– अवनीश भटनागर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम पूज्य माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरुजी कुशल संगठक होने के साथ-साथ समाज जीवन के सभी पक्षों पर हिन्दुत्व की मूलभूत अवधारणाओं के आलोक में समग्र चिन्तन किया करते थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राणिशास्त्र के प्राध्यापक रहते हुए उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में स्वयं के अनुभव से कुछ विचार अर्जित किए थे। उनके उद्बोधनों में समय-समय पर शिक्षा के सम्बन्ध में उनके सुस्पष्ट विचार प्रकट हुए हैं। उनमें से कुछ प्रमुख बिन्दु यहाँ प्रस्तुत हैं।
विद्यालय संचालन का उद्देश्य
श्रीमद्भगवद्गीता वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, कुरुक्षेत्र के रजत जयन्ती उत्सव एवं गीता निकेतन आवासीय विद्यालय, कुरुक्षेत्र के भूमि पूजन (29 जनवरी 1973) के अवसर पर श्री गुरुजी पधारे थे। उस समय उनके उद्बोधन के कुछ अंश –
“अनेक वर्ष पूर्व इस विद्यालय के भवन शिलान्यास के अवसर पर में उपस्थित था। विद्यालय प्रारंभ करने का एक उद्देश्य सामने रखा गया था। प्रचलित शिक्षा प्रणाली में धर्म, नीति, राष्ट्रभक्ति, मातृभूमि के प्रति अनन्य श्रद्धा आदि के संस्कार देने की कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं, इस कमी को दूर करने का प्रयास इस विद्यालय में होगा।
अंग्रेजों ने योजनापूर्वक इस बात का प्रयास किया कि इस देश का राष्ट्रीय समाज अपने इतिहास, संस्कृति व सभ्यता को भुला दे। इसी प्रकार की स्वत्व शून्य शिक्षा देश में चलती रही। उस समय इस कूटनीति को जानकार लोगों ने पहचाना और इसीलिए स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान अंग्रेजी शिक्षा का विरोध भी हुआ। राष्ट्रीय शिक्षा के कुछ प्रयोग भी हुए। किन्तु पराधीनता के काल में स्वत्व और स्वाभिमान का जो आवेश था वह परकीय शासन जाते ही लुप्त सा हो गया। अपने गौरव के विस्मरण और विदेशियों की अंधी नकल के फेर में पड़ कर हमने अपने मूलगामी सिद्धांतों को भुला दिया। रहन, सहन, चारित्र्य, कर्तव्यबोध, वैचारिक भूमिका आदि किसी भी दिशा में देखें तो पायेंगे कि विवेक शून्य अन्धानुकरण मात्र चल रहा है। इसीलिए शिक्षा का वास्तविक अर्थ समझने में हम असमर्थ हो रहे हैं।
शिक्षा का वास्तविक अर्थ है मनुष्य को अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य की ओर उन्मुख करना
वास्तव में शिक्षा तो वह है जिसके द्वारा मनुष्य उत्तरोत्तर उन्नति करते हुए जीवन के सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य को पा सके। गीता के अंतिम अध्याय में इस लक्ष्य का स्वयं श्रीकृष्ण उल्लेख करते हैं –
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
माम्-एवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
‘मन्मना’ यानी अपने अंत:करण में मुझे समा ले। ‘मद्भक्तो’ यानी मुझसे ‘विभक्त’ न रहे। ‘मद्याजी’ अर्थात् मेरे लिए यज्ञपूर्वक जीवन चला और ‘मां नमस्कुरु’ माने वह मुझे नमस्कारपूर्वक समर्पण कर दे। यहाँ श्रीकृष्ण नामक व्यक्ति की नहीं अपितु सृष्टि की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय की मूल शक्ति परमेश्वर के रूप में है, जिसके लिए कहा गया – मन्मना भव।
इस अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मनुष्य में अनेक सद्गुण आवश्यक हैं जिनका संस्कार बचपन से करना होगा। सच्चाई से रहना, किसी के प्रति द्वेष या घृणा का भाव न रखना, काया-मनसा-वाचा पवित्र रहना, आत्म नियंत्रण रखते हुए अपने अन्त:करण को इस प्रकार विशाल बनाना कि पूरा विश्व ही मेरा परिवार है और इस समाज की सेवा में स्वयं को समर्पित कर देना किन्तु उसमें कोई स्वार्थ मन में न आने देना आदि।
भारतीय जीवन दृष्टि की विशेषता
सम्पूर्ण विश्व को अपना कुटुम्ब मानने में यह तथ्य अन्तर्भूत है। भारतीय जीवन दृष्टि है कि प्रत्येक भू-भाग में रहने वाला समाज अपने वैशिष्ट्य के अनुसार जीवनयापन करे। सभी राष्ट्रों को अपनी परम्परागत जीवन प्रणाली के वैशिष्ट्य का आविष्कार करते हुए तथा उन विशेषताओं का संवर्धन करते हुए आपस में मित्रता, प्रेम एवं बन्धुता से रहना चाहिए। यह दृष्टि यदि नहीं रही, क्षुद्र स्वार्थवश मित्रभाव का लोप हो गया तो नित्य संघर्ष होगा। अपने स्वार्थो के लिए कोई राष्ट्र अन्य किसी को स्वतंत्र नहीं रहने देगा।
अपनी राष्ट्रगत विशेषताओं को सुरक्षित रखना मानव कल्याण का ही कार्य है, किन्तु सरल नहीं है। विश्व की वर्तमान संघर्षपूर्ण स्थिति में इस कठिन कार्य को वे ही कर सकते हैं जो राष्ट्र की परम्पराओं को जानते हैं, अपने पूर्वजों का समुचित आदर और राष्ट्र के मातृभूमि की प्रति अविचल श्रद्धा रखते हैं तथा अपने अन्त:करण में इस भाव को धारण करते हैं कि राष्ट्रहित के सामने व्यक्तिगत हित का विचार नहीं करना। जो राष्ट्रदेव के पूजन के लिए अपने जीवन को पूर्ण पवित्र बनाते हैं, ऐसे व्यक्तियों की संगठित शक्ति द्वारा ही राष्ट्र का संरक्षण एवं संवर्धन होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राष्ट्रभक्त एवं चरित्रवान् लोग तैयार करना आवश्यक है, जिसके लिए बाल्यजीवन के संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं।
सारांश रूप में श्रीगुरुजी कहते हैं, प्रत्येक छात्र के मस्तिष्क में यह बात अच्छी तरह से बैठा देनी होगी कि मैं अपने राष्ट्र की सेवा करूंगा; राष्ट्र में ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न धाराओं को पुष्ट करूंगा; आधुनिक जगत में प्रगति के जो-जो मार्ग दिखाई देते हैं, मैं उन सबका गहन अध्ययन करूंगा; अपने स्वार्थ का लेशमात्र भी विचार नहीं करूंगा। प्रत्येक छात्र के अन्तःकरण में ऐसी निश्चयात्मक बुद्धि निर्माण करने के लिए ही विद्यालय की आवश्यकता है।
(श्री गुरु जी समग्र दर्शन, खण्ड ७)
शिक्षा का केन्द्र बिन्दु शिक्षक
भारत में शिक्षा की मौलिक अवधारणा है कि शिक्षा मानव की अन्तर्निहित शक्तियों का प्रकटीकरण है, न कि केवल छात्र के मस्तिष्क में कुछ जानकारियों को ठूँसा जाना। हमारी मान्यता है कि हमारे अन्दर जो परम चैतन्य विद्यमान है, उसी परमसत्य की अनुभूति और अभिव्यक्ति शिक्षा प्रणाली का मूल उद्देश्य है। हमारे ऋषि-मनीषियों-सन्तों और तपस्वियों ने इस उद्देश्य की प्राप्ति की प्रक्रिया के सम्बन्ध में जो दिशा निर्देश किए हैं, उन्हें बालक के जीवन में क्रियान्वित करने में शिक्षक की प्रमुख भूमिका है। शिक्षक का प्रथम कार्य यम व नियम के दस सिद्धान्तों को विद्यार्थियों के मन में बैठाना है। अधिकांश युवक नहीं जानते कि जीवन के विविध आयामों के उत्कृष्ट ज्ञान से समृद्ध हमारा कोई प्राचीन इतिहास भी है, क्योंकि उनके छात्र जीवन में उनके शिक्षको और माता-पिता ने उन्हें इस बारे में बताया ही नहीं। आज की अध्ययन प्रणाली में सीखने की इच्छा तथा प्रयास का अभाव है। स्तरीय लेखकों की पुस्तकों को विदाई दे कर गाइडों-कुंजियों का प्रचलन हो गया है। ट्यूशन को सफलता का सरल उपाय मान लिया गया है। वस्तुतः अच्छे शिक्षकों को इसे अपनी सामर्थ्य तथा कर्तव्यनिष्ठा का अपमान समझना चाहिए। इन शार्टकट्स का दुष्प्रभाव है कि विद्यार्थियों में समझने की क्षमता, पहल करने का स्वभाव तथा इच्छाशक्ति में ह्रास हो रहा है। ‘संक्षिप्त मार्गों’ के असफल होने पर विद्यार्थी फिर ‘अनैतिक मार्गों’ से भी सफलता पाने के लिए प्रवृत्त होता है।
(विचार नवनीत, पृ. २४१)
मूल आधार को न भूलें
राष्ट्रीयता के ठोस आधार के बिना मानवता या वैश्विकता की बातें बेमानी हैं। हमारे राष्ट्रीय दर्शन ने सदैव से समस्त मानव जाति के कल्याण को अंगीकार किया है। हमारे राष्ट्रवाद का उज्ज्वल रूप ही हमारे बच्चों को मानव कल्याण के उच्चतम मूल्यों की ओर ले जायेगा।
शिक्षक-विद्यार्थी सम्बन्ध
विद्यार्थी शेष समाज से पृथक कोई वर्ग नहीं है। समाज के गुण-दोष ही उनमें आते हैं। अपरिपक्व अवस्था, अनुभव हीनता तथा वयसुलभ भावावेश के प्राबल्य के फलस्वरूप उनके क्रियाकलाप अदम्य उद्रेक के रूप में प्रकट होते हैं। उन पर सद्व्यवहार के कोई संस्कार नहीं किए जाते। न तो उनके सामने कोई ऐसा उच्च ध्येय है जिसके लिए वे अपनी शक्ति लगाये और न ही उन्हें समाज जीवन में प्राय: कोई प्रेरणादायक जीवनादर्शन दिखाई देता है। उन्हें समुचित मार्गदर्शन करने के लिए शिक्षकों में भी विशेष पात्रता की आवश्यकता है – उन्हें विषय का उत्तम ज्ञान हो, उनका चरित्र निष्कलंक हो, विद्यार्थियों के प्रति प्रेम तथा आत्मीयतापूर्ण व्यवहार उनका सहज स्वभाव हो।
(विचार नवनीत,पृ. ३७२)
परिवार तथा समाज की भूमिका
बालकों को ठीक दिशा देने की सारी जिम्मेदारी केवल शिक्षकों पर ही नहीं है। अपने देश में समाज की लघुतम इकाई परिवार है। बच्चे अनुकरण से सीखते हैं। परिवार में उन्हें जैसा वातावरण मिलेगा, वे उसी प्रकृति के बनेंगे। माता को अपने यहाँ ‘प्रथम गुरु’ कहाँ गया है। कर्तव्यनिष्ठा, वचनपालन, श्रम के प्रति सम्मान, समाज के सहयोग के लिए तत्परता और मातृभूमि के प्रति भक्ति आदि सद्गुण प्रारम्भिक जीवन से ही सिखाये जा सकते हैं।
किशोर तरुण आयु के विद्यार्थियों में सेवा भाव तथा सामूहिक जीवन जीने के स्वभाव का विकास किया जाना चाहिए। इसके लिए उनकी संगठित शक्ति को समुचित दिशा दी जानी आवश्यक है। विद्यार्थी संगठनों को राजनैतिक दलों से मुक्त रखा जाना चाहिए।
मनोरंजन के दृश्य-श्रव्य साधनों तथा समाचार पत्र-पत्रिकाओं की भी विद्यार्थियों के जीवन निर्माण में बड़ी भूमिका होती है। कैसी सामग्री परोसे, इसके लिए इन माध्यमों को भी अपनी जिम्मेदारी का पालन करना चाहिए। आधुनिकता और फैशन के नाम पर कुछ भी प्रदर्शित करना, यह छुट नहीं होनी चाहिए।
विदेशों में शिक्षा कैसी ग्रहण करें?
गुजरात के एक बन्धु इंजीनियरिंग के अध्ययन के लिए अमेरिका के इलियोनिस विश्वविद्यालय गए, जहाँ से उन्होंने श्री गुरुजी को पत्र लिखा। उसके उत्तर में श्री गुरूजी ने लिखा – “आप अधिक पात्रता प्राप्त कर कुशलतापूर्वक स्वदेश लौटें। वहाँ के समाज जीवन, लोगों के उत्तम गुणों, व्यक्तिगत व सामाजिक चरित्र, राष्ट्रीय परम्पराओं तथा नीतिमत्ता आदि का अध्ययन करना अच्छा रहेगा। उद्योग व कृषि आदि की उन्नति के प्रयासों, शैक्षणिक संस्थाओं तथा उनके शिक्षकों छात्रों की मनोवृत्ति को उत्तम रीति से सीखना लाभदायक होगा। कोई समाज पूर्णरूपेण निर्दोष नहीं होता अतः दोषों की ओर ध्यान जाता है। किन्तु प्रयत्नपूर्वक अच्छाई देखना ही लाभदायक है। आत्मोन्नति का यही मार्ग है। ….इस प्रकार अध्ययन करने से स्वदेश में स्व-समाज की परम्पराओं के आधार पर आधुनिक जीवन रचना करने का ज्ञान हो सकेगा और आप राष्ट्र के लिए अतीव उपकारी सिद्ध होंगे।”
(श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खण्ड-३, पृ. ११७)
(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय मंत्री एवं संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र के सचिव है।)
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