– नम्रता दत्त
इस श्रृंखला के सोपान 8 में गर्भावस्था के चौथे मास तक दृष्टि डाली थी। अतः अब गर्भ की इससे आगे की यात्रा पर दृष्टि डालते हैं।
माता एवं गर्भ में पल रहे शिशु का जीवन्त सम्बन्ध होता है। गर्भ के प्रति, माता का प्रेम अथवा तिरस्कार दोनों की ही अनुभूति गर्भ अर्थात् शिशु को होती है। यह अनुभूति चिरस्थायी होती है। यदि माता मजबूरी वश गर्भ को बोझ समझ कर ढोती है तो जन्म के पश्चात् शिशु को भी अपनी माता से कोई लगाव नहीं होता। इसीलिए माता को यह पता होना चाहिए कि उसकी सोच-विचार और व्यवहार शिशु को प्रभावित करते हैं तथा शिशु शिक्षा का यह स्वर्णिम काल है। अतः मासानुमास उसके शारीरिक विकास के साथ साथ माता को भी अपनी गतिविधियां बदलनी चाहिए।
पांचवां मास – पांचवें मास में मन का सृजन होता है। अतः गर्भ में विचार, भावना, संवेदना जागृत होने लगती है। शारीरिक दृष्टि से गर्भ की लम्बाई एवं वजन बढ़ने लगता है क्योंकि इस समय में मांसपेशियां, अस्थिमज्जा और रक्तकोषों का निर्माण होता है। है। उसकी आंतों में मल बनने लगता है। गर्भजल की मात्रा बढ़ जाती है अतः गर्भ की सुरक्षा के लिए उसके चारों ओर की सतह पर भू्रणस्वेद (vernix caseosa) नाम का रक्षा कवच जैसा बन जाता है। माता का पेट भी अब दिखाई देने लगता है।
गर्भ में मन के सृजन के कारण गर्भ की संवेदनशीलता बढ़ जाती है। अतः माता को अब सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। गर्भ पर हाथ रखकर उससे संस्कारित संवाद करना चाहिए। माता की बोलचाल, प्रेम/क्रोध को वह अनुभव करता है, अतः माता को सभी से प्रेम एवं शिष्टाचार से व्यवहार करना चाहिए। परिवार को भी वातावरण निर्माण में सहयोग देना चाहिए। भय एवं चिन्ताजनक वातावरण से दूर रहना चाहिए।
एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार – एक हष्ट पुष्ट स्वस्थ बालक ने जन्म लिया परन्तु वह माता का स्तनपान नहीं करता था। डाक्टर ने शिशु के स्वास्थ्य की दृष्टि से किसी अन्य महिला द्वारा स्तनपान कराने का सुझाव दिया। शिशु अन्य महिला का स्तनपान रूचि से करता था। माता से पूछताछ करने पर पता चला कि वह माता बनना ही नहीं चाहती थी। पति की जिद्ध के कारण उसे बोझिल मन से मां बनना पङा। इस संवेदना की छाप गर्भस्थ शिशु के मन पर पङ गई इसीलिए वह अपनी माता का स्तनपान नहीं करता था।
गर्भ का विकास तीव्र गति से हो रहा है वह माता के भोजन से ही पोषण प्राप्त कर रहा है, इसलिए माता को अब प्रोटीन, विटामिन युक्त सात्विक भोजन का सेवन करना चाहिए। भोजन में देसी घी, दूध और दूध से बने पदार्थ तथा हरी सब्जियों की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। श्रवण और कथन पर विशेष ध्यान देना चाहिए क्योंकि वह जैसा सुनेगी और बोलेंगी वैसा ही गर्भ भी सीखेगा। भय पैदा करने वाला साहित्य न पढ़े न दृश्य देखें।
छट्ठा मास – इस मास में त्वचा के रोम, सिर पर बाल, आंखों की भौहें और नाखून आदि बन जाते हैं। इस मास में ही बुद्धि का विकास होता है अतः बालक की तेजस्विता के लिए माता को विशेष प्रयास करने चाहिए। अब पंचमहाभूत तत्वों से बना सम्पूर्ण शरीर का छोटा स्वरूप तैयार हो गया है।
गर्भ में बुद्धि के विकास के लिए माता को बौद्धिक खेल खेलने चाहिए जैसे – वर्ग पहेली, शब्दपूर्ति, गणित पहेली, सुन्दर चित्र बनाना तथा अन्य सृजनात्मक कार्य। अपने आराध्य की स्मरण और पूजा करें। सद साहित्य, प्रेरक प्रसंग पढ़े। प्राकृतिक वातावरण का आनन्द लें। प्राणायाम एवं आसन/व्यायाम (प्रशिक्षित योगाचार्य के निर्देशन में) करें।
यदि माता किसी विशेष क्षेत्र (डॉक्टर, अध्यापक, इंजीनियर आदि) में कार्य करती है तो उसके व्यवसाय का प्रभाव गर्भ पर पङता है। इसीलिए देखने में आता है कि डॉक्टर के बच्चे डॉक्टर ही बनते हैं ……….।
गर्भिणी को अपने संतुलित और सात्विक भोजन में मौसम के फल एवं सूखे मेवा को शामिल करना चाहिए।
सातवां मास – इस मास में गर्भ का स्वतंत्र व्यक्तित्व स्पष्ट रूप से उभर आता है। वह सर्वांगीण विकास के लिए तैयार है। कई बार सातवें मास में शिशु जन्म भी ले लेता है। परन्तु ऐसी स्थिति में वह शारीरिक रूप से कमजोर होता है और उसकी प्रतिकारक शक्ति भी कमजोर होती है।
गर्भ का आकार और वजन बढ़ने के कारण माता का पेट बढ़ने लगता है जिसके कारण उसकी कमर में दर्द, स्नायुओं में जकङन, नींद न आना, पैरों में बेचैनी और सूजन आदि होने के कारण माता थकावट का अनुभव करती है।
शिशु स्वस्थ एवं शक्तिशाली बने इसके लिए माता को सात्विक एवं संतुलित भोजन, फल, सूखे मेवे एवं गर्म दूध में देसी घी डालकर सुबह शाम पीना चाहिए। साकारात्मक सोच के साथ प्रसव (शिशु का जन्म) के लिए मानसिक तैयारी करनी चाहिए। महापुरुषों की जीवनियां पढ़नी चाहिए। सातवें मास में सीमन्तोनयन संस्कार किया जाता है। इस अवसर पर सभी सगे सम्बन्धी एवं मित्र आदि गर्भिणी/माता को भेंट आदि देकर मंगल कामनाएं देते हैं। ये वैदिक संस्कार है।
आठवां मास – यह बहुत महत्वपूर्ण मास है। इसे ओज संचरण मास भी कहते है। इस मास में बार बार ओज गर्भ नाल के द्वारा माता से शिशु में और शिशु से माता में संचरण करता है। ओज जब माता में आता है तो माता प्रसन्न रहती है और जब शिशु में जाता है तो माता उदासीन हो जाती है। इसी कारण इस मास में प्रसव होने को हानिकारक माना जाता है।
इस समय गर्भिणी को शारीरिक थकावट के साथ साथ मानसिक तनाव भी होने लगता है। प्यास अधिक लगती है। ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है। गर्भिणी को अधिक परिश्रम नहीं करना चाहिए। सैर करना तथा खुली एवं शुद्ध हवा में सांस लेना चाहिए। भोजन पर ध्यान देना चाहिए। दूध और घी की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। वायुकारक भोजन का सेवन नहीं करना चाहिए। माता की सोच एवं विचारों का प्रभाव शिशु पर पङता है इसलिए माता को अपने मनोबल को साकारात्मक रखना चाहिए। सरल और सहज प्रसूति के लिए अपने इष्ट देव से प्रार्थना करनी चाहिए।
नौवां मास – सामान्यतः गर्भस्थ शिशु माता के गर्भ में 280 दिन रहता है। इस मास के अंत तक वह जन्म के लिए पेट में नीचे पेडू की ओर उतर आता है। सामान्य अवस्था में उसका सिर नीचे घूम जाता है। माता के मूत्राशय पर दबाव पङने लगता है। थकान का अनुभव होता है।
माता की तपस्या और साधना की अवधि पूर्ण होने वाली है और शीघ्र ही उसका सुन्दर परिणाम प्रत्यक्ष दिखाई देगा, ऐसी कल्पना से माता को प्रसन्न होना चाहिए। परिवार में बुजुर्ग एवं अनुभवी व्यक्ति का सानिध्य होना चाहिए। सादा सुपाच्य भोजन ही लेना चाहिए। दूध में अरन्डी का तेल (कस्टॉयल) डालकर पी सकते हैं । इससे प्रसव में सुविधा होगी।
शिशु के साथ प्रेमपूर्ण वार्तालाप करके अपने अन्तःकरण का संदेश उसे देते रहना चाहिए, इससे गर्भस्थ शिशु प्रसन्न रहता है और उसे प्रसूति में अधिक कष्ट नहीं होता। शिशु की प्रसन्नता उसके विकास में टॉनिक का कार्य करती है। सगर्भा की साकारात्मकता एवं परिवार के संस्कारक्षम वातावरण के फलस्वरूप सात पीढियों का नाम रोशन करने वाली संतान का अवतरण होता है।
माता कौशल्या, माता जीजाबाई एवं माता भुवनेश्वरी देवी जैसे उदाहरणों से भारतीय इतिहास भरा पङा है। वास्तव में गर्भ ही शिशु शिक्षा (चारित्रिक निर्माण) की प्रथम पाठशाला है और माता ही उसकी शिक्षक है, इसका ज्ञान, उसका पालन माता को करना होगा, तभी राष्ट्र कल्याण एवं स्वयं का कल्याण सम्भव है। तभी शिक्षा ‘सा विद्या या विमुक्तये’ होगी।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)
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