– नम्रता दत्त
आज दम्पति जागरूक हैं। वे बङे योजनाबद्ध होकर माता-पिता बनने का निर्णय लेते हैं। बच्चे के जन्म से भी पूर्व वे यह विचार करते हैं कि क्या वे अपने बच्चे का सही पालन पोषण करने के लिए आर्थिक रूप से सशक्त हैं? क्या वे उसे अच्छी शिक्षा देने के योग्य हैं? बच्चे के स्वास्थ्य के प्रति वे सचेत रहते हैं। थोङी सी भी अस्वस्थता पर वे उसे इलाज के लिए अच्छे से अच्छे से डॉक्टर के पास लेकर जाते हैं। अर्थात् वे अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के बाद ही माता-पिता बनने का फैसला करते हैं। बच्चे को सुख सुविधा जुटाने के लिए पति पत्नी दोनों ही धन कमाने की चिन्ता करने लगे हैं, यह अच्छी बात है। परन्तु उनकी यह धारणा की धन से ही संतान श्रेष्ठ बनेगी, श्रेष्ट संतान तो क्या संतान के जन्म में ही बाधक बन जाती है। आइए जरा इस पर विचार करते है कि वर्तमान जीवन शैली से हमें कैसी पीढी (संतान) प्राप्त होगी।
अभी गत माह ही मेरे पङोस में तीन वर्ष की बच्ची का हरनिया का ऑपरेशन हुआ है। नन्हीं सी जान बहुत कष्ट में है। परिवार (संयुक्त) भी बहुत परेशानी में है। कारण खोजने की आवश्यकता नहीं क्योंकि बच्ची की माता स्वयं भी रोगी जैसी ही दिखाई देती है। भोजन की अनियमितता, भोजन में रासायनिक मिलावट आदि इसके कारण हैं। जिस प्रकार अच्छी फसल के लिए उपजाऊ धरती में उत्तम क्वालिटी का बीज बोया जाता है ठीक उसी प्रकार उत्तम संतान के लिए माता (धरती) और पिता (बीज) का स्वस्थ होना भी एक अनिवार्य शर्त है। गर्भ धारण से पूर्व दम्पति को और गर्भधारण के पश्चात् विशेषतः माता को बहुत सी छोटी छोटी बातों का भी ध्यान रखना होगा।
मद्रास की मल्टीनेशनल कम्पनी में काम करने वाली मेरी एक परिचिता युवती (नाम गोपनीय) के विवाह को आठ वर्ष हो गए थे परन्तु मां बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। दम्पति ने शारीरिक जांच भी कराई परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। एक वैद्य से सम्पर्क करने पर उसने सर्वप्रथम युवती को पाश्चात्य वेशभूषा बदल कर भारतीय वेशभूषा पहनने का सुझाव दिया और तत्पश्चात् पति-पत्नी की काउंसलिंग की और उन्हें डाइट व दिनचर्या आदि के विषय में बताया। किसी भी प्रकार की दवाइयों के बिना दम्पति ने डेढ वर्ष में एक स्वस्थ संतान को जन्म दिया। मुख्य कारण था तंग वस्त्र (पाश्चात्य वस्त्र) पहनने के कारण शरीर की गर्मी, शरीर में ही रह जाती है जिसके कारण संभोगशक्ति कम हो जाती है।
‘वेशभूषा’ का प्रभाव हाव-भाव, विचार और वृत्ति पर भी पङता है। स्त्री पुरुषों जैसे कपङे पहनती हैं और पुरुष स्त्रियों की तरह आभूषण पहनने लगे हैं। इसके प्रभाव का सबूत हमें पाश्चात्य देशों के अध्ययन से मिल जाएगा। वहां आज गे (समलैंगिक) और लेस्बियन (सजातीय सम्बन्ध रखने वाले) की संख्या बढने का मुख्य कारण वेशभूषा ही है। आज भारत में भी इसके प्रभाव को बङी मात्रा में खुलते हुए इंनफर्टिलिटी सेंटर्स (IVF) के एवं संविधान में सजातीय सम्बन्ध रखने वालों को संवैधानिक (आई पी सी की धारा 377) मान्यता से जाना जा सकता है।
अपनी नौकरी/ व्यवसाय तक जाने के लिए स्कूटर/बाइक/गाङी आदि पर लम्बी लम्बी ड्राइव करना आज की जरूरत है और नौकरी पर जाकर भी लम्बे समय तक बैठकर, कम्प्यूटर/लैपटाप/फोन आदि पर कार्य करना ही पङता है। यह सब आरामदायक तो लगता है क्योंकि शारीरिक मेहनत कम लगती है। परन्तु शरीर के स्नायु एवं मांसपेशियां शिथिल पङ जाती हैं और इन्द्रियों (कान, आंख एवं वाणी आदि) का कार्य भी बढ़ जाता है। इन्द्रियां तो प्रभावित होती ही हैं, आहार और निद्रा की भी अनियमितता हो जाती है। इसके साथ ही कार्य का तनाव, क्रोध और चिन्ता आदि भी दाम्पत्य जीवन में कलह का कारण बन जाते हैं। इन सबके कारण पाचन तंत्र बिगङ जाता है। परिणामस्वरूप शारीरिक बीमारियां (बवासीर, बी.पी., शूगर आदि) भी होने लगती हैं और संभोगशक्ति कम होती जाती है। इन्द्रियों की क्षति का प्रभाव भी जन्म लेने वाली संतान पर पङता है। जो गर्भस्थ माता सारा दिन कम्प्यूटर/मोबाइल पर कार्य कर रही है उसकी रेडियेशन का प्रभाव बच्चे पर होना स्वाभाविक ही है। इसलिए आज छोटे छोटे बच्चों को भी चश्मा लग जाता है। ये सब कारण उत्तम और स्वस्थ संतान तो क्या संतान प्राप्ति में भी बाधक बनते हैं।
अपने कैरियर के लिए जागरूक दम्पति, विशेषतः युवतियां जल्दी से माता बनना नहीं चाहती और गर्भ निरोधक साधनों का प्रयोग करती हैं। भविष्य में यही बंघ्यत्व (Infertility) का कारण बनता है। 30 से 40 वर्ष की आयु में मां बनना भी संतान के लिए श्रेष्ठकर नहीं है। स्त्री में बीज 20 वर्ष एवं पुरुष में 25 वर्ष में बनता है। ऐसी ही आयु संतानोत्पत्ति के लिए ठीक मानी जाती है।
संयुक्त परिवारों का टूटना भी उत्तम संतान अथवा संतान प्राप्ति में बाधक बन रहा है। दम्पति, इस डर से माता-पिता बनने में देर कर देते हैं कि उसका पालन पोषण कैसे होगा, या माता-पिता बन भी जाते हैं तो बच्चे के पालन पोषण के लिए प्रर्याप्त समय नहीं निकाल पाते। वे उसे आर्थिक सुख सुविधा तो दे पाते हैं परन्तु बच्चे को मानसिक संतुष्टि नहीं दे पाते। ऐसी स्थिति में उत्तम संतान का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
एक चार वर्ष की बिटिया ने अपनी मां से प्रश्न पूछा कि आप, अपना रूपयों से भरा बैग मेड को देकर जा सकती हो? मां ने कहा – ऐसा मैं क्यों करूंगी? बिटिया ने मासूमियत से कहा तो फिर आप मुझे उसके पास क्यों छोङ जाती हो?
संतान को जन्म देने से पूर्व दम्पति को इन सभी पर विचार करना होगा। आपने समाज को केवल एक नागरिक ही नहीं देना, श्रेष्ठ नागरिक देना है जो भविष्य में स्वयं भी श्रेष्ठ संतान को जन्म देने के संस्कार रखता हो क्योंकि श्रेष्ठता तो पीढी दर पीढी चलती है। समाज, राष्ट्र और विश्व में नाम कमाने वाली संतान के लिए विचार कर कुछ त्याग करने होंगे क्योंकि –
‘जननी जने तो भक्तजन या दाता या शूर, नहीं तो जननी बांझ रहे व्यर्थ गंवाए नूर’
अपनी दिनचर्या, आहार एवं विहार आदि के माध्यम से दम्पति को अपने तन और मन को स्वस्थ रखना है। तब ही वे उत्तम संतान को जन्म देकर अपने ऋण से उऋण हो सकेंगे।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)
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अति उत्तम।भारतीय ज्ञान परम्परा के अनुसार जीवन यापन व वंश वृद्धि ही समाज कल्याण हेतु संतान प्राप्ति का उत्तम प्रकार है।मेरा स्वयं का अनुभव है।