1857 के स्वातंत्र्य समर में दिल्ली लड़ती है – 3

 – रवि कुमार

महेश्वर दयाल द्वारा लिखित ‘दिल्ली मेरी दिल्ली’ पुस्तक में वर्णित है कि इंद्रप्रस्थ यानी दिल्ली अपने जीवन काल में लगभग 300 बार उजड़ी और बसी है। भारत में शायद ही ऐसा कोई नगर होगा जिसके साथ ऐसा हुआ हो। मन में प्रश्न आता है कि दिल्ली के साथ ही ऐसा क्यों हुआ? खोजने पर ध्यान में आया कि भारत में अधिकांश आक्रमण खैबर दर्रे से हुए। इस मार्ग से लाहौर के बार पहला बड़ा नगर दिल्ली ही होता था। 21 सितम्बर 1857 यानी दिल्ली पर पुनः अंग्रेजों के अधिकार होने के बाद जो हुआ, वह दिल्ली ने शायद ही पहले देखा हो। क्या हुआ होगा उससे पहले व बाद में…?

ब्रिटिश सेना का घेरा बढ़ता चला गया और क्रांतिकारियों की ओर से घेरा कमजोर पड़ने लगा। दिल्ली का तीन चौथाई भाग अंग्रेजों के हाथ में चला जाने के बाद दिल्ली में क्रांतिकारियों के सेनापति बख्तर खां ने दिल्ली छोड़ने का निश्चय किया। बख्तर खां बादशाह से मिले और बोले, “दिल्ली तो अपने हाथ से चली गई है, परंतु इससे विजय की सारी संभावना अपने हाथ से निकल गई, ऐसा नहीं है। बंद स्थान से लड़ाई लड़ने की अपेक्षा खुले प्रदेश से शत्रु को परेशान करने का दाँव अभी भी निश्चित विजयी होने वाला है।”

बहादुरशाह जफर को भी बख्तर खां ने सुझाव दिया, “शत्रु की शरण में जाने की अपेक्षा लड़ाई करते हुए बाहर निकल जाना ही हमें इष्ट लगता है। ऐसे समय आप भी हमारे साथ चलें और अपने झंडे के नीचे हम स्वराज्य के लिए ऐसे ही लड़ते रहें।” परन्तु बादशाह ने ऐसा नहीं किया और दिल्ली न छोड़ने का निश्चय किया। अंतिम समय तक बादशाह ने अपनी अनिश्चितता और चंचलता बनाए रखी। बख्तर खां का निमंत्रण अस्वीकार कर इलाही बख़्श मिर्जा के उपदेश के अनुसार अंग्रेजों की शरण में जाने लगा। इलाही बख़्श ने विश्वासघात किया। उसने यह समाचार अंग्रेजों को दे दिया। अंग्रेजों ने तत्काल कैप्टन हडसन को उधर भेजा। जीवनदान का वचन लेकर बादशाह ने समर्पण किया और अंग्रेजों ने उसे महल में लाकर कैद में डाल दिया। बादशाह के शहजादों को हडसन ने गोली मारकर मृत्युदंड दिया। विलियम हडसन ने अपनी बहन को पत्र में लिखा, “मैं स्वभाव से निर्दयी नहीं हूँ लेकिन मैं मानता हूँ इन कमबख्त लोगों को धरती से छुटकारा दिला कर मुझे बहुत आनंद की अनुभूति हुई।” यह हडसन की क्रूरता और दिल्ली को हथियाने में मारी गई अंग्रेजी सेना के बदले के रूप में दर्शाता है।

इसके बाद दिल्ली में भयंकर विनाश हुआ। लार्ड एलफिंस्टन जॉन लारेंस को लिखता है- “दिल्ली का घेरा समाप्त हो जाने पर अपनी सेना ने दिल्ली का जो हाल किया वह हृदयद्रावक है। शत्रु और मित्र का भेद न करते हुए सरेआम बदला लिया जा रहा है। लूट में तो हमने नादिरशाह को भी मात दे दी।” जनरल आउट्रम कहता है- “दिल्ली जला दो।”

जो कोई अंग्रेजी सेना के सामने आता उसे गोली मार दी जाती, उनके घरों में आग लगा दी जाती। दिल्ली के अधिकांश मनुष्य घर छोड़कर चले गए। नगर खाली हो गया। वृद्ध, लंगड़े, रुग्ण लोग फांसी पर लटका दिए गए। झज्जर के अब्दुर्रहमान खां, बल्ल्भगढ़ के राजा नाहर सिंह, फरुखनगर के अहमद अली खां को विभिन्न तिथियों में फांसी दे दी गई। कोतवाली और त्रिपुलिया के मध्य में जो हौज था उसके तीनों ओर फांसियाँ खड़ी की गई थीं। उनमें एक बार में 10-12 व्यक्तियों को फाँसी लग सकती थीं। नगर में तीन दिन तक खुली लूटमार होती रही। इसके उपरांत प्राइज एजेंसी का विभाग स्थापित हुआ। इसका कार्य था कि हर प्रकार का लूट-मार का माल एक स्थान पर एकत्र करे और बड़े सस्ते मूल्य पर नीलाम हो। दिल्ली के धार्मिक स्थलों की बड़ी दुर्दशा की गई। पुनः जब दिल्ली में हिन्दू बसाएं गए उन्हें सभी मंदिरों को पवित्र कराना पड़ा। सितम्बर और दिसम्बर 1857 तक दिल्ली में अंग्रेजी सेना का राज्य था और लूट-मार की पूरी स्वतंत्रता थी। संभवतः दिल्ली अपने पूरे इतिहास में इतनी बुरी तरह कभी नहीं लूटी गई होगी।

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यूरोपियन और नेटिव (स्थानीय) सिपाहियों सहित दिल्ली के घेरे में लगी दस हजार की अंग्रेजी सेना में से चार हजार लोग इस युद्ध में हताहत हुए। क्रांतिकारियों की जो जनहानि हुई होगी उसका विश्वसनीय आंकड़ा मिलना असम्भव है। फिर भी कम से कम पांच से छह हजार तक क्रांतिकारियों की जनहानि हुई ही होगी।

यह इतिहास प्रसिद्ध नगर ‘स्व’ (स्वदेश, स्वतंत्रता और स्वधर्म) के लिए संघर्ष रत रहा। एक सौ चौंतीस दिनों (11 मई से 21 सितम्बर) तक अंग्रेजों जैसे सबल शत्रु की युद्ध कुशलता को धिक्कारता रहा दिल्ली! अपनी दीवार से फिरंगी निशान उखाड़कर अपने निशान की जिस दिन घोषणा हुई, उस दिन से लेकर राजमहल में अंग्रेजी तलवार द्वारा अंतिम स्वदेशी रक्त बिंदु गिरने तक इस नगर ने स्वदेश स्वतंत्रता के कार्य को अलंकृत किया। नेता न होने की स्थिति में समाज अनाथता का अनुभव करता है। संगठन न होने का सेना भी बिखर जाती हैं। अंग्रेजों जैसे बड़े शत्रु का सामना करना पड़े तो वह असह्यता (मजबूरी) होती है। और विशेषकर असली फिरंगी तलवारों की तुलना में अपनों की कम असल देशजों की तलवारें अपने ही प्राण लेने के लिए टूट पड़ती – ऐसी स्थिति में व्याकुलता उत्पन्न होती है। इन चारों बातों की परवाह न करते हुए सारे हिंदुस्तान के नाम पर स्वधर्म प्रतिष्ठा का राष्ट्रीय ध्वज गाड़कर रणभूमि पर वीरों की भांति अचल, मृत्यु का वरण करते हुए लोग दिल्ली के घेरे का इतिहास निष्फल नहीं होने देंगे।

वीर सावरकर लिखते हैं- “हे दिल्ली नगरी! तू गिरी, उसमें कोई लज्जा नहीं। क्योंकि तू स्वराज्य के लिए, स्वधर्म के लिए, स्वदेश के लिए लड़ी थी! अतः ‘दन्तछेदो हि नगानां श्लाघ्यो गिरीविदारणे!’ पर्वत से जूझते हुए चूर्ण हुआ दांत ही गजश्रेष्ठ के लिए होता है।”

(लेखक विद्या भारती दिल्ली प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)

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