– नम्रता दत्त
शिशु शिक्षा की श्रृंखला के गत तीन सोपानों में हमने शिक्षा क्या है एवं शिशु क्या है तथा वर्तमान में शिशु शिक्षा के प्रति कितनी अमनोवैज्ञानिक धारणायें हैं जो आज प्रचलित हैं – इस सब पर विचार किया। हम जानते हैं कि इस सबके चलते हम शिक्षा के मूल उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकते। आज का सामाजिक वातावरण इस सबकी पुष्टि भी कर रहा है। इसके दुष्परिणामों को देखते हुए नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने शिशु शिक्षा पर भी विशेष चिन्तन कर उसमें आवश्यक संशोधन की योजना बनाई है।
भारतीय मनोविज्ञान के अनुसार कहा गया है – ‘लालयेत् पंचवर्षाणि’ अर्थात पांच वर्ष की अवस्था तक शिशु का लालन पालन प्यार से करें। यदि व्यवहारिक आधार मनोवैज्ञानिक है तो इसके पीछे सिद्धांत भी अवश्य मनोवैज्ञानिक ही होगा। तो आइए आज इस रहस्य को भी जान लें।
शिक्षा बालक का समग्र विकास करती है और यह जन्म से लेकर आजीवन चलने वाली क्रमशः और सतत् प्रक्रिया है। तो यह निश्चित है कि इस प्रक्रिया का क्रम शैशवास्था से ही प्रारम्भ होता है।
संसार के सभी मनोवैज्ञानिकों का यह मानना है कि व्यक्ति का 89 प्रतिशत विकास इस शैशवास्था में ही हो जाता है। शिशु के भावी व्यक्तित्व निर्माण के लिए यह बीजारोपण का समय है। यह बीज बोने का काल यदि ऐसे ही बीत गया और बीज नष्ट हो गया तो बाद में कितना भी खाद पानी डालने पर भी फल हाथ नहीं आता। इस बीजारोपण के लिए शिशु के मन रूपी भूमि को तैयार करना पड़ता है और भयभीत मन बीज को स्वीकार नहीं करता है। अतः इस समय में शिशु को प्रेम, स्नेह और सुरक्षा की आवश्यकता होती है।
भोगोलिक वातावरण के आधार पर भी हम देखते हैं कि मरूस्थल एवं नमी वाले स्थानों में कैसे वृक्ष और फल होते है। अतः शिशु भी एक नन्हीं पौध है उसे जैसा वातावरण (प्रेमपूर्ण/कठोर) मिलेगा वैसा फल लगेगा।
जन्म से पूर्व माता के गर्भ में उसका माता के साथ सुरक्षा का तारतम्य स्थापित हो जाता है। इसलिए जन्म के बाद भी वह माता की गोद में सुरक्षा एवं सुख का अनुभव करता है। माता की उपस्थिति में उसे सब अच्छा लगता है। शैशवास्था का यह समय उसके लिए बड़ा संक्रातिकाल का समय होता है क्योंकि इस समय में उसकी अभिवृद्धि और विकास दोनों ही होने हैं। उसे परावलम्बी से स्वावलम्बी बनना है। यह सब विकास होना स्वाभाविक प्रक्रिया है जो स्वतः ही सहजता से होती जाएगी बशर्ते कि हम शिशु के मनोविज्ञान को समझ कर उसे उचित वातावरण दे पाएं।
इस अवस्था को संस्कार ग्रहण करने की अवस्था भी कहा जाता है। अतः संस्कार ग्रहण करने का प्रथम विद्यालय ‘घर’ एवं प्रथम गुरू ‘मां’ को ही माना गया है। घर का संस्कारक्षम वातावरण एवं माता का स्नेह ही उसे संस्कारित कर सकता है। घर से बाहर किसी विद्यालय के प्रांगण में माता जैसा प्रेम और सुरक्षा मिलना सम्भव नहीं है। विद्यालय में एक आचार्य के पास 30 से 40 शिशु होते हैं जिन्हें प्रेमपूर्वक सम्भालना कठिन कार्य है।
शैशवास्था ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों के समन्वय की अवस्था है। अतः शिशु को ऐसे वातावरण की आवश्यकता होती है जहां उसे ज्ञानेन्द्रियों से उचित अनुभव प्राप्त हो और वह कर्मेन्द्रियों से क्रिया करके जो ज्ञान प्राप्त करे वह उसके चित्त पर श्रेष्ठ संस्कार के रूप में अंकित हो सके। ऐसे में विद्यालयों में भाषा और गणित आदि विषयों के शिक्षण के लिए उसका मन और बुद्धि सक्षम नहीं होती अर्थात् इस बीजारोपण के लिए उसकी मन रूपी भूमि तैयार नहीं है। यह मरूस्थल (रूक्षभूति) में बीज बोने के समान है। उसे तो रेत, मिट्टी और पानी में खेलना अच्छा लगता है। उसे खेल, गीत, कहानी और खिलौनों को तोड़ना और जोड़ना अच्छा लगता है। यही उसकी स्वाभाविक विशेषतायें हैं जो उसकी अभिवृद्धि और विकास में सहायक सिद्ध होती हैं। यदि उसकी स्वाभाविक क्षमताओं के विपरीत उसे सीखाया जाता है तो उसके विपरीत परिणाम ही होते हैं। जैसे दो मास का शिशु रोटी नहीं खा सकता, चार मास का शिशु चल नहीं सकता परन्तु छह मास के पश्चात् वह अन्न ग्रहण करने लगता है और एक वर्ष का होते होते उसे पकड़ कर बैठाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि अब वह सक्षम है और अपने कार्य में सिद्धता प्राप्त करना चाहता है।
किसी ने कहा है – धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होए, माली सीचें सौ घङा, ऋतु आए फल होए।
अतः लाड से पालना का पर्याय यहां धैर्यता से ही है। शिशु मनोविज्ञान को जान समझ कर ही शिशु को घर अथवा विद्यालय में उचित वातावरण देना चाहिए।
उपरोक्त में सामान्यतः हमने शिक्षा को आधार मानकर विचार किया है। परन्तु यह लाड प्यार पांच वर्ष तक देने की बात कही गई है और यह कालखण्ड शून्य से 05 वर्ष का है। अतः इस कालखण्ड को विद्या भारती ने निम्नलिखित पांच खण्डों में विभाजित किया है –
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नवदंपति शिक्षण (गर्भाधान पूर्व तीन मास) ।
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गर्भवती शिक्षण (गर्भावस्था के नौ मास) ।
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जन्म से एक वर्ष के शिशुओं की माता का शिक्षण (क्षीरादावस्था)।
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एक वर्ष से तीन वर्ष के शिशुओं की माता का शिक्षण (क्षीरादान्नावस्था)।
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तीन से पांच वर्ष के शिशुओं की माता का शिक्षण (अन्नादावस्था)।
लालयेत् पंचवर्षाणि का यह प्रशिक्षण माताओं को ही देना आवश्यक एवं अनिवार्य है तब ही शिशु शिक्षा प्रभावी हो पाएगी।
इस सोपान की अगली श्रृंखला में हम परिवार में शिशु के संगोपन की व्यवस्था पर विचार करेंगे।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)
और पढ़ें : शिशु शिक्षा – 3 (जीवन विकास की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया)