– नम्रता दत्त
अभी तक शिशु शिक्षा की श्रृंखला में हमने लालयेत् पंचवर्षाणि की चर्चा की। शैशवास्था अर्थात् 0 से 05 वर्ष में शिशु शिक्षा का आधार स्तम्भ ही उसका पालन पोषण लाड प्यार से करना है। इसीलिए उसकी प्रथम गुरु ‘मां’ और शिक्षा का केन्द्र ‘घर’ को कहा गया है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने प्रारम्भिक बाल्यावस्था को 0 से 08 वर्ष माना है और उसको सीखने की नींव का नाम दिया है। अतः शिशु शिक्षा की इस श्रृंखला में बाल्यावस्था पर भी दृष्टि डालने का विचार आया।
शैशवास्था के पश्चात् बाल्यावस्था आती है। अतः चाणक्य की उक्ति के अनुसार 06 वर्ष की आयु से 15 वर्ष की आयु (5 वर्ष के पश्चात् अगले 10 वर्ष) तक बालक को ताङना में रखना चाहिए। यहां ताङना से अर्थ मारने से नहीं है अपितु बालक पर दृष्टि रखने से है। यूं तो अभी तक उसने परिवार के वातावरण में अपने परिवारजन का अनुकरण करके ही अनुभव प्राप्त किया है। यदि परिवार का वातावरण संस्कारक्षम है तो ताङना की अधिक आवश्यकता नहीं पङती। परन्तु क्योंकि यह काल उसके लिए संक्रमण काल है इसलिए वह इससे संक्रमित न हो जाए तो कुछ सावधानियां रखने की आवश्यकता है। अभी तक वह परावलम्बी था और अब स्वावलम्बी बन रहा है तो विशेष ताङना उसके व्यवहार और संग के प्रति रखनी पङती है। यह संयम एवं अनुशासन सीखाने का समय है। वास्तव में तो शिक्षा व्यवहार से ही झलकती है। इस अवस्था में उसके विकास का केन्द्र घर के साथ साथ विद्यालय एवं गुरु के रूप में माता-पिता के साथ विद्यालय के शिक्षक भी होते हैं।
गुरु को हम कुम्हार की उपाधि भी देते हैं। कुम्हार जब मिट्टी तैयार करता है तो उसके सब कंकङ पत्थर निकाल कर उसे शीतल जल में भिगोता है। तैयार मिट्टी को वह चाक पर चढाता है और अपने कोमल हाथों की सहायता से उस मिट्टी से वह जैसा भी पात्र (घङा, सुराही, दिया आदि ….) तैयार करना चाहता है वैसा ही करता है। लेकिन उस पात्र को मजबूत बनाने के लिए वह उसे आग की भट्टी में भी पकाता है। यदि वह ऐसा न करे तो मिट्टी को तैयार करने गूंधना एवं चाक पर चढाकर गढना, सब व्यर्थ ही हो जाएगा क्योंकि वह पात्र उपयोग में लाने योग्य तो बनेगा ही नहीं। बिल्कुल यही अर्थ है – दश वर्षाणि ताङयेत का। कोमल हाथों (लालयेत् पंचवर्षाणि) से पात्र तो गढ गया परन्तु उसे मजबूत बनाने के लिए आग की भट्टी (ताङना) में रखना आवश्यक है।
बालक की इन्द्रियां (ज्ञानेन्द्रियां एवं कर्मेन्द्रियां) भी अब विकसित हो गई हैं। उसमें सूक्ष्म बुद्धि का विकास भी होने लगा है। उसके व्यवहार का दायरा भी अब बढने लगता है। जीवन के 85 प्रतिशत संस्कार यदि पांच वर्ष की आयु तक होते हैं तो 99 प्रतिशत चरित्र का निर्माण 12 वर्ष की आयु तक होता है। ऐसे समय में उसे अधिक संभाल की आवश्यकता पङती है। यदि इस समय में इन्द्रियों को संयम में रखना सीखा दिया जाए तो ‘प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रं समाचरेत्’ आसानी से हो सकता है। जिसको अपनी इन्द्रियों पर संयम रखना आता है वही वास्तव में शिक्षित है। अतः यह ही समग्र विकास की अवस्था है। ऐसे में ही सही गुरु (माता-पिता/शिक्षक) की आवश्यकता होती है जो उसकी इन्द्रियों को सही दिशा दे सकें।
स्वाद का संयम, समय का संयम, वाणी का संयम, अर्थ (धन) संयम, आज्ञा पालन आदि आदि गुण इस ताङना से ही विकसित होंगे। इस समय में कठोर बनना ही होगा। इस समय में जो संस्कार मजबूत हो जाएँगे वही जीवन पर्यन्त चलेंगे। यह संयम केवल बालक के लिए ही नहीं है, अपितु सम्पूर्ण वातावरण को संयमित बनाना होगा।
मेरी एक परिचिता ने मुझे बताया कि कल पूरा दिन लाईट न होने के कारण फ्रीज में जितनी भी ready to eat वाली चीजें रखी थीं वह सब खराब हो गईं और सब फेंकनी पङी। उनके घर में 6 वर्ष का पोता और 8 वर्ष की पोती है। उनको यह सब खाने का शौक है तो एक महीने के राशन के साथ यह सब सामान भी आता है। क्या यही है स्वाद का संयम और संस्कार या माता के हाथ का घर का बना भोजन, पेट भर कर खाया जाए यह संयम है। स्वास्थ्य की बर्बादी के साथ साथ धन की भी दोहरी (खाने पर और दवाई पर) बर्बादी।
मेरे घर के सामने ही पार्क है। मैं जब पार्क में अपने नाती नातिन के साथ जाती हूँ तो देखती हूँ कि बहुत देर से झूला झूल रहे बच्चे दूसरों को झूला झूलने ही नहीं देते और माता पिता भी उनसे ऐसा करने को नहीं कहते और यदि कहते भी हैं तो वे उनका कहना नहीं मानते। रात के 11 बजे भी वह पार्क में से जाना नहीं चाहते। ऐसा लगता है कि माता-पिता बच्चों को नहीं पाल रहे बल्कि बच्चे माता पिता को पाल रहे हैं।
श्रुति प्रतिदिन विद्यालय 5 मिनट देरी से ही पहुंचती है। टीचर ने उसकी मम्मी से पूछा तो उन्होंने बताया कि जब शौच के लिए जाती है तो समय से बाहर ही नहीं निकलती। शौचालय का दरवाजा बन्द होता है, मैं बाहर से चिल्लाती रहती हूँ। इसे समय का कुछ ध्यान ही नहीं रहता। यदि ऐसी छोटी छोटी आदतें उनको डांटकर सख्ती से इस समय सीखा दी जाएं तो वह भविष्य में संस्कार बन जाती हैं। हम सबने अनुभव किया होगा कि सङक पर गाङी चलाते समय लोग मोबाइल पर बात करते रहते हैं या पैट्रोल पम्प पर पैट्रोल भरवाने के बाद भी मस्ती से गाङी स्टार्ट करते हैं, उन्हें न अपने समय की चिन्ता है न ही दूसरों के समय की। यह वही बच्चे हैं जिन्हें उनके माता पिता ने ताङना देकर ये संस्कार नहीं दिये।
यह सब तो हुई अनौपचारिक शिक्षा की बात। लेकिन यही समय औपचारिक शिक्षा की पूर्व तैयारी का भी है। अनौपचारिक और औपचारिक शिक्षा के बीच में 5 से 6 वर्ष की यह आयु एक सेतु (bridge) की भांति कार्य करती है। यह भी तो उसके लिए संक्रमण काल ही है। बच्चे को भाषा और संख्या ज्ञान (मौखिक) सीखाना है। ऐसे में शिक्षक को बङी निपुणता का परिचय देना है ताकि बच्चे को खेल खेल में जीवनोपयोगी, क्रमबद्ध तथा सातत्य पूर्ण ज्ञान भी दे दें और पढाई के प्रति उसमें रूचि भी जगा दें। दोनों ही ज्ञान जीवन व्यवहार में उपयोगी हैं। वाणी विकास के लिए यह आवश्यक है कि वह शुद्ध उच्चारण के साथ धारा प्रवाह बोलकर अपने मन के भावों को व्यक्त करने के लिए सामर्थ्यवान बन सके। इसके लिए गीत, संगीत, कहानी, नाटक, वार्तालाप, श्लोकों, सूत्रों एवं मंत्रों का उच्चारण एवं ॐ ध्वनि का उच्चारण करना रूचिपूर्ण एवं सहायक सिद्ध होंगे।
संख्या ज्ञान भी कोई पढने एवं रटने का ज्ञान नहीं है। यह समझने का ज्ञान है। वर्तमान समय में इसको रटाने पर अधिक बल दिया जाता है। परन्तु 1 से लेकर 9 तक की गिनती में बच्चे को जोङना एवं घटाना भी सीखाया जा सकता है जैसे- 1 + 1 = 2, 2 + 1 = 3……., 9 – 1 = 8, 8 – 1 = 7 और 1 – 1 = 0 । शून्य की संकल्पना (concept) अंक 9 के पश्चात ही देनी चाहिए। कक्षा में उपस्थित वस्तुओं से ही बच्चों को संख्या एवं गणित की अन्य संकल्पनाएं जैसे- छोटा-बङा, पतला-मोटा, हल्का-भारी आदि सीखा सकते हैं। ऐसे उदाहरणों को वह भी तत्काल ही जीवन से जोङकर समझने लगता है। शिक्षा संस्कार आधारित हो, इसका विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है। यह संस्कार ही जीवन के प्रति बच्चे के दर्शन को विकसित करने में सहायक होंगे।
“महर्षि अरविन्द ने कहा है – ‘शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते है। वे संस्कारों की जङों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच कर महाप्राण शक्तियां बनाते हैं।’
स्मरण रखें कि माता पिता बच्चे के प्रथम एवं सर्वश्रेष्ठ शिक्षक (इसके लिए किसी प्रकार की प्रशासनिक डिग्री लेने की आवश्यकता नहीं होती) होते हैं और विद्यालय के टीचर भी होते हैं। आज की पाश्चात्य संस्कृति को आधुनिकता समझने वाले और समाज में वैचारिक प्रदूषण/संस्कार हीनता फैलाने वाले माता पिता को प्रशिक्षित करने का दायित्व विद्यालयों को लेना होगा।
इस श्रृंखला के अगले सोपान में मूलभूत साक्षरता एवं संख्यात्मक ज्ञान (Foundational Literacy and Numeracy) पर चर्चा करेंगे।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)
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