भाव आधारित शिक्षा के साथ जुड़ी है सद्गुण एवं सदाचार की शिक्षा । इसका सम्बन्ध मन से है और इसे ही नैतिक शिक्षा कहते हैं । पाठ्यक्रम के एक विषय के रूप में इसे पढ़ाया भी जाता रहा है । बाल अवस्था में मन अधिक सक्रिय होता है, इसलिए मन की शिक्षा देना अति आवश्यक है । इसे चरित्र की शिक्षा भी कह सकते है । धन, स्वास्थ्य व चरित्र में से ‘चरित्र खोया तो सब कुछ खोया’ ऐसा बताया गया है । बाल अवस्था से ही संस्कारों के माध्यम से चरित्र निर्माण होता है ।
चरित्र निर्माण के बीजों को प्रत्यक्ष आदर्शों के माध्यम से पोषण मिलता है । छात्रों के समक्ष अच्छे चरित्रों की कहानियां, नाटक, गीत, चित्रों का प्रस्तुतिकरण होना चाहिए । छत्रपति शिवाजी का जीवन पढेंगे तो ध्यान में आएगा कि माता जीजाबाई उन्हें बाल्यकाल में रामायण-महाभारत की कहानियां सुनाया करती थीं । इस प्रकार की कहानियां सुनकर ही शिवाजी के मन में राष्ट्रभक्ति का बीजारोपण हुआ । समर्थ गुरु रामदास उनकी प्रेरणा का केन्द्र बने । शिक्षकों और माताओं की जीवंत रुचि छात्रों को प्रेरणा देने वाली होती है । आचार्य द्वारा सुनाई गई एक छोटी-सी कथा का बाल मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है । यह प्रभाव चरित्र गठन की प्रक्रिया को बढ़ाता है ।
एक विद्यालय प्रवास पर प्रार्थना सभा में एक कथा सुनाई । सामान्यतः कथा कथन के पश्चात् शिक्षा भी बताई जाती है । परन्तु यहां शिक्षा न बताकर बालकों से पूछा कि उनको समझ में क्या आया? दो-तीन बालकों ने बताया । फिर उनको कहा कि प्रथम कालांश में अध्यापक उनसे इस विषय में चर्चा करेगें । विद्यालय अवकाश के समय आचार्य बैठक में इस विषय पर चर्चा हुई । बालकों द्वारा बताई गई सात-आठ प्रकार की बातें अध्यापकों द्वारा द्वारा कहीं गईं । कथा एक, शिक्षा सात- आठ प्रकार की । एक ही कथा को सुनकर अलग-अलग बालकों के मन में जो विचार उत्पन्न हुए उन्होंने वे कहे । कथा केवल सुनाने या पुस्तक के पठन तक सीमित न होकर प्रायोगिक रूप से पाठ्य योजना में सम्मिलित हो ।
एक विद्यालय में कक्षा 6, 7, 8 के बालकों को विशाल कक्ष में बुलाया । उन सबसे कहा गया कि विशाल कक्ष में जितने चित्र लगे हैं उन्हें देखकर आओ । आने के पश्चात् उन्हें कहा गया कि चित्र किन-किन महापुरुष का है यह क्रमशः बताओ । कुछ चित्रों के बारे में सभी को सहज रूप से ज्ञात था । कुछ चित्रों के बारे में सभी को जानकारी नहीं थी । फिर उनसे पूछा गया कि महापुरुषों के जो नाम आपने बताएं हैं उनके जीवन के बारे में बताओ । महापुरुषों के जीवन के बारे में एक-दो बालकों को छोड़कर शेष नहीं बता पाएं । केवल दीवारों पर चित्र लगा देना ही काफी नहीं है । उनके जीवन से परिचित कराना भी आवश्यक है ।
परिवार के प्रति आत्मीयता, समाज के प्रति निष्ठा, सृष्टि के सभी वनस्पति, प्राणी, जीव-जन्तु और पंच महाभूतों के प्रति स्नेह एवं उनकी सुरक्षा का दायित्व, देशभक्ति, भगवद्भक्ति आदि सद्गुण बाल अवस्था में विकसित करने चाहिए । व्यवहार की सभी अच्छी आदतें बनने का प्रारम्भ भी बाल अवस्था में होता है । विनय शीलता, मधुर भाषण, बड़ों का आदर, अपनी वस्तुओं को दूसरों के साथ बाँटना, सेवा करना, दूसरों के लिए त्याग करना भी बाल अवस्था में सिखाया जाता है । असत्य नहीं बोलना, अप्रामाणिक नहीं बनना, दब्बू नहीं बनना, सीधा बैठना, चलना, सोना, स्वच्छ और व्यवस्थित रहना और वस्तुओं को भी व्यवस्थित रखना, भोजन आदि में संयमशील होना, चीजों का अपव्यय नहीं करना, जो भी काम करना अच्छा करना आदि व्यावहारिक सद्गुण भी इसी अवस्था में विकसित किए जा सकते हैं । यह सब शरीर और मन से संबंधित है । विद्यालय व घर की दिनचर्या के क्रियाकलापों में छोटी-छोटी बातों के समावेश द्वारा सद्गुण व सदाचार की शिक्षा को पुष्ट किया जा सकता है ।
महात्मा गांधी जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि बचपन में देखे गए दो नाटकों, ‘श्रवणकुमार की मातृ-पितृ भक्ति’ तथा ‘सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र’ का उनके विचारों व जीवन पर अधिक प्रभाव पड़ा ।