भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 80 (भारतीय शिक्षा में जीवन मूल्यों का ह्रास)

 ✍ वासुदेव प्रजापति

सर्वप्रथम यह बात समझने योग्य है कि शिक्षा में मूल्य शब्द का प्रयोग भारतीय नहीं है। यह अंग्रेजी के ‘वेल्यु’ शब्द का भारतीय अनुवाद मात्र है। वैश्विक परिभाषाओं के अन्तर्गत मूल्य व्यवस्था, मूल्य शिक्षा, मूल्यों का समूह आदि नाम व्यापक रूप में प्रचलित हैं। केवल शिक्षा ही नहीं समग्र जीवन व्यवस्था के सन्दर्भ में इन नामों का प्रयोग होता अवश्य है, परन्तु भारतीयता की संकल्पना के अनुरूप नहीं है।

मूल्य संज्ञा से जो अर्थ लिया जाता है, उसके लिए हमारे यहाँ धर्म शब्द है। हम व्यवहार में उसे नीति या नैतिकता भी कहते हैं। किन्तु धर्म संज्ञा ही हर दृष्टि से सटीक बैठती है। धर्म संज्ञा को स्वीकार करने पर जो अर्थ प्रकट होता है, वह सर्वार्थ में परिपूर्ण है। इसलिए मूल्यशिक्षा को धर्मशिक्षा कहने पर हमारा कथन पूर्ण अर्थ को प्रकट करता है।

आज की कठिनाई यह है कि धर्म को ही विवाद का विषय बना दिया है। एक वर्ग ऐसा है जो धर्म के व्यापक अर्थ को नहीं समझता। वह तो धर्म को मजहब या पूजा पद्धति मानता है और मजहबी कट्टरता से प्रेरित होकर विवाद तथा दंगे-फसाद करता है। दूसरा वर्ग ऐसा है जो धर्म-अधर्म की चिन्ता ही नहीं करता, उसे धर्म चर्चा में कतई रुचि नहीं है। उसे धर्म मार्ग पर चलना चाहिए, ऐसा बिल्कुल नहीं लगता। यह वर्ग सारी चर्चाओं, उपदेशों और बाध्यताओं के प्रति उदासीन रहता है। जैसा मन में आता है, वैसा जीवन जीता है और कामनाओं की पूर्ति करना ही जीवन का लक्ष्य मानकर चलता है। परन्तु यह वास्तविकता है कि धर्म के बिना समाज नहीं चलता। सृष्टि की धारणा ही धर्म से होती है। हमारे शास्त्रों में यही कहा गया है – “धारणाद्धर्ममित्याहु धर्मो धारयते प्रजा:” और धर्म के बिना मनुष्य पशु के समान है, “धर्मेणहीना पशुभिसमाना:”। परन्तु मनुष्य पशुवत जी नहीं सकता, वह या तो पशु से भी नीचे गिर जाता है या पशु से ऊपर उठकर जीता है। धर्म ही जीवन को व्यवस्थित करता है और उसे ऊपर उठाता है। धर्म आचरण का विषय है, अतः वह सदाचार का पर्याय है, कर्तव्य का पर्याय है और सज्जनों के व्यवहार का पर्याय है।

जीवन मूल्य का भारतीय अर्थ

प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक जीवन दृष्टि होती है। जीवन दृष्टि का अर्थ है कि प्रत्येक राष्ट्र जीव, जगत व जगदीश को जिस दृष्टि से देखता है, वही उसकी जीवन दृष्टि मानी जाती है। इस जीवन दृष्टि के अनुसार वह अपना जीवन जीता है। जीवन जीते-जीते उसकी एक शैली बन जाती है। इसे ही हम जीवन शैली कहते हैं।

आज जिसे हम जीवन मूल्य कहते हैं, वह भारतीय अर्थ में जीवन शैली है। हमने अपनी जीवन शैली को भुलाकर पाश्चात्य जीवन शैली अपना ली है, इसलिए हम जीवन शैली न कहकर जीवन मूल्य कहते हैं। भारत में आजकल दो जीवन शैलियों का मिश्रण चल रहा है। एक भारतीय जीवन शैली और दूसरी पाश्चात्य जीवन शैली। भारत का एक बड़ा वर्ग इन दोनों शैलियों के मिश्रण को अच्छा मानता है और इसे समन्वित संस्कृति कहता है। इस समन्वित संस्कृति को आधुनिकता व वैश्विकता का लक्षण मानकर गौरव और सन्तोष का अनुभव करता है।

वास्तव में यह समन्वित संस्कृति एक घालमेल है। यह चिन्तन-मनन पूर्वक किया हुआ समन्वय नहीं है। यह एक दूसरे से भिन्न स्वभाव वाली शैलियों का संघर्ष है। हमारी विडम्बना यह है कि हम उसे संघर्ष न मानकर समन्वय मान रहे हैं, जो चिन्ता का विषय है। पाश्चात्य और भारतीय जीवन शैलियों के घालमेल का असर हमारी विचार प्रणालियों, व्यवहारों, व्यवस्थाओं, सम्बन्धों और रचनाओं में स्पष्ट दिखाई देता है। एक दूसरे के विपरीत स्वभावों का सम्मिश्रण इतना गहरा हो गया है कि दोनों को अलग करना बहुत कठिन है।

ये दोनों परस्पर विरोधी प्रतिमान हैं

पाश्चात्य समाज रचना व्यक्ति केन्द्री है जबकि भारतीय समाज रचना परमेष्ठी केन्द्री है। भारतीय समाज रचना का व्यावहारिक स्वरूप परिवार भावना है। पाश्चात्य व्यक्ति मानता है, यह जगत मेरे लिए है। इसके विपरीत भारतीय व्यक्ति मानता है कि मैं इस जगत के लिए हूँ। इस जगत के साथ दोनों के सम्बन्धों का स्वरूप बिल्कुल भिन्न हैं। भारत आत्म तत्त्व को मानता है, जबकि पश्चिम में आत्म तत्त्व की संकल्पना ही नहीं है। भारत की मान्यता है कि सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है, परन्तु पश्चिम जगत का स्वरूप भौतिक मानता है। जड़ और चेतन के समरस स्वरूप में भारत चेतन को कारक मानता है, जबकि पश्चिम जड़ को कारक मानता है।

भारत में सारे सम्बन्ध प्रेम के आधार पर विकसित होते हैं, जबकि पश्चिम में सम्बन्ध भी उपयोगिता के आधार पर नापे जाते हैं। प्रेम में आत्मीयता होती है, जबकि उपयोगिता में हिसाब होता है। उपयोगिता में स्वयं के हानि-लाभ का हिसाब देखा जाता है, जबकि प्रेम में स्वयं का नहीं सामने वाले के सुख व आनन्द का ध्यान रखा जाता है। इस प्रकार विचार करने पर ध्यान में आता है कि ये दोनों प्रतिमान परस्पर धुर विरोधी हैं।

आत्मीयता मूल्य के सुप्रभाव

भारतीय मान्यता में प्रेम आत्मा का सहज स्वभाव है। प्रेम का अर्थ आत्मीयता है। प्रेम का व्यवहार त्याग और सेवा है, अपनों के लिए कष्ट सहना है। त्याग, सेवा और कष्ट सहने में दुख की नहीं आनन्द की अनुभूति होती है। जब व्यापारी व ग्राहक में आत्मीयता का सम्बन्ध होता है तो व्यापारी यह चिन्ता करता है कि मेरे ग्राहक को अच्छी व सस्ती वस्तु मिले। जब यह भावना व्यापक होती है, तब उपभोग की वस्तुओं में कभी मिलावट नहीं होती, नाप-तोल में कमी या धोखाधडी नहीं होती। परिणामस्वरूप ग्राहक व्यापारी पर पूर्ण विश्वास करता है, यही व्यापारी की साख कहलाती है।

इसी प्रकार शिक्षक और छात्र का सम्बन्ध जब आत्मीयता का होता है, तब शिक्षक छात्र को अपना मानस पुत्र मानता है। सदैव अपने छात्र के कल्याण की कामना करता है। वह चाहता है कि उसका छात्र उससे भी सवाया सिद्ध हो। और छात्र शिक्षक को भगवान से भी बढ़कर मानता है और उनकी सेवा करना अपना धर्म मानता है। आत्मीयता के सम्बन्ध के आधार पर सारे व्यवसायी व्यवसाय करते हैं, तब किसान भी समाज में अन्न का अभाव न रहे, इस भाव से खेती करता है। बुनकर प्रजा में वस्त्र की कमी न रह जाय इसलिए कपड़ा बुनता है। लोगों के पैरों की रक्षा हो सके इस भाव से मोची जूते बनाता है। इस प्रकार आत्मीयता के मूल्य से ओतप्रोत हो सभी एक दूसरे के काम आ सके इस उद्देश्य से अपना-अपना काम करते हैं।

काम करते समय सेवा के साथ कर्तव्य बुद्धि होती है। जब सभी लोग कर्तव्य से प्रेरित होकर व्यवहार करते हैं, तब सबके अधिकारों की रक्षा सहज ही हो जाती है। और सबकी आवश्यकताएँ भी परस्पर सहयोग से पूर्ण हो जाती हैं। आत्मीय दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप समाज में श्रद्धा और विश्वास आधारभूत तत्त्व बनते हैं। फलतः निश्चिंतता आती है, चिन्ता और मानसिक तनाव पैदा ही नहीं होते, जिससे स्वास्थ्य, सुरक्षा, शान्ति, समृद्धि व सुख स्वाभाविक रूप से आ जाते हैं।

स्वकेन्द्री विचार के दुष्प्रभाव

पश्चिम में स्वकेन्द्री विचार होता है, वहाँ स्वयं के हितों का ही लेखा-जोखा किया जाता है। अपने हानि-लाभ के अनुसार ही सारा व्यवहार होता है। उन्हें अपनी सम्पत्ति और जीवन रक्षा की ही सदैव चिन्ता बनी रहती है। समाज में परस्पर विश्वास का अभाव रहता है। विश्वास का अभाव व स्वार्थ वृत्ति होने के कारण धोखाधड़ी, मिलावट तथा भ्रष्टाचार आदि बढ़ते हैं। सब लोग केवल अपने अधिकारों का ही विचार करते हैं, अपने कर्तव्यों की ओर ध्यान ही नहीं देते। परिणामस्वरूप स्पर्धा पनपती है और स्पर्धा में छीनाझपटी होती है। छीनाझपटी से संघर्ष, संघर्ष से हिंसा और हिंसा की परिणति विनाश होता है। केवल आत्मीयता का मूल्य न रहने से और स्वकेन्द्री विचार करने से इतने घोर दुष्प्रभाव होते हैं।

जीवन में उपभोगवाद या संयम

इन दोनों जीवन शैलियों में भिन्नता का दूसरा बिन्दु है, उपभोगवाद अपनाना अथवा संयमपूर्वक जीवन जीना। उपभोगवादी भौतिक सुख को जीवन का लक्ष्य मानता है, जबकि संयम से जीवन जीने वाले मोक्ष को अपना लक्ष्य मानते हैं। पश्चिम का व्यक्ति कामना पूर्ति हेतु पुरुषार्थ की पराकाष्ठा करता है, जबकि भारतीय कामनाओं को सीमित रखने में विश्वास करता है।

पश्चिमी प्रतिमान कामनाओं की पूर्ति के लिए अधिकाधिक साधनों को जुटाना समृद्धि मानता है। इस समृद्धि से यश की प्राप्ति होती है, जिसे वह अपनी सफलता मानता है। और यश व सफलता को अपना विकास मानता है। ऐसा विकास पाने के लिए की जाने वाली आपाधापी को वह अपनी उद्यमशीलता मानता है।

इसके ठीक विपरीत भारतीय प्रतिमान अपनी आवश्यकताओं को कम करना ही सिद्धि मानता है। अपनी व सबकी शान्ति चाहता है। सृजनशील बनने हेतु पुरुषार्थ करता है, साधनों की वृद्धि में नहीं अपितु साधना में विश्वास रखता है। वह उद्यमशीलता को अपनाता है, परन्तु व्यर्थ की आपाधापी में नहीं फँसता। उसकी यह उद्यमशीलता दूसरों की अशान्ति का कारण नहीं बनती। इस प्रकार ये दोनों मूल्य एक दूसरे के धुर विरोधी हैं।

कर्म व कर्मफल का सिद्धांत

भारत में कर्म और कर्मफल का सिद्धांत सर्वमान्य है। अपना भाग्य अपने ही कर्मों पर निर्भर है, यह आम धारणा है। इसके विपरीत पश्चिम में व्यक्ति अपने सुख को अपने कारण और अपना दुख दूसरों के कारण होता है, ऐसा मानते हैं। उनकी यह धारणा जन्म व पुनर्जन्म को न मानने के कारण बनी हुई है। जबकि भारत जन्म-जन्मान्तर में पूर्ण विश्वास करता है।

पश्चिम में कामनाओं की पूर्ति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य होता है। वहाँ शिक्षा भी अर्थार्जन के लिए है, धर्माचरण सुख प्राप्ति के लिए होता है, दान-दक्षिणा भी भौतिक लाभ प्राप्ति के लिए होते हैं। सारे भौतिक-अभौतिक पदार्थों का मूल्य पैसे से आँका जाता है। वहाँ तो समाज सेवा भी एक व्यवसाय है। परन्तु भारत में ज्ञान, भक्ति, अन्न और जल पवित्र माने जाते हैं। इनका मूल्य पैसों से नहीं आँका जाता। ये सभी अर्थ से श्रेष्ठ माने गए हैं। इसलिए इन्हें बेचा नहीं जाता, दान में दिया जाता है और कृपा के रूप में माँगा जाता है। यहाँ समाज सेवा व्यवसाय नहीं, ईश्वर की सेवा मानी जाती है।

ये सभी मूल्य परस्पर विरोधी हैं, परन्तु आज अधिकांश भारतीय दोनों विरोधी बातों को चाहते हैं। ये दोनों एक-साथ प्राप्त हो नहीं सकती यह सत्य है। फिर भी उनकी चाह तो बनी ही रहती है। इस तरह सामान्य लोग दो विरोधी पाटों के बीच पिस रहे हैं।

मान्यता और व्यवहार में विरोध है

हमारी यह मान्यता है कि सिद्धांत और व्यवहार में एकरूपता होनी चाहिए। परन्तु आज तो इसके विपरीत आचरण दिखाई देता है। भारतीय सिद्धांत को ठीक मानता है, लेकिन व्यवहार उससे उल्टा करता है। जैसे वह जानता है कि प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठना अच्छा है। उसकी यह मान्यता प्रामाणिक है, परन्तु वह सूर्योदय के बाद उठता है। कभी भी तामसी आहार नहीं लेना चाहिए, इसे वह सही मानता है। वह यह भी जानता है कि बाहर का अपवित्र अन्न खाने से स्वास्थ्य बिगड़ता है, संस्कार क्षीण होते हैं, चित्त अशुद्ध होता है, फिर भी वह बाजार से फास्टफूड खरीद कर खाता है। केवल खाता ही नहीं तो बनाता भी है और बेचता भी है। ऐसा विरोधी व्यवहार आज दिखाई देता है।

हमें इसे मूल्यों का ह्रास कहने के स्थान पर देश चलाने वाले तत्वों की नासमझी, विपरीत बुद्धि, आत्मविश्वास का अभाव, धर्मश्रद्धा का अभाव, राष्ट्रीय परम्परा का अज्ञान और उसके प्रति गौरव भाव न होना ही मुख्य है। और मूल्यों की इस दुरवस्था को दूर करने का दायित्व शिक्षा और शिक्षक का है।

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 79 (पाश्चात्य शिक्षा की देन: हीनता बोध)

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