चाँद किरण सलूजा
भारत की प्राचीन-परम्परा में शिक्षा का अर्थ ही वस्तुतः ‘भाषा की शिक्षा’ देना रहा है तथा इस पर भली-भाँति अधिकार हो जाने पर बच्चे को ‘गुरुकुल’ में भेजने का सन्देश दिया है –
शिक्षा स्वरवर्णोपदेशकशास्त्रम्। (ऋग्वेदप्रातिशाख्य)
सम्प्राप्ते पञ्चमे वर्षे अप्रसुप्ते जनार्दने।
एवं सुनिश्चिते काले विद्यारम्भं तु कारयेत् ॥ (विष्णुधर्मोत्तरपुराणम्)
आधारभूत साक्षरता और संख्याज्ञान को सर्वाधिक प्राथमिकता देना वस्तुतः आजीवन सीखने के मूलभूत कौशलों को प्राप्त करने तक ही परिसीमित नहीं है अपितु शिक्षा के द्वारा, भारतीय संविधान के अनुच्छेद २१(अ) के अन्तर्गत शिक्षा सम्बन्धी मौलिक अधिकार को व्यावहारिक अथवा साकार करना है। उसे समाज का एक सक्रिय सदस्य बनाना है। एक न्यायपूर्ण समाज में उसका समावेशन कर एक समावेशी समाज का निर्माण करना है।
यह भी स्पष्ट है कि शिक्षा सबन्धी इस अधिकार के साथ बाल-अधिकारों के रूप में उसके अन्य भी अनेक अधिकार जुड़े हैं, जिनकी ओर विशेष अवधान आवश्यक एवं निःशुल्क बाल शिक्षा-अधिकार से सम्बद्ध २००९ के शिक्षा अधिनियम के छठे अध्याय में दिया गया है।
वस्तुतः भाषा ही हमारे अनेकों मानवाधिकारों की प्राप्ति का मूल आधार है। हमारे संवैधानिक दर्शन के उद्देश्यों की प्राप्ति का आधार भी मूलरूप से भाषा पर ही आश्रित है। संविधान के दर्शन को अभिव्यक्त करने वाली उद्देशिका का मानना है कि –
“हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा, उसके समस्त नागरिकों को –
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता,
प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सबमें,
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता
बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्प होकर अपनी संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति माघशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”
(भारतीय संविधान की उद्देशिका)
हमारे संविधान की यह उद्देशिका, जिसे संविधान निर्माण के समय भावी भारत के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक सामाजिक दर्शन की आधारशिला के रूप में देखा गया था, इस बात को बहुत ही स्पष्टता के साथ उकेरने का प्रयास करती है कि भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों का लक्ष्य भारत को जिस संपूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष तथा लोकतंत्रात्मक गणराज्य के रूप में संरचित करना रहा है, उसका आधार इस उद्देशिका में निहित न्याय, समता, स्वतन्त्रता तथा बन्धुत्व ये चार मूल्य ही हैं। संविधान की इस उद्देशिका में समाजवादी एवं धर्मनिरपेक्ष शब्द संविधान संशोधन के ४२वें अधिनियम, १९७६ द्वारा जोड़े गए थे। विभिन्न न्यायालयों के विभिन्न निर्णयों में इस बात को भी स्पष्ट रूप से उजागर करने का प्रयास रहा है कि जहाँ समाजवाद शब्द मूल रूप से समत्व युक्त सामूहिकता के भाव का वाचक है, वहीं न्याय, समता, स्वतंत्रता एवं बन्धुता ये चारों आधारभूत मूल्य, जिनकी प्राप्ति ही संविधान के विभिन्न प्रावधानों का उद्देश्य है, परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। परस्पर एक-दूसरे से आबद्ध हैं। और, यदि शिक्षा ही इन चारों मूल्यों की प्राप्ति का आधारभूत साधन है तो भाषा ही शिक्षा की प्रक्रिया का आधारभूत तत्त्व है।
वस्तुतः यह भाषा ही वह सशक्त आधार है जिसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त –
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समता; प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सबमें, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता सम्बन्धी उद्देश्यों को आकार दिया जा सकता है।
इन उद्देश्यों के अन्तर्गत भाषा से सम्बद्ध अभिव्यक्ति तथा उसी के अनुसार कहे गए कथनों के भावों को ग्रहण करने का विशिष्ट महत्त्व है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से सम्बद्ध संविधान का अनुच्छेद १९ इस तथ्य का सबल प्रमाण है। निम्नलिखित चार अध्यायों में विभक्त संविधान का भाग १७ (राजभाषा) के अनुच्छेद ३४३-३५१ सम्पूर्णतया राज्य की भाषानीति से सम्बद्ध है –
(१) संघ की भाषा
(२) क्षेत्रीय भाषाएं
(३) उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों की भाषा एवं
(४) विशिष्ट निर्देश
एतदतिरिक्त भारतीय संविधान के अनुच्छेद : १४, १६, २१, २९, ३०, ४६, १२०, २१० एवं अष्टमी अनुसूची प्रत्यक्षतः अथवा अप्रत्यक्षतः भाषा-नीति से ही सम्बद्ध हैं।
हमारे न्यायालयों द्वारा समय-समय पर दिए गए विभिन्न निर्णय इस बात का स्पष्ट निर्देश-सा देते चलते हैं कि भारत में भाषा का प्रश्न सैद्धान्तिक तौर पर मौलिक अधिकार के रूप में सामाजिक न्याय से जुड़ा है। इसका सम्बन्ध सीधे तौर पर जहां व्यक्ति की वैयक्तिकता से जुड़ा है तो वहीं सामूहिकता से भी जुड़ा है।
यहाँ यह स्पष्ट होना चाहिए कि व्यक्ति एवं समाज का विकास अन्ततः शिक्षा पर ही निर्भर करता है तो शिक्षा का विकास भाषा की भूमिका पर। यही कारण है कि उपयुक्त भाषा-नीति से चिन्तित यह शिक्षा-नीति पदे-पदे अपना अभिमत प्रकट करते चलती है कि –
शैक्षिक प्रणाली का उद्देश्य ऐसे अच्छे इंसानों का विकास करना है जो तर्कसंगत विचार और कार्य करने में सक्षम हों, जिनमें करुणा और सहानुभूति, साहस और लचीलापन, वैज्ञानिक चिंतन और रचनात्मक कल्पनाशक्ति, नैतिक मूल्य और आधार हों। इसका उद्देश्य ऐसे रचनाशील लोगों को तैयार करना है जो भारतीय संविधान द्वारा परिकल्पित ‘समावेशी और बहुलतावादी’ समाज के निर्माण में उत्कृष्ट पद्धति से योगदान कर सकें।
अतः यह अनिवार्य है कि –
सभी विद्यार्थियों के लिए, चाहे उनका निवास स्थान कहीं भी हो, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध करानी होगी। इस कार्य में ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रह रहे समुदायों, वंचित और अल्प-प्रतिनिधित्व वाले समूहों पर विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता होगी। ऐसे समूहों के सभी बच्चों के लिए, परिस्थितिजन्य बाधाओं के होते हुए भी, प्रत्येक संभव पहल करनी होगी जिससे वे शिक्षा व्यवस्था में प्रवेश भी पा सकें और साथ ही उत्कृष्ट प्रदर्शन भी कर सकें।
इस प्रकार की शिक्षा हेतु विभिन्न प्रसंगों में भाषा को इसका आधार मानती है। यह भाषा को बहु-आयामी परिप्रेक्ष्य में देखती है, और, भारतीय सन्दर्भों में बहुभाषिकता को बहु-आयामी संज्ञानात्मक विकास के रूप में देखती है।
आधारभूत साक्षरता के सन्दर्भ में शिक्षा नीति का मानना है कि –
ईसीसीई का समग्र उद्देश्य बच्चों का शारीरिक-भौतिक विकास, संज्ञानात्मक विकास, समाज-संवेगात्मक-नैतिक विकास, सांस्कृतिक विकास, संवाद के लिए प्रारंभिक भाषा, साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान के विकास में अधिकतम परिणामों को प्राप्त करना है। (अध्याय १)
शिक्षा नीति का मानना है कि वर्तमान समय में ईसीसीई की सभी तक पहुँच नहीं होने के कारण बच्चों का एक बड़ा भाग प्रथम कक्षा में प्रवेश पाने के कुछ ही सप्ताहों के बाद अपने सहपाठियों से पिछड़ जाता है। शिक्षा-नीति का विश्वास है कि –
सीखने की आधारभूत आवश्यकताओं अर्थात् मूलभूत स्तर पर पढ़ना, लिखना और अंकगणित को प्राप्त करने पर ही हमारे विद्यार्थियों के लिए शेष नीति प्रासंगिक होगी। (२.२)
भागीदारिता हेतु प्रयास के सन्दर्भ में नीति मानती है कि –
स्थानीय शिक्षक या स्थानीय भाषा से परिचित शिक्षकों को नियुक्त करने पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए।
देश भर में पढ़ने की संस्कृति के निर्माण के लिए पढ़ने की संस्कृति का विकास के सन्दर्भ में नीति का मानना है कि एक राष्ट्रीय पुस्तक संवर्धन नीति तैयार की जाएगी और सभी स्थानों, भाषाओं, स्तरों और शैलियों में पुस्तकों की उपलब्धता, पहुँच, गुणवत्ता और पाठकों को सुनिश्चित करने के लिए व्यापक पहल की जाएगी। इस सन्दर्भ में करणीय कार्य होंगे –
-
सभी भारतीय और स्थानीय भाषाओं में दिलचस्प और प्रेरणादायक बाल साहित्य।
-
सभी स्तर के विद्यार्थियों के लिए विद्यालय और स्थानीय पुस्तकालयों में बड़ी मात्रा में पुस्तकों की उपलब्धि।
-
सार्वजनिक और विद्यालय पुस्तकालयों का विस्तार।
-
डिजिटल पुस्तकालयों की स्थापना।
-
गांवों में विद्यालय लाइब्रेरी की स्थापना।
-
बुक क्लब के सदस्य।
-
अध्ययन-अध्यापन कार्य में, भाषा संबंधी बाधाओं को दूर करने में, दिव्यांग बच्चों के लिए शिक्षा को सुलभ बनाने में और शैक्षणिक नियोजन और प्रबंधन में तकनीकी के यथासंभव उपयोग पर बल देना।
-
भारतीय साइन लैंग्वेज (आईएसएल) को देश भर में मानकीकृत किया जाएगा, और राष्ट्रीय व राज्य पाठ्यक्रम सामग्री विकसित की जाएगी, जो बधिर विद्यार्थियों द्वारा उपयोग की जाएगी। जहाँ संभव और प्रासंगिक हो वहाँ स्थानीय सांकेतिक भाषाओं का सम्मान किया जाएगा और उन्हें सिखाया जाएगा।
-
द्वि-भाषी अध्यापकों की नियुक्ति का अनुमोदन।
-
शिक्षण और सीखना अधिक संवादात्मक ढंग से संचालित होगा;
-
सवाल पूछने को प्रोत्साहित किया जाएगा, और कक्षाओं में नियमित रूप से अधिक रुचिकर, रचनात्मक, सहयोगात्मक और खोजपूर्ण गतिविधियाँ होंगी ताकि गहन और प्रायोगिक सीख को सुनिश्चित किया जा सके।
-
त्रि-भाषा सूत्र का नूतन रूप।
-
‘भारत की भाषाएँ’ (द लैंग्वेजेज ऑफ इंडिया) पर एक रोचक परियोजना / गतिविधि में भाग लेगा;
-
लुप्त भाषाओं की खोज।
-
शास्त्रीय, आदिवासी और लुप्तप्राय भाषाओं सहित सभी भारतीय भाषाओं को संरक्षित और बढ़ावा देने के प्रयास नए जोश के साथ किए जाएंगे। प्रौद्योगिकी एवं ‘क्राउड-सोर्सिंग’ लोगों की व्यापक भागीदारी के साथ, इन प्रयासों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।
-
सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकीकरण की दृष्टि से सभी युवा भारतीयों को अपने देशों की भाषाओं के विशाल और समृद्ध भण्डार और इनके साहित्य कोश के बारे में जागरूक होना चाहिए।
-
भारत की शास्त्रीय भाषाओं और उससे जुड़े साहित्य को कम से कम दो वर्ष सीखने का विकल्प होगा।
-
शब्दकोशों कोशों का नवीनीकरण।
-
बच्चों में अपनी पहचान और अपने-पन के भाव तथा अन्य संस्कृतियों और पहचानों की सराहना का भाव उत्पन्न करने के लिए सांस्कृतिक जागरूकता और अभिव्यक्ति जैसी प्रमुख क्षमताओं को बच्चों में विकसित करना आवश्यक है।
-
भाषा, नि:संदेह, कला एवं संस्कृति से अटूट रूप से जुड़े होने के कारण संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन और प्रसार के लिए, हमें उस संस्कृति की भाषाओं का संरक्षण और संवर्धन करना।
-
भाषा शिक्षण को अधिकाधिक अनुभव-आधारित बनाना ताकि उस भाषा में बातचीत और अन्तःक्रिया करने की क्षमता के विकास को केन्द्रित किया जा सके।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति २०२० का बाइसवां अध्याय ‘भारतीय भाषाओं, कला एवं संस्कृति का संवर्धन’ तो सम्पूर्णतः भाषाओं के महत्त्व एवं विकास की ही चर्चा करता है। इसका मानना है कि –
शिक्षा नीति भारत की समृद्ध, वैविध्यपूर्ण, प्राचीन एवं आधुनिक तथा भारतीय ज्ञान व्यवस्था तथा परम्परा के आलोक को आलोकित करने वाली होनी चाहिए और इस दृष्टि से भाषा ही इसका सुदृढ़ व मूल आधार हो सकती है।
भारत के भाषाई वैविध्य का संरक्षण, विकास एवं संवर्धन इस नीति का प्रमुख लक्ष्य है। शिक्षा-नीति के दृष्टिकोण को विस्तार देते हुए संकेत दिया गया है कि साहित्य के रूप में मानविकीय एवं कलात्मक विषय से सम्बन्ध रखने वाली ‘भाषा’ भावी वैज्ञानिक समाज की आवश्यकता एवं अपेक्षा के रूप में निहारी जा सकती है। बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा देना ही इसका प्रमुख अधिकार है।
यह सच है कि –
छोटे बच्चे अपनी घर की भाषा / मातृभाषा में सार्थक अवधारणाओं को अधिक शीघ्रता से सीखते और समझ लेते हैं … अनुसंधान स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि बच्चे २ से ८ वर्ष की आयु के बीच बहुत शीघ्रता से भाषा सीख लेते हैं और बहु-भाषिकता से इस आयु के विद्यार्थियों को बहुत अधिक संज्ञानात्मक लाभ होता है… संसार भर के कई विकसित देशों में यह देखने को मिलता है कि अपनी भाषा, संस्कृति और परंपराओं में शिक्षित होना कोई बाधा नहीं है, बल्कि वास्तव में शैक्षिक, सामाजिक और तकनीकी प्रगति के लिए इसका बहुत बड़ा लाभ ही होता है… संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन और प्रसार के लिए, हमें उस संस्कृति की भाषाओं का संरक्षण और संवर्धन करना होगा।
(राष्ट्रीय शिक्षा-नीति, २०२०)
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत प्रोफेसर है और संस्कृत संवर्धन प्रतिष्ठान दिल्ली के शैक्षणिक निर्देशक है।)
और पढ़ें : शिक्षा, भाषा और शिक्षा की भाषा – भाग एक