✍ नम्रता दत्त
हमने शिशु शिक्षा की यह श्रृंखला 0 (शून्य) से प्रारम्भ की थी और अब इस सोपान से हम 3 वर्ष के शिशु की शिक्षा पर पहुंच गए हैं। भारतीय मनौवैज्ञानिकों ने शिशु अवस्था को 5 वर्ष तक माना है इसीलिए कहा भी गया – ‘लालयेत् पंचवर्षाणि’। स्मरण रहे कि इस अवस्था में शिशु का 85 प्रतिशत विकास हो जाता है।
इससे पूर्व हमने शिशु की क्षीरादावस्था (मात्र दूध पर निर्भर) और क्षीरादान्नादावस्था (दूध और अन्न पर निर्भर) पर विचार किया था। अब अन्नादावस्था (अन्न पर निर्भर) की बात करेंगे। इस आयु में उसके मुंह में दांत हैं, वह अन्न खा सकता है और आत्मनिर्भरता की ओर बढ रहा है, अतः हर काम स्वयं करना चाहता है। उसकी मौखिक भाषा भी विकसित हो रही है, अतः बात के अर्थ और भाव को समझ सकता है और अपनी बात को भाव से कह भी सकता है। इस विकास के आधार पर संस्कारों के प्रति सजग रहने के लिए हमें कुछ विषयों पर पुनः चिन्तन करना होगा क्योंकि शैशवास्था का यह अन्तिम चरण है। इसके बाद वह बाल्यावस्था में प्रवेश करता है।
वास्तव में शिशु के संदर्भ में शिक्षा का अर्थ – ‘सीखना’ ही होता है। सीखने का यह क्रम प्राकृतिक एवं अनौपचारिक रूप से चलता है। इसको किसी निश्चित क्रम एवं समयावधि में बांधा नहीं जा सकता। माता-पिता एवं परिवार की जिम्मेवारी भी उसकी प्राकृतिक रूप से विकसित होने की आवश्यकताओं के अनुरूप ही अनौपचारिक वातावरण एवं सुविधाएं देने की है और वे इसे पूरा भी करते हैं। बस आवश्यकता उचित दिशा की होती है।
वर्तमान समय में शिशु शिक्षा की विचारधारा विपरीत दिशा में ही जा रही है। औद्योगिकरण के युग में परिवार नगरों की ओर बढने लगे हैं। आर्थिक संघर्ष के चलते माता-पिता दोनों ही नौकरी/व्यवसाय करने लगे हैं। या यूं भी कह सकते हैं कि बच्चे के भविष्य को एक ओर रख अपना कैरियर बनाना माता की प्राथमिकता हो गई है। बच्चा जो उनके एवं राष्ट्र के भविष्य हेतु एक राष्ट्रीय धरोहर के रूप में उनके पास है, उसकी संभाल की दूरदृष्टि अभी उनके पास नहीं है। वह केवल स्थूल (भौतिक) दृष्टि से ही उसका पालन पोषण करते हैं। भोजन तो पशु-पक्षी भी अपने बच्चों को खिला देते हैं।
प्रारम्भ में तो परिवार में कोई बच्चे की देखभाल करने वाला न होने के कारण उसे स्कूल/क्रैच में भेजना माता-पिता की मजबूरी बन गई थी परन्तु अब यह परम्परा बन गयी है। परन्तु माता-पिता यह भूल गए कि परिस्थितियां बदली हैं, बच्चे के सीखने की प्रकृति/शिशु मनोविज्ञान/स्वभाव नहीं बदला।
इस बात को एक उदाहरण से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है –
मेरे परिचित परिवार ने एक दिन के नवजात शिशु को गोद लिया। शिशु को माता का दूध मिलना सम्भव नहीं था, अतः उसे गाय का दूध बोतल से छह महीने तक पिलाया गया। क्योंकि वे जानते थे कि नन्हें शिशु को प्राकृतिक रूप से दूध की ही आवश्यकता है, वह अभी अन्न नहीं खा सकता। यदि अन्न उसको दिया गया तो वह उसके जीवन के लिए हानिकारक होगा। परिस्थितियां विपरीत हो सकती हैं, परन्तु शिशु की प्रकृति तो नहीं बदलेगी ना। उसका पाचन तंत्र तो दूध ही पचा सकता है, अन्न नहीं पचा सकता। इसी प्रकार अन्न देने की आयु में यदि दूध पिलाते रहेंगे तो भी शिशु का विकास प्रभावित होगा। यही शिशु मनोविज्ञान है। बस इसी तरह से शिशु के सीखने (शिक्षा) के लिए दिशा/ज्ञान होने की आवश्यकता है।
समाज की विपरीत परिस्थितियों के चलते तीन वर्ष (सम्भवतः इससे भी पहले) की आयु होते ही माता-पिता को शिशु की शिक्षा की चिन्ता होने लगती है। वे औपचारिक शिक्षा के लिए उसे विद्यालय भेजने लगते हैं। औपचारिक शिक्षा अर्थात् क्रमबद्ध शिक्षा; क ख ग घ……. शब्द ज्ञान, वाक्य ज्ञान (भाषा ज्ञान), संख्या 1 2 3 4 5……. जोङ, घटा, गुणा, भाग आदि। कक्षा कार्य, गृह कार्य, परीक्षा आदि। इस सब क्रमबद्धता को समझने के लिए मन की एकाग्रता एवं सूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता होती है जबकि तीन वर्ष के बालक का मन चंचल होता है और सूक्ष्म बुद्धि का विकास तो 6 वर्ष की आयु में होता है। अतः इस आयु में दोनों ही उसके पास नहीं हैं, इसलिए यह मनोवैज्ञानिक नहीं है। क्षमताओं के विपरीत किए गए इस कार्य से शिशु में तनाव (एग्रेशन) बढ जाता है जो उसके शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित करता है, ठीक उसी तरह जैसे छह माह से पहले बच्चे को अन्न देना उसके पाचन तंत्र को नुकसान पहुंचाता है और उसके शारीरिक विकास को प्रभावित करता है।
वह अभी नन्हीं पौध है, उसे प्रेम, सुरक्षा और आनन्द के माहौल में मुखरित होना है क्योंकि पांच वर्ष तक लालन पालन से सीखना ही उसका मनोविज्ञान है। यह लालन पालन परिवार में ही मिल सकता है। यदि परिवार की परिस्थितियां बदल गई हैं तब भी बच्चे को वातावरण तो परिवार जैसा ही चाहिए होगा ना। इसलिए उसे स्कूल में भी घर-परिवार जैसे वातावरण एवं पालना की आवश्यकता हैं। औपचारिक शिक्षा का यह वातावरण – पढ़ना, लिखना, कक्षा कार्य, गृह कार्य, परीक्षा, अच्छे अंक लाने का माता-पिता का दबाव, अंग्रेजी भाषा में बोलना निश्चित रूप से उसको प्रेम, सुरक्षा और आनन्द तो नहीं देगा। इस अवस्था में पङे हुए इन विपरीत परिस्थितियों का दुष्प्रभाव उसमें प्रत्यक्ष देखने को मिलता है – वह जिद्दी बन जाता है, बङों का कहना नहीं मानता है, उसे भूख नहीं लगती है, किसी से बांटने का संस्कार नहीं है आदि आदि……। कारण वह अनुकरण से सीखता है। जैसा परिवार उसे देगा, वैसा ही वह लौटाएगा। उसे विद्यालय में अवश्य भेंजें, परन्तु ऐसे विद्यालय में जहां उसे खेल खेल में सीखाया जाता हो। जहां उसे प्रेम, सुरक्षा और आनन्द मिले। यह आयु अनौपाचारिक रूप से संस्कार ग्रहण करने के लिए है, न कि औपचारिक शिक्षा में बांधने की।
आज तक यह सब बातें हमें व्यर्थ की लगती होंगी। लेकिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने भी इस शिशु मनोविज्ञान को स्वीकार किया है। प्रशासनिक दृष्टि से विद्यालय जाने की आयु पहले भी 6 वर्ष की ही थी। लेकिन सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए शिक्षा नीति 2020 ने भी 3 वर्ष की आयु की शिक्षा को सीखने की नींव माना है और उसे प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा (ECCE) का नाम दिया है। 6 वर्ष में आधारभूत शिक्षा प्रारम्भ की जाती है (जबकि यह आधारभूत शिक्षा स्कूलों में नर्सरी कक्षा अर्थात् 3 वर्ष में ही देना प्रारम्भ कर देते है)। शिशु मनोविज्ञान के अनुसार आधारभूत शिक्षा के लिए वास्तविक आयु 6 वर्ष की ही है न कि 3 वर्ष। इसे शिक्षा नीति 2020 ने FLN (Foundational Literacy and Numeracy) का नाम दिया है। 3 वर्ष की आयु में खेल खेल में दी गई अनौपचारिक शिक्षा (मौखिक मात्र) देना ही शिशु के विकास के लिए उपयुक्त है क्योंकि मौखिक ज्ञान प्राप्त करने के बाद पढ़ना-लिखना सरल हो जाता है।
विस्तार से जानने के लिए माता पिता को शिशु मनोविज्ञान का अध्ययन अवश्य करना चाहिए तब ही वे अपने दायित्व को सही ढंग से निभा पाएंगे।
शिशु एक पुष्प है, उसे मुखरित होने का पूर्ण अवसर दें।
अगले सोपान में शिशु का विकास/ सीखना/शिक्षा में पांच महाभूत तत्वों के सहयोग के विषय में बात करेंगे।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती शिशुवाटिका विभाग की अखिल भारतीय सह-संयोजिका है।)
और पढ़ें : शिशु शिक्षा 33 – शिशु के संस्कार में पारिवारिक वातावरण की भूमिका
बहुत सुन्दर प्रस्तुति अच्छी जानकारी
धन्यवाद पंचाल जी।