– नम्रता दत्त
भारतीय दर्शन में शैशवास्था को शून्य से पांच वर्ष माना गया है। इसीलिए स्वामी शंकराचार्य जी ने कहा – लालयेत् पंचवर्षाणि, दश वर्षाणि……..। इस शून्य की अवस्था को ही हम पूर्व गर्भावस्था कह सकते हैं।
सृष्टि का चक्र सतत् चलता रहता है और इस चक्र को चलाने में सभी सजीव का विशेष योगदान है। इस सृष्टि में मानव को परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति माना गया है क्योंकि उसे ही परमात्मा ने विवेक की शक्ति दी है। अतः इस सृष्टि के चक्र को सात्विकता से चलायमान रखना और इसका संरक्षण करना उसका धर्म है। इसलिए हमारे शास्त्रों ने प्रत्येक मनुष्य को चार प्रकार के समाजिक ऋणों (देवऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण और ब्रह्म ऋण) का ऋणी बताया है। अतः जीवन मुक्ति के लिए मनुष्य को विवाह कर श्रेष्ठ संतानोत्पति कर अपने धर्म का पालन करना है और इस ऋण से उऋण होना ही है। इसलिए इस अवस्था को ठीक से जानने समझने के लिए और एक चरण पीछे जाना होगा।
हम जानते हैं कि भारतीय संस्कृति में संतानोत्पति से पूर्व विवाह संस्कार होता है। श्रेष्ठ संतान प्राप्ति का यह प्रथम चरण है। इस विवाह संस्कार को भी श्रेष्ठ बनाने के लिए युवक और युवती का गोत्र, प्रवर, पिण्ड और गुण आदि का विचार चिन्तन करना आवश्यक है अन्यथा श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति नहीं होगी।
विवाह कोई शारीरिक सम्बन्धों की मान्यता का सम्बन्ध नहीं अपितु एक आध्यात्मिक सम्बन्ध है। भारतीय संस्कृति में दम्पति को लक्ष्मी नारायण तथा अर्धनारीश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। भगवान श्री विष्णु जैसे श्री लक्ष्मी के सहयोग से इस सृष्टि की पालना करते है वैसे ही प्रत्येक दम्पति को पालक बनना है। गृहस्थाश्रम इसी का परिचायक है। एक के बिना दूसरा अधूरा है। सम्पूर्ण आत्मसमर्पण ही विवाह सम्बन्ध का आधार है।
विवाहोपरांत पूर्व गर्भावस्था वह अवस्था है जब दम्पति माता पिता बनने का विचार करते हैं। इस अवस्था में दम्पति की भावनायें एवं विचार भावी शिशु के निर्माण का कार्य करती हैं। कर्मेन्द्रियों की क्रियाओं को, ज्ञानेन्द्रियों के अनुभवों को, मन के विचारों और भावनाओं को बुद्धि की समझ को चित्त संस्कार रूप में ग्रहण करता है। अतः इस समय में दम्पति का बर्हिकरण एवं अन्तःकरण दोनो ही शिशु की नींव रखने में सहभागी होते हैं।
जैसे एक भवन बनाने के लिए पहले उसका एक ब्लू प्रिंट/मॉडल बनाया जाता है, ठीक उसी प्रकार दम्पति को भी कैसा शिशु चाहिए इसका विचार गर्भाधारण से पूर्व ही करना होगा। यह विचार करने के लिए उसे कुछ बातों की जानकारी पहले से ही होनी चाहिए। जैसे उन्हें पता होना चाहिए कि –
1. संतान माता पिता का चयन करती है – अपनी स्थूल देह से किए हुए कर्मों के संस्कार आत्मा अपनी सूक्ष्म देह के साथ ले जाती है और पुर्नजन्म लेते हुए अपनी अधूरी अभिलाषा की पूर्ति के लिए वह ऐसे माता पिता का चयन करती है जहां उसकी पूर्व अभिलाषा की पूर्ति हो सके।
श्री कृष्ण ने जन्म लेना था, उन्होंने वासुदेव और देवकी का चयन किया। कार्तिकेय ने जन्म लेने के लिए उमा महेश्वर के विवाह होने तक प्रतीक्षा की क्योंकि अन्य कहीं पर उनके योग्य स्थूल शरीर नहीं था।
इससे यह तो सुनिश्चित हो जाता है कि यदि दम्पति श्रेष्ठ आत्मा को संतान रूप में पाना चाहते हैं तो उन्हें श्रेष्ठ संतान के अनुरूप स्वयं को बनाना होगा। इसलिए पूर्व गर्भावस्था में दम्पति को स्वयं को इस योग्य बनाना होगा।
2. मातापिता का ज्ञान/संस्कार शिशु में आते हैं – आचार्य रजनीश (ओशो) से किसी ने पूछा कि प्रत्येक जीवात्मा स्वयं अपने माता पिता का चयन करती है तो आपने ऐसे ग्रामीण (गंवार) माता पिता का चयन क्यों किया ? ओशो ने बताया कि मैं जन्म लेने के लिए दस वर्षों तक भटकता रहा तब जाकर मुझे ऐसे शुद्ध, सरल, पवित्र/निष्कपट एवं सहज दम्पति मिले जिनके संयोग से मैं जन्म ले सकूं। यदि उनमें ज्ञान न होता तो मुझ में कैसे आता
3. तपश्चर्या करनी होगी – तपश्चर्या करने का अर्थ कोई वन में जाकर समाधि लेने से नहीं है। संक्षेप में कहें तो –
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भावी माता पिता को अपनी ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों (बर्हिकरण) और मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार (अन्तःकरण) पर संयम रखना होगा ताकि मन की भावनायें और विचार एवं व्यवहार निर्मल बने। इसके लिए योगाभ्यास, ध्यान आदि करना चाहिए।
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विकारों और व्यसनों से दूर रहना चाहिए।
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सात्विक आहार का सेवन करना चाहिए।
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तीन माह से लेकर एक वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करें ताकि वीर्य (पुरुष बीज) एवं रजस (स्त्री बीज) शक्तिशाली हो।
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एक दूसरे के प्रति श्रद्धावान रहना चाहिए। दोनों का संतान के विषय में एक ही निश्चय होना चाहिए। एक कहे देश भक्त होगा और दूसरा कहे संन्यासी होगा तो दुविधा हो जाएगी।
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मात्र श्रेष्ठ संतान का विचार करें। पुत्र होगा या पुत्री होगी , ऐसा विचार नहीं करना चाहिए।
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एकात्म भाव से परमपिता परमात्मा से श्रेष्ठ संतान का आह्वान करना चाहिए।
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परिवार के वातावरण को संस्कारक्षम एवं प्रसन्नता से भरपूर बनाना चाहिए।
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घर को ही तपोभूमि बनाना चाहिए।
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गर्भाधान संस्कार के पश्चात् ही गर्भधारण करना चाहिए।गर्भ धारण के लिए देश/भूमि एवं काल का भी विशेष महत्व है – ऋषि कश्यप और उनकी पत्नी दिति के संध्याकाल समागम के फलस्वरूप ही हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु जैसे राक्षसों का जन्म हुआ परन्तु कयाधु (हिरण्यकशिपु की पत्नी) की तपश्चर्या थी जिसने प्रभु भक्त बालक प्रहलाद को जन्म दिया।
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अनुवांशिकता भी संतान को संस्कारित करती है – “रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई।” रामायण का प्रत्येक पात्र अपने में अलौकिक उदाहरण है। सभी दम्पति सुसंस्कारों के उदाहरणस्वरूप हैं। यही अनुवांशिकता है।
तत्व चिंतकों का कहना है कि यदि दम्पति उत्तम प्रजा देने में ज्ञान नहीं रखता अथवा ज्ञान होते हुए उसका पालन नहीं करता तो उसे प्रजा की वृद्धि करनी ही नहीं चाहिए। एक विद्वान ने आंकङों के आधार पर बताया कि आज जो प्रजा धरती पर जन्म लेती है वह पांच सौ वर्षों में चालीस लाख हो जाती है। अतः कैसी प्रजा देश के हित में हैं और उसमें वृद्धि करने वाले देश की संस्कृति की सुरक्षा में कैसी भूमिका निभाना चाहते हैं इसका निर्णायक है यह पूर्व गर्भावस्था।
संतति उत्तम होगी या नहीं, यह गर्भाधान होते ही निश्चित हो जाता है। गर्भधारण के समय जैसी भी आत्मा को आपने धारण किया, उसके संस्कार उसी समय निश्चित हो गए क्योंकि अधिकांशतः संस्कार (लगभग 70 प्रतिशत) आत्मा पूर्वजन्म के ही लेकर आती है।
इस विषय पर विस्तृत जानकारी के लिए आप पुनरूत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘अधिजननशास्त्र’ का अध्ययन कर सकते हैं।
इस श्रृंखला के अगले सोपान में हम गर्भावस्था का चिन्तन करेंगे।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)