– नम्रता दत्त
‘शिक्षा’ विकास की जीवन पर्यन्त चलने वाली एक सतत् प्रक्रिया है। गत सोपानों के अध्ययन के आधार पर यह भी समझ में आया कि यह पूर्व गर्भावस्था से ही प्रारम्भ हो जाती है और यहीं से 05 वर्ष की आयु तक इसका विशेष महत्व है क्योंकि मात्र इसी कालखण्ड में शिशु का चित्त अधिक सक्रिय रहता है। ऐसी स्थिति में वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों (आंख, कान, नाक, जिह्वा एवं स्पर्श) से जो भी अनुभव प्राप्त कर लेता है वही कर्मेन्द्रीय (हाथ, पैर एवं वाणी) द्वारा उसकी अभिव्यक्ति/व्यवहार में उतर जाता है अर्थात् उसका संस्कार बन जाता है या यूं कहें कि उसके चरित्र/व्यक्तित्व का निर्माण उसी के कारण होता है। इसीलिए कहा गया कि 5 वर्ष की आयु तक जीवन का 85 प्रतिशत विकास (जिसको शिक्षा का ही पर्याय कहेंगे) हो जाता है।
इस कालावधि में उसके हाथ, पैर एवं भाषा आदि की गतिविधियां बढने लगती हैं। ऐसी स्थिति में परिवार का दायित्व उसकी शारीरिक एवं मानसिक सुरक्षा के प्रति बढ जाता है। शिशु को कोई भी कार्य जबरदस्ती नहीं कराया जा सकता। वह सब कार्य अपनी अन्तःप्रेरणा से ही करता है। परिवार का प्रेम एवं सुरक्षा ही ऐसे में उसके विकास का सम्बल बनते हैं। अनजाने में शिशु को दिया गया भय शिशु के विकास में बाधक तो बनता ही है साथ ही कुसंस्कार का कारण भी बन जाता है। माता स्वयं ही शिशु को बिल्ली का, कुत्ते का, पुलिस का, साधु बाबा, विद्यालय और अध्यापक का डर दिखाकर शिशु में इन सभी के प्रति नफरत का संस्कार पैदा कर देती है।
शिशु अपना विकास अपनी अन्तःप्रेरणा से आनन्द से करता है। वह अपने पैरों के विकास के लिए गिर कर उठता है उठकर गिरता है परन्तु जब तक खङे होकर…..चलना…..दौङना…उछलना…..कूदना में पारंगत नहीं हो जाता तब तक हिम्मत नहीं हारता। पैरों की ही भांति वह हाथों से कुछ उठाता है….गिराता है…तोङता है….कुछ बनाता है। स्वयं को स्वावलम्बी बनाने का प्रयास करता है। इसके लिए परिवार जन का प्रेम, सुरक्षा और स्वतंत्रता उसको बल देती है।
एक वर्ष का शिशु बोलने का अभ्यास भी करता है। पहले एक अक्षर बोलता है मां, बा, पा। फिर दो दो अक्षर बोलने लगता है मामा, बाबा, पापा। तीन वर्ष तक वह छोटे गीत और कहानी सुनाने लगता है। भाषा, शिशु अनुकरण के द्वारा सीखता है। जैसा सुनेगा, वैसा ही बोलेगा। इसलिए जब वह तुतलाकर बोले तो परिवार को शुद्ध और साफ ही बोलना चाहिए ताकि वह भी साफ बोलने का अभ्यास करे। उसके सामने हमेशा सभ्य भाषा में ही बातचीत करें। विशेष ध्यान रखें कि गर्भावस्था के दौरान शिशु ने जो भाषा सुनी हो, उसी भाषा में बात करें।
एक से तीन वर्ष की इस अवस्था को क्षीरादान्नावस्था अर्थात् दूध के साथ अन्न का सेवन करना भी शुरू कर देता है। एक वर्ष के शिशु की कर्मेन्द्रियों की क्रियाशीलता भी बढ जाती है। ऐसे में उसे अधिक ऊर्जा (एनर्जी) की आवश्यकता होती है। अधिक परिश्रम करने के कारण उसे अधिक भूख लगती है। अब केवल दूध से उसकी पूर्ति नहीं होती। परन्तु अभी मुख में पूरे दांत भी नहीं हैं इसलिए उसे ऐसे भोजन की आवश्यकता है जिसे वह आसानी से पचा सके जैसे :-खिचङी, दाल-चावल, हलवा, खीर आदि। उसकी स्वादेन्द्रिय (जिह्वा) द्वारा संस्कार देने का यही उचित समय है। इसी समय में सभी प्रकार की दाल सब्जियां खिला कर माता उसको श्रेष्ठ संस्कार डाल सकती है। शिशु अभी परिवार के सदस्यों पर निर्भर है और इस समय उसकी जिह्वा को माता जैसा स्वाद चखाएगी वह उसे ही स्वीकार कर लेगा। यह माता पर निर्भर है कि वह उसे बिस्कुट, टॉफी, मैगी, पास्ता, बर्गर, पिज्जा खिलाएगी या घर में बनी दाल सब्जी और चावल आदि। जिन माताओं को यह शिकायत रहती है कि बच्चा यह दाल सब्जी नहीं खाता, उसमें कहीं न कहीं दोष उनका ही होता है, यह बात उन्हें जान और मान लेनी चाहिए। अन्न का प्रभाव तन के साथ साथ मन पर भी पङता है। अतः तन एवं मन को संस्कारित करने के लिए इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए। इसी के साथ कुछ अन्य संस्कार भी जैसे :- समय पर खाना, हाथ धो कर खाना, चबा चबाकर खाना, बैठकर खाना आदि आदि का ध्यान भी रखना चाहिए।
आहार के साथ ही शिशु के विहार का भी ध्यान रखना चाहिए। उसके सोने एवं जागने का समय, स्नान का समय एवं भोजन करने का समय आदि की आदतें श्रेष्ठ संस्कार बनकर जीवन पर्यन्त उसके साथ चलती हैं। इस अवस्था में शिशु ‘मैं’ के साथ ‘मेरा परिवार’ के भाव को सीखता है। ऐसे में उसको परिवार के सदस्यों का पूरा परिचय एवं सानिध्य का अनुभव देना चाहिए।
बाहर जाना, घूमना- फिरना शिशु को अच्छा लगता है। परन्तु शिशु को कहां ले जाना, क्या दिखाना, कैसे दिखाना यह दृष्टि परिवार को होनी चाहिए। इस सृष्टि में जीव जन्तु, कीट पतंगे, पशु पक्षी , वन, वनस्पति आदि सब कुछ है। इनका परिचय कराना, उनसे आत्मीयता जोङना, उन्हें नुकसान न पहुंचाना…..ये सब बातें परिवार को बङी कुशलता से इसी अवस्था में बतानी चाहिए क्योंकि यही उसका प्रथम अनुभव है। वह जैसा देखेगा, जैसा सुनेगा, वैसा ही करेगा। उसको प्रकृति के सानिध्य में अत्यधिक रखें। पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, गगन) से बना यह शरीर जितना अधिक उसके सानिध्य में रहेगा उतना ही खिलेगा। वह बढती हुई पौध है। जो मिट्टी में खेलता है वही इस मिट्टी से जुङता है, वही मातृभूमि पर अपना जीवन बलिदान कर सकता है। इसी प्रकार व्यष्टि (स्वयं) से समेष्टि, सृष्टि और परमेष्ठि (परमात्मा) तक जाने का संस्कार देने की यह प्रथम सीढी है। परिवार के सदस्यों द्वारा दिया गया प्रेम, प्रकृति का सानिध्य और उसके प्रति आत्मीय भाव ही उसे अप्रत्यक्ष रूप से परमात्मा से ज़ोड़ देता है।
इसी अवस्था में शिशु को कुछ अवांछनीय आदतें भी पङ जाती हैं जैसे अंगूठा चूसना, बिस्तर गीला करना, मिट्टी खाना, दांत किटकिटाना तथा जननांगों (प्राइवेट पार्ट) से खेलना। इन अवांछनीय आदतों को यदि समय रहते ध्यान नहीं दिया जाता तो यह दस से बारह वर्ष अथवा युवावस्था तक भी चलती हैं। अतः परिवार को समय रहते ही इनका कारण जान कर निवारण कर लेना चाहिए।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)
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