीका और समाज में फैली उनके प्रति दुर्भावना से निकलने का एक ही मार्ग था कि वे पढ़ लिखकर अपनी मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करें। शिक्षा के ज्ञान से अनुसूचित वर्ग में विचार-विमर्श करने, मतपरिवर्तन तथा तार्किक बुद्धि का, चैतन्यता निर्माण होगी। वे अपने दीर्घकाल से चले पुश्तैनी कार्यों को छोड़कर नए कार्यों की ओर प्रवृत्त होंगे। अनुसूचित वर्ग की शिक्षा के सम्बन्ध में उन्होंने गर्वपूर्वक कहा था कि शिक्षा शेरनी का वह दूध है जो उसे पियेगा वही दहाड़ेगा। वर्षों से अपने ही समाज से पद दलित, पीड़ित व सामाजिक दासता की जंजीरों में जकड़े समाज में आत्म गौरव का भाव शून्य हो चूका था। ऐसे मृत प्राय: समाज को यदि पुन: खड़ा करना है तो फिर शिक्षा ही वह शस्त्र है जो उन्हें दरिद्रता से बाहर निकलकर, स्वाभिमान का भाव जगाकर अन्याय और शोषण के विरूद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा देगी। ऐसा होने पर ही अनुसूचित समाज विषमता और सामाजिक दासता की जंजीरों को तोड़ सकता है। इस प्रकार अनुसूचित समाज की शिक्षा के लिए हितकारी सभा के अंतर्गत बहिष्कृत शिक्षण मंडल तथा छात्रावासों की स्थापना की। 1945 में बाबा साहब ने पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना की जिसके अंतर्गत अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की गई। सिद्धार्थ कॉलेज और मिलिंद कॉलेज इनमें प्रमुख है इस प्रकार बाबा साहब अनुसूचित समाज के उद्धार में शिक्षा को एक बड़ा स्त्रोत्र मानते थे।

बाबा साहब के शिक्षा सम्बन्धी विचार देश, काल, परिस्थिति के प्रभाव से परे है। उनके विचार न केवल तत्कालीन परिस्थितियों में प्रासंगिक थे अपितु हर काल, समय अथवा आज भी उतने ही समीचीन है। उनके मतानुसार धरती पर जन्म लेने वाला प्रत्येक जीवधारी प्राक्रतिक रूप से सामान है। उन्होंने आदमी और अन्य जीवों में एक ही आधार पर अलग लिया है और वह है इन जीवधारियों की बौद्धिक क्षमता। व्यक्ति शिक्षा ग्रहण करके शेष जीवधारियों से अपने आपको अलग करता है जिससे वह अपनी बौद्धिक क्षमता से अपनी सक्रियता बना लेता है। डॉ अम्बेडकर के अनुसार शिक्षा से ही मनुष्य को विवेक का बोध होता है तथा मानवीय मुल्यों का विकास होता है। देश के विकास में शिक्षा का मह्त्वपूर्ण योगदान है। देश के आधुनिकीकरण में देश में तकनीकी शिक्षा व व्यवहारिक शिक्षा का भी बड़ा योगदान है। वे मानते थे की किसी भी विकासशील देश की आर्थिक व सामाजिक संरचना की आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा होनी चाहिये। शिक्षा बदलते हुए वैश्विक वातावरण में मुकाबला करने में सक्षम होनी चाहिए।

शिक्षा देश की सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक क्रांति का आधार भी है। उनके द्वारा दिया गया मन्त्र ‘शिक्षित बनों, संगठित रहो और संघर्ष करो’ इस महामन्त्र में ही उनके संघर्षपूर्ण जीवन का व उनके शैक्षिक विचारों का सारांश है।

बाबा साहब ने केवल अनुसूचित समाज की शिक्षा पर ही बल नहीं दिया अपितु प्रत्येक वर्ग के सभी महिला व पुरुषों को सामान रूप से शिक्षा मिले, इस पर उनके विचार एक दम स्पष्ट थे। उनका मानना था कि सरकार सभी के लिए शिक्षा सस्ती व सुलभ उपलब्ध कराए। प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयी तक की शिक्षा सरकार को सहज उपलब्ध करवानी चाहिए। बाबा साहब का मानना था कि प्रत्येक बालक-बालिका को प्राथमिक स्तर पर ऐसी व्यवहारिक शिक्षा मिले जिसका वह जीवन में पर्याप्त उपयोग कर सके।

बाबा साहब ने विश्वविद्यालय स्तर पर अलग-अलग स्नातक और स्नातकोत्तर का विरोध किया। वे चाहते थे कि दोनों संकाय एक होकर अथवा एकीकृत होकर कार्य करें। उच्च शिक्षा में शिक्षण व शोध दोनों का समावेश होता है। स्नातक स्तर पर शिक्षण का कार्य होता है जबकि स्तान्कोत्तर स्तर पर शिक्षण के साथ-साथ अधिक बल शोध पर दिया जाता है। उनका मत था कि यदि स्नातक और स्नातकोत्तर के शिक्षार्थियों को एक साथ रखेंगे तो शोध वृति स्नातक स्तर से ही अधिक मजबूत होगी। बाबा साहब शिक्षकों को पाठ्यक्रम निर्माण करने की स्वतंत्रता पर भी बल देते थे। वे इससे ये पता चलता है कि प्रचलित पाठ्यक्रम का विरोध करते थे। विश्वविद्यालयों के सम्बन्ध में वे कहते थे कि ये संस्थान परीक्षा संचालन और उपाधि विवरण के लिए नहीं है अपितु अधिकाधिक शोध कार्यों पर बल दिया जाना चाहिए।

पर्यावरण शिक्षा : डॉ अम्बेडकर ने पर्यावरण-शिक्षा पर भी बल दिया है। उनके जीवन चरित को पढ़ने से ध्यान में आता है कि वे बचपन से ही पर्यावरण प्रेमी थे। उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक बार पौधारोपन किया और यथा संभव उनके बड़े होने तक उनका संरक्षण भी किया। 1953 में जब वह औरंगाबाद के प्रवास पर थे तो वे आगंतुको से तभी मिलते थे जब वे एक वृक्ष लगाने के लिये तैयार हो जाते थे। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य एक लाइलाज महामारी से जूझ रहा है। प्रतिदिन हजारों लोग काल का ग्रास बन रहे है, ऐसा क्यों हुआ? जब इस बात का चिंतन करेंगे तो ध्यान में आएगा कि कही न नहीं मानव ने प्रकृति से द्रोह किया और अपनी जीवनचर्या को प्रकृति विरूद्ध बना लिया। परिणाम हमारे सामने है। अंत: बाबा साहब के दृष्टिकोण में पर्यावरण शिक्षा वर्तमान में भी उतनी ही प्रासंगिक है जिनकी भूतकाल में थी।

उपर्युक्त शीर्षक के निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि  डॉ भीमराव अम्बेडकर का शैक्षिक दृष्टिकोण या विचार जितना तत्कालीन परिस्थितियों के सम्बन्ध में था उसका महत्व आज भी उतना ही, (दशकों बीत जाने पर भी ) है।

बाबा साहब शिक्षा को देश तथा समाज के उत्थान का साधन तो मानते ही थे बल्कि समाज के प्रत्येक वर्ग चाहे वे स्पर्शय या अस्पर्श्य हों सबके लिए समाजिक स्वतंत्रता, समानता, समरसता और भ्रातृभाव  के विकास का एक प्रभावी मार्ग भी मानते थे। स्वाभिमान शून्य समाज को यदि अपने जीवन को पुन: चलायमान रखना है तो उसको शिक्षित होना ही होगा। सामाजिक अस्तित्व और सामाजिक उत्थान के लिए शिक्षा की परम आवश्यकता हर काल और परिस्थिति में रहेगी ही।

(लेखक कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अंतर्गत डॉ०भीमराव अम्बेडकर अध्ययन केंद्र में सहायक निदेशक है।)

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