– अवनीश भटनागर
भारत में समाज निर्माणकारी शिक्षा की संकल्पना थी। वेद, पुराण, उपनिषदों के लेखकों की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है और न ही उनका कोई कॉपीराइट किया गया। कहते है कि महाभारत ग्रंथ में वेदव्यास ने मात्र छ: हजार श्लोक रचे, बाद में शिष्यों ने जोड़कर यह संख्या एक लाख से अधिक कर दी। भारत में समाज को कमजोर और राज्य को मजबूत करने वाली शिक्षा 1835 ई. के बाद आई। 1860 में सोसाइटी एक्ट आया और शिक्षा का सांस्थानिकीकरण अनिवार्य हुआ। शिक्षक बनाने के लिए रुचि, दक्षता, क्षमता नहीं, mechanism खड़ा हुआ।
तैत्तिरीय उपनिषद की ‘शिक्षा वल्ली’ में सत्यं वद्, धर्मं चर, स्वाध्यायान्माप्रमद आदि जीवन पद्धति का समावेश है। भारत का, हिंदुत्व का मूल आधार अध्यात्म है। वही शिक्षा का भी मूल आधार है। प्रवचन, प्रश्नोत्तर, परिशीलन, परीक्षण, प्रयत्न, परिष्कार तथा प्रचारण-शिक्षा की पद्धति थी।
भारत में शिक्षा के चार वैशिष्ट्य थे – (1) राज्याश्रित नहीं (2) अन्न, औषधि व शिक्षा निशुल्क (3) समाज व विद्वानों की मान्यता (4) शिक्षा जन्मपूर्व से मृत्योपरान्त तक।
परिवर्तन का प्रथम चरण (1772 – 1834 – वारेन हेस्टिंग्स से मैकॉले तक)
भारत में प्रचलित इस शिक्षक-संचालित, समाज-आधारित, जीवन-केंद्रित शिक्षा पद्धति का कालखंड अठारहवीं शताब्दी के लगभग अंत तक रहा। इसमें परिवर्तन (या गिरावट) का क्रम वारेन हेस्टिंग्स के 1772 में बंगाल का गवर्नर बन कर भारत आने और 1774 में गवर्नर जनरल बनने के साथ प्रारम्भ हुआ। इससे पूर्व 1757 में प्लासी के युद्ध के समय से ही भारत में मिशनरीज का आगमन हो चुका था। श्री धर्मपाल की प्रख्यात पुस्तक The Beautiful Tree में भारत के चारों महानगरों के सर्वेक्षण का वर्णन है कि “भारत में शिक्षा राज्याश्रित नहीं, लोकसत्ता आधारित थी”, यह हेस्टिंग्स के बाद के काल का है।
1772 में ही भारत में नवजागरण के अग्रदूत कहे जाने वाले राजा राममोहन राय का जन्म हुआ जिन्होंने आगे चल कर भारतीयों को यूरोपीय आचार व्यवहार की शिक्षा देने की मांग उठाई।
1765 में विलियम जोन्स का भारत आगमन हुआ, 1784 में Royal Asiatic Society of Bengal की स्थापना की गई और संस्कृत के हितोपदेश, मनुस्मृति, अभिज्ञान शाकुंतलम्, महाभारत, भवभूति, चरक-सुश्रुत के ग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद हुए। विलियम जोन्स वापस इंग्लैंड जाते हुए तैयार किए हुए नोट्स की 40 जिल्द लेकर गया। मैक्समूलर, शापेनहावर, हेगल, मार्क्स जिन्हें यूरोप में Indologists माना गया, वे सब विलियम जोन्स के नोट्स पढ़कर Indologist बने। लंदन के St. Paul’s Church के प्रांगण में विलियम्स जोन्स की आदमकद प्रतिमा है जिसके हाथ में मनुस्मृति है। वह भारत में रहकर ज्ञान से प्रभावित हुआ और लिखता है – “औषधि तथा वनस्पति के अंतर को Botanical Taxonomy आज समझ रही है, भारत में 5000 वर्ष पहले पता थी”। मैक्समूलर ने भी संस्कृत को ‘सभी भाषाओं की जननी’ कहा। इनकी आलोचना करते हुए मैकॉले ने अपने पिता को लिखे पत्र में इन्हें ‘भारतीयों को उनकी अच्छाई बताने का निंदनीय कार्य करने वाला ब्रिटिशद्रोही’ कहा।
1774 से 1856 तक परिवर्तन प्रक्रिया (किन्तु 1834 तक धीमी) : 1823 में राजा राममोहन राय ने लॉर्ड एमहर्स्ट को पत्र लिखा कि अंग्रेज उदार है, वे भारत को पीछे नहीं रहने देंगे इसलिए भारतीयों को आधुनिक यूरोपीय शिक्षा दी जाए। उस समय 82 देश ब्रिटिश उपनिवेश थे, उनमें प्रशासन चलाने की शिक्षा के लिए Oxford तथा Cambridge University में Course for British Officers चलाते थे। 50 पेन्स कीमत की पुस्तक How To Learn Hindi in Easy Way अनिवार्य पुस्तक थी। जिन courses के लिए राममोहन राय 1823 में मांग करते हैं वे Oxford तथा Cambridge में 1860 में प्रारंभ हुए।
1810 में East India co. के बजट में भारत में शिक्षा विकास के लिए एक लाख पाउंड का प्रावधान किया गया किन्तु एक पैसा भी व्यय नहीं हुआ। 1816 में राजा राममोहन राय ने कोलकाता में मदरसा और काशी में Oriental College (आज का सम्पूणनिन्द संस्कृत विद्यापीठ) की स्थापना की पहल की।
1830 में मैकॉले मद्रास से कलकत्ता पहुंचा। वह पालकी ढोने वालों की ज्ञानयुक्त बातों का उल्लेख करता हैं। East India Co. की Board Meeting में मैकॉले राजा राममोहन राय के पक्ष का हवाला देकर बताता हैं कि भारतीय स्वयं अंग्रेजी शिक्षा चाहते हैं।
मैकॉले के बहनोई जार्ज ट्रेवेलियन ने आधारभूत परिवर्तन के रूप में संस्कृत तथा सभी भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में लिखे जाने का सुझाव दिया । इसका प्रत्यक्ष लाभ होता कि अंग्रेज अफसरों को सुविधा होगी परन्तु परोक्ष लाभ होता कि सारे संस्कृत तथा देशज भाषाओं के ग्रन्थों को पढने वाली (लिपि जानने वाली) पीढ़ी नहीं बचेगी। पाणिनि की संस्कृत वर्णमाला में 64 वर्ण, घट कर आज 52 से 48 तक हो गए। रोमन में सभी अनुस्वार व अनुनासिक वर्णों के लिए N – अं, ञ, ण, न, म का प्रयोग समाप्त, जोकि संस्कृत उच्चारण की दृष्टि से अति महत्व के हैं। Unicode इसी का आधुनिक माध्यम है।
James Mill को प्रख्यात Indologist की मान्यता दी जाती है जोकि East India Co. में Dispatch Clerk था। James Mill ने आने-जाने वाले पत्रों को पढ़कर Cambridge History of British India पुस्तक लिखी जिसे दुनिया को पढाया जाता रहा।
The Jungle Book के लेखक Rudyard Kipling ने Whiteman’s Burden का सिद्धांत दिया कि काले भारतीयों को सभ्य बनाया जाए जिसके लिए अंग्रेजी शिक्षा आवश्यक है।
दूसरा चरण (1834-1856 – मैकॉले से प्रथम स्वातन्त्र्य समर तक)
मैकॉले की सिफारिशों के आधार पर इस कालखण्ड में भारतीयों को यह सिखाने के लिए कि वे हेय हैं, नई शिक्षा के विद्यालय खुले। उनसे पढ़ कर निकलने वालों को अंग्रेजों / कम्पनी सरकार की नौकरी व अन्य लालच दिए गए।
1757 में प्लासी के युद्ध से 1857 के स्वातंत्र्य समर के बीच अंग्रेजों के विरूद्ध 38 संघर्ष हुए। प्रश्न उठा कि इतने विद्रोह क्यों हुए? परिणाम आया –प्राथमिक शिक्षा देकर भारतीय कर्मचारी तो बनाये गए किन्तु स्वामिभक्त बनाने के लिए उच्च शिक्षा आवश्यक थी ताकि वे अंग्रेजी आचारव्यवहार को अपरिहार्य मानें। इसके बाद कलकत्ता, बम्बई और मद्रास विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई जिसमें ब्रिटिश Democracy की शिक्षा प्रारम्भ हुई।
तीसरा चरण (1858-1905 ब्रिटिश उपनिवेश घोषणा से बंग-भंग आंदोलन तक)
समाज के धर्मार्थ चिकित्सालय, विद्यालयों के लिए भी पंजीकरण अनिवार्य करना शिक्षा का सांस्थानिकीकरण बनाम सरकारीकरण था।
विवेकानंद, गोखले, रानाडे, गांधी आदि के जन्म के इस कालखंड में राष्ट्रीय भावनाओं का जागरण करने वाली प्रक्रिया छुटपुट प्रारंभ हुई। इतिहास में 1905-06 में स्वदेशी आंदोलन की चर्चा होती है – भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 1890 के आसपास ‘कवि वचन सुधा’ में ऐसी कविताओं व लोकगीतों का संग्रह लिखा और छापा। ‘भारत वर्षोंन्नति कैसे हो सकती है’ इस प्रकार के व्याख्यान तथा लेख प्रकाशित हुए और प्रतिबंधित किए गए। दादाभाई नौरोजी ने British Parliament में भारत हित की बात उठाने के लिए ब्रिटेन जा कर चुनाव लड़ा। पहली बार हारे और दूसरी बार जीते। उन्होंने भारत में शिक्षा की बात British संसद में उठाई।
1895 में मद्रास के Priest Graham ने ब्रिटिश सरकार को नोट लिखा कि भारत के पुराने स्कूलों में Monitor system है । यही नायकीय प्रणाली गुरुकुलों की समाप्ति के बाद 1950 के दशक में भारत में पुनः यूरोप से वापस आई।
चौथा चरण (1905-1947 बंग–भंग आंदोलन से स्वाधीनता तक)
1905 में राष्ट्रीय शिक्षा की चर्चा प्रारंभ हुई। बंगभंग और स्वदेशी के आंदोलन हुए। 1911 का लोकमान्य तिलक का शिक्षा संबंधी पुणे व्याख्यान के RTE Act में झलकता है।
1920 में गांधी जी ने बुनियादी शिक्षा का विचार दिया। उनके ‘साबरमती लौटूंगा नहीं’ के प्रण के बाद 1934 में वर्धा केंद्र बना। तब क्रियान्वयन प्रारंभ हुआ। गांधी जी द्वारा भारत घूमने के बाद उनका विचार पुष्ट हुआ। भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रताप नारायण मिश्र तथा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के शिक्षा विषयक लेख प्रकाशित हुए। लाला लाजपत राय, स्वामी श्रद्धानंद तथा महाशय हंसराज ने अंग्रेजी माध्यम से भारतीय शिक्षा का विचार रखा। स्वतंत्र भारत के संस्थापक माने जाने वाले नेता तब तक परिपक्व नहीं हुए थे।
अंग्रेज सरकार द्वारा अंग्रेजी शिक्षा के प्रयास जारी रहे। स्वतंत्रता के समय तक भारत में 55 विश्वविद्यालय थे।
प्रथम विश्व युद्ध ने दो बातें तय कर दी थीं – British Colonies (उपनिवेश) जारी रहेंगे तथा द्वितीय विश्व युद्ध शीघ्र होगा – क्योंकि संधि की शर्ते विसंगतिपूर्ण थी। किंतु 1857 से 1947 तक के 90 वर्षों के कालखंड में भारतीय युवा मानस को British बनाने का काम चला।
इसी के प्रतिकार के लिए 19 वीं शताब्दी के अंत में आर्य समाज और 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक आंदोलन Decolonizing of Hindu Mind या colonial mindset से मुक्ति के उद्देश्य से प्रारंभ हुआ।
4 फरवरी 1916 को भारत भ्रमण के बाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय में गांधी जी के भाषण के दौरान एनी बेसेंट सहित सभी उठ गये, केवल काशी नरेश बैठे रहे। गांधी जी ने अपने उद्बोधन में विद्यार्थियों व आचार्यों के मध्य भारत की दशा और उसके समाधान के लिए युवाशक्ति का आह्वान किया।
पांचवा चरण: स्वतंत्र भारत
1947 में स्वतंत्रता के तुरंत बाद विनोबा जी ने कहा था कि एक माह के लिए सारे स्कूल-कॉलेज बंद कर शिक्षकों से यह चिंतन मंथन कराया जाए कि स्वतंत्र भारत में शिक्षा व्यवस्था कैसी हो? उन्होंने रविवार और गर्मी की छुट्टियों के स्थान पर भारत की आवश्यकतानुसार अवकाश की भी बात की। सितंबर 1947 में ही गाँधी जी का पत्र – “Our Village are illiterate and backward and are in dark. The ray of development will flow from cities to villages.” गांधी जी ने ग्राम जीवन केन्द्रित शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता तथा पुन: बुनियादी शिक्षा और ‘हिन्दुस्तानी’ भाषा का आग्रह किया।
उच्च शिक्षा का स्वरूप तय करने के लिए 1948 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग डॉ. राधाकृष्णन् की अध्यक्षता में गठित हुआ जिसकी रिपोर्ट Largest Document on Indian Education बनी जिसमें भारत के दर्शन के आधार पर शिक्षा व्यवस्था की अनुशंसा की गई। इस डॉक्यूमेंट के प्रमुख बिंदु थे –
(1) प्रशासन, उद्योग व व्यवसाय से सम्बन्धित अंश शिक्षा में जोड़े जायें।
(2) साहस, अनुशासन व समूह भावना के विकास हेतु शारीरिक शिक्षा व खेल।
(3) शिक्षक कल्याण हेतु अच्छा वेतन, योग्यता आधारित पदोन्नति, निष्पक्ष नियुक्ति प्रक्रिया।
(4) शैक्षिक गुणवत्ता विकास, पुस्तकालय एवं प्रयोगशाला की उपलब्धता, 180 दिन शिक्षण कार्य।
(5) स्नातकोत्तर व अनुसंधान के प्रवेश अखिल भारतीय परीक्षा के आधार पर शोध को बढ़ावा।
(6) शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी के स्थान पर आधुनिक भारतीय भाषा।
(7) विश्वविद्यालय/महाविद्यालय में छात्र कल्याण परिषद, चार विषयों की शिक्षा, व्यावहारिक ज्ञान को प्रोत्साहन।
(8) कन्या शिक्षा में गृह विज्ञान, गृह अर्थशास्त्र, ललित कलाओं व नर्सिंग को सम्मिलित करना।
श्री ए. लक्ष्मणस्वामी मुदलियार भी राधाकृष्णन् आयोग में सदस्य थे। बाद में Secondary Education पर विचार के लिए 1952 में उनकी अध्यक्षता में गठित आयोग की प्रमुख अनुशंसाएं इस प्रकार थी –
(1) लोकतंत्रात्मक नागरिकता के विकास हेतु शिक्षा।
(2) व्यवसायिक कौशल विकास तथा संगीत, कला, हस्तशिल्प का समावेश।
(3) प्राथमिक शिक्षा – 5 वर्ष, माध्यमिक 3 वर्ष, सेकेंडरी – 4 वर्ष तथा स्नातक पाठ्यक्रम – 3 वर्ष।
(4) रटने के स्थान पर क्रियात्मक शिक्षण।
(5) वस्तुनिष्ठ परीक्षाएं, अंकों के स्थान पर ग्रेड।
(6) छात्र की व्यक्तिगत प्रतिभा के विकास पर ध्यान।
(7) हायर सेकेंडरी में सफल छात्रों के लिए 2 वर्ष का तथा स्नातकों के लिए एक वर्ष का शिक्षण प्रशिक्षण पाठ्यक्रम।
(8) शैक्षिक, व्यावसायिक एवं वैयक्तिक मार्गनिर्देशन (Counselling) की विद्यालय स्तर पर व्यवस्था। उद्योगों व रोजगार के अवसरों की जानकारी।
1952 में ही आचार्य नरेंद्र देव समिति बनी। इस समिति द्वारा प्रस्तावित किए गए बिंदु इस प्रकार हैं:
(1) छात्रों को विषय चुनाव के लिए प्रत्येक जिले में मनौवैज्ञानिक केंद्र की स्थापना, प्रत्येक विद्यालय में एक प्रशिक्षित शिक्षक।
(2) हायर सेकंडरी कक्षा 9-11 तथा 12 वीं को डिग्री में जोड़ना।
(3) संस्कृत का अनिवार्य शिक्षण (4) जूनियर कक्षाओं में वस्तुनिष्ठ परीक्षा।
(5) नि:शुल्क शिक्षा
(6) नैतिक शिक्षा अनिवार्य ।
(7) तकनीकी शिक्षा विद्यालयों की स्थापना।
इन प्रमुख सांस्थानिक-सरकारी समितियों में चह्वाण समिति, संपूर्णानंद समिति तथा डॉ. जाकिर हुसैन समिति की भी गणना होती है जिन्होंने अधिकांशत: पूर्ववर्ती आयोगों की सिफारिशों को ही लागू करने के विभिन्न उपायों की चर्चा की। तीन आयोग (राधाकृष्णन्, मुदलियार व कोठारी) तथा अनेक समितियों (नरेंद्र देव, चह्वाण, संपूर्णानंद, भगवंतम् हुसैन); 1986 की नई शिक्षा नीति तथा 2005 का NCF – इन सभी में शिक्षा के लगभग सभी अंग-उपांगों पर विस्तृत विचार हुआ। इस विस्तृत विचार के क्रियान्वयन के लिए धरातल पर कितना कार्य हुआ?
अंग्रेजी Proverb है – “If we shoot bullets on our past with gun, our future will fire on us with canons.” अत: केवल आलोचना नहीं। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति अब सामने है। ‘आशा बलवती राजन्-शल्यैव जेष्यति पाण्डवान्:’ – सफलता की आशा के साथ, भारत की आवश्यकताओं के अनुकूल किन्तु वैश्विक दृष्टि देने वाली नई शिक्षा व्यवस्था युग की आवश्यकता है। क्या हमारे प्रयासों से शिक्षा के भी अच्छे दिन आने वाले हैं?
(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय मंत्री एवं संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र के सचिव है।)
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