शिशु शिक्षा 24 (जन्म से एक वर्ष के शिशुओं की माताओं का शिक्षण-4)

  – नम्रता दत्त

शिशु के खिलौने एवं वस्त्र

22 जून को आर्यांश एक वर्ष का हो गया था। उसके जन्मदिन के अवसर पर परिवार में मेरा भी जाना हुआ। शाम को खूब धूमधाम से परिवार एवं अतिथियों ने होटल में जन्मदिन मनाया। उपहार भी ढेर सारे आए। रात को पार्टी के बाद घर के बङे बच्चों ने उपहारों को खोलने की जिद्ध की। उपहार खोले गए। अधिकांशतः उपहारों में खिलौने और वस्त्र ही निकले। इससे अच्छे उपहार हो भी क्या सकते थे! बच्चे को इसकी आवश्यकता है, ऐसा जानते और समझते हुए ही यह सामग्री भेंट स्वरूप दी गई। आर्यांश तो सो चुका था, परन्तु बङे बच्चों ने खिलौनों का खूब आनन्द लिया। बैटरी/चाबी से चलने वाले सभी खिलौने बहुत आकर्षक थे। किसी में लाइट जलती थी, किसी में संगीत बजता था, कोई संगीत के साथ नाचता/चलता था। खिलौने देखने से ही उनकी कीमत का अनुमान लगाया जा सकता था। मध्यम वर्गीय परिवारों ने भी जन्मदिन की दी गई पार्टी को देखते हुए महंगे उपहार दिए।

यही हाल वस्त्रों का भी था। वस्त्र तो कीमती थे परन्तु गर्मी के मौसम में एक वर्ष का शिशु उन्हें पहनकर आराम/सुखद अनुभव नहीं कर सकता, ऐसा आभास उन्हें देखने मात्र से ही हो रहा था। अतः इस अवस्था में खिलौने और वस्त्रों के चयन करने का ज्ञान एवं दृष्टि भी माता पिता को स्पष्ट होनी चाहिए क्योंकि शिशु को संस्कारित करने अथवा शिशु शिक्षा और विकास में इनकी अहम् भूमिका है।

जन्म के पश्चात् शिशु की ज्ञानेन्द्रियां सक्रिय हैं और कर्मेन्द्रियों को वह स्वयं सक्रिय करने का प्रयास करता है। ऐसी अवस्था में खिलौनों एवं वस्त्रों की अहम् भूमिका है। खिलौनों के रंग एवं ध्वनि बच्चे को आकर्षित करते हैं। यही आकर्षण उसकी ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों को सक्रिय करता है। वस्त्र भी ऐसे हों जिसमें उसकी कर्मेन्द्रियां (विशेषकर हाथ और पैर) सहजता का अनुभव करें। आइए इसकी आवश्यकता और सावधानियों की सूक्ष्मता को समझने का प्रयास करें –

हम जानते हैं कि यह शरीर पंचमहाभूत तत्वों से बना है। इस प्रकृति में व्याप्त प्रत्येक गुण से इस शरीर का विकास होता है। इसीलिए शिशु स्वयं ही प्रकृति के सानिध्य में रहना चाहता है। माता पिता को भी इस बात का बोध होना चाहिए और उन्हें यह प्रयास करना चाहिए कि उसकी आवश्यकता और उपयोग में आने वाली वस्तुएं भी सम्भवतः प्राकृतिक हों।

शिशु के खिलौने

  • शिशु के खिलौने लकङी के बने होने चाहिए क्योंकि हर चीज को मुंह में डालना शिशु का स्वाभाव है (जिह्वा भी एक ज्ञानेन्द्रिय है और ज्ञानेन्द्रिय से ही शिशु अनुभव प्राप्त करता है।) आज बाजार में ज्यादातर खिलौने प्लास्टिक के मिलते हैं। जागरूक अभिभावक स्वयं तो प्लास्टिक के बर्तनों में भोजन करना पसन्द नहीं करते परन्तु बच्चों को प्लास्टिक के खिलौने देते हैं। प्लास्टिक प्राकृतिक नहीं है अपितु सिंथेटिक है। अतः यह बच्चे के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
  • प्रकृति के सात रंगों को हम सबने इन्द्रधनुष के रूप में देखा है। प्रकृति में रहना आज भी हमें आनन्दित करता है। इसी प्रकार बच्चे को भी रंग आकर्षित करते हैं। अतः यह तो आवश्यक है कि खिलौने रंग बिरंगे हों परन्तु उनके रंग सिंथेटिक (गहरे और चटकीले) न हों यह ध्यान रखना चाहिए। खिलौनों में बदल बदल कर जलती हुई चटकीली रोशनियों का दुष्प्रभाव उसकी आंखों पर तो होता ही है और कईं बार बच्चा इन रोशनियों से डर जाता है और खिलौने से नहीं खेलता।
  • जन्म से छः माह तक के बच्चे को ध्वनि करने वाले खिलौने अच्छे लगते हैं। अतः मधुर ध्वनि करने वाले रंग बिरंगे लकङी के झुनझुने ही देने चाहिए। ध्यान रखें कि यह नुकीले अथवा धारदार न हों।
  • अपनी कर्मेन्द्रियों को सक्रिय करने के अभ्यास में बच्चा हर चीज को जमीन पर मारकर उसकी आवाज को सुनता है। अतः ऐसे में उसे बहुत महंगे खिलौनों की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि जमीन पर मारने के कारण वह टूट ही जाएगी। ध्वनि करने वाली कोई भी वस्तु उसके लिए खिलौना है जैसे- माचिस/खाली डिब्बे में भरे कंकङ, कटोरी और चम्मच आदि।
  • छह माह के बाद जब वह चलने का अभ्यास करता है तो कुछ लुढकने वाले/पहियों वाले खिलौनों की आवश्यकता होती है। इस समय में भी पाउडर का खाली गोल डिब्बा अथवा लकङी का पहियों वाला मजबूत खिलौना देना चाहिए।
  • खिलौनों का स्वरूप भी संस्कार देता है। अतः उनका स्वरूप मांगलिक होना चाहिए जैसे पशु/पक्षी, गाङी, गेंद आदि। तोप, बन्दूक और टैंक जैसे खिलौने नहीं देने चाहिए। स्वरूप में भी बनावटीपन/भयानकता (कार्टून) नहीं होनी चाहिए। टेडी बियर आदि के स्थान पर मानव स्वरूप के गुड्डे, गुङिया आदि खेलने के लिए देने चाहिए इससे उसके व्यवहार में मानवीय संवेदना जागृत होती है।
  • एक वर्ष तक के बच्चे को महंगे इलैक्ट्रोनिक खिलौने देना उसके विकास के लिए उपयोगी नहीं है अपितु यह हानिकारक ही सिद्ध होंगे। महंगे खिलौने लाङ प्यार दिखाने के लिए नहीं अपितु उसके विकास के लिए आवश्यक हैं। अतः इस विषय को ध्यान में रखते हुए ही इनका चयन करना चाहिए।
शिशु के वस्त्र

शिशु के लिए कीमती वस्त्रों से अधिक महत्व स्वास्थ्यप्रद वस्त्रों का है।

  • अतः वस्त्र ऋतु अनुकूल होने चाहिए। सर्दियों में गर्म तथा गर्मियों में सूती वस्त्र ही पहनाने चाहिए। सिंथेटिक वस्त्र किसी भी ऋतु में स्वास्थ्यप्रद नहीं होते।
  • बाहर जाने पर भी सिर पर ऋतु अनुकूल सूती और ऊनी टोपी पहनानी चाहिए।
  • वस्त्र न ही अधिक ढीले हों और न ही अधिक कसे हुए। वह सुगमता से अपने हाथ पैर हिला सके, ऐसे होने चाहिए। अत्यधिक कसाव उसके रक्त संचार एवं श्वसन तंत्र को प्रभावित करता है।
  • शिशु के वस्त्र में एलास्टिक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कोमल त्वचा पर एलास्टिक आदि से निशान हो जाते हैं। जिसके कारण विकास में अवरोध उत्पन्न होता है।
  • वस्त्रों पर कार्टून के चित्र बने हुए नहीं होने चाहिए क्योंकि इन्द्रियों से प्राप्त अनुभव का प्रभाव उसके व्यक्तित्व पर भी पङता है।
  • हर समय जूते-मोजे पहना कर नहीं रखना चाहिए क्योंकि त्वचा भी सांस लेती है।
  • रात्रि के वस्त्र अलग होने चाहिए। डॉयपर लगाकर नहीं सुलाना चाहिए। इससे स्पर्शेन्द्रिय की संवेदनशीलता समाप्त हो जाती है।

शिशु को लाड-प्यार से पालने का अर्थ केवल धन व्यय करना ही नहीं है बल्कि उसकी आवश्यकता के अनुरूप साधन सामग्री को जुटाने की है। विकास के उपयोगी एवं संस्कारित साधन आसपास के परिवेश में बिना धन खर्च किए भी मिल सकते हैं। धन को उसके भविष्य के लिए बचा कर रखें। यह दृष्टि हीन भावना की नहीं अपितु संसाधनों का उचित उपयोग करने की है।

(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)

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