– डॉ० पवन कुमार
वर्तमान समय मानव जीवन के संक्रांति काल का है। संक्रांति से तात्पर्य अन्तः एवं एवं बाह्य जगत के परिवर्तन से है। सम्पूर्ण जगत आज इससे गुजर रहा है। चाहे वह पदार्थगत (भौतिक) प्रगति हो या भावनात्मक एवं आत्मिक चिंतन। इस अवस्था में सृजन एवं प्रलय संयुक्त रूप से घटते हैं। जाग्रत के लिए यह समय निर्माण एवं सुसुप्त के लिए प्रलय स्वरूप सिद्ध होता है। निर्माण और प्रलय सृष्टि की दो धाराएँ हैं जो स्वतः संचालित हैं। इस धारा में बहते रहने को भारतीय चिंतन भव चक्र कहता है। यह चक्र हमारे जन्माजन्म के चित्त संस्कारों के संचय कारण है जिसके फलस्वरूप जीव कर्म बंधनों में बांधता चला जाता है। योग इसी भव बंधन से मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों का निरोध योग कहलाता है। (योगश्चित्तवृत्ति निरोध: 1/2) इसकी स्थिति और प्राप्ति के लिए कुछ उपाय बताए गये हैं जिन्हें ‘अंग’ कहा जाता है, जिनकी संख्या आठ होने के कारण इन्हें अष्टांग योग के नाम से जाना जाता है। इनमें पहले पांच अंगों (यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार) को ‘बहिरंग’ और अन्य तीन अंगों (धारणा, ध्यान, समाधि) को ‘अंतरंग’ के रूप में जाना जाता है। साधक आंतरिक साधना के योग्य तभी बन पाता है जब बाह्य साधना वास्तव में पूर्ण कर चुका हो। ‘यम’ और ‘नियम’ का शाब्दिक अर्थ है शील एवं साधना। यम का अर्थ है आत्म संयम से है जो पांच प्रकार के होते हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इसी तरह, नियम भी पांच प्रकार के होते हैं- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय (मुक्ति शास्त्र या प्रणव जप आदि), एवं ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर को सभी कार्यों का समर्पण)। आसन का अर्थ है स्थिर और सुखद रूप से स्थिर होकर बैठना जो शरीर को प्रयत्न शैथिल्य करने का अभ्यास है। प्राणायाम श्वास की लय में व्यतिरेक का नाम है। जिसमें बाहर की वायु लेने को पूरक कहा जाता है और अंदर की वायु को बाहर छोड़ने को रेचक कहा जाता है। प्राणायाम जीवनी शक्ति वर्धन का सशक्त अभ्यास है। इसके अभ्यास से शरीर में लघुता आती है और साधक का मन स्थिरता की ओर अग्रसर होता है। अंतिम तीनों अंग मन:स्थैर्य की साधना है। प्राणस्थैर्य और मन:स्थैर्य की मध्यवर्ती साधना का नाम ‘प्रत्याहार’ है। प्राणायाम द्वारा प्राण के स्थिर होने पर मन का बहिर्मुख स्वभावतः: स्थिर एवं अंत:मुखी हो जाता है। परिणाम यह होता है कि इन्द्रियाँ अपने बाह्य विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती हैं। इसे प्रत्याहार (प्रति – प्रतिकूल, आहार – मनोवृत्ति) कहते हैं। जब मन की बाहरी गति रुक जाती है और अंतर्मुखी होकर स्थिर होने लगती है। इस प्रयास का आरंभिक नाम धारणा है। चित्त को किसी भी एक (अन्तः स्थल या बाह्य स्थान) पर लगाना ‘धारणा’ कहलाता है।
ध्यान इसके आगे की स्थिति है। जब उस देश विशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से प्रवाह मान होता है, तब उसे ‘ध्यान’ कहते हैं। धारणा और ध्यान दोनों स्थितियों में वृत्ति प्रवाह बना रहता है, परंतु भेद यह है कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी उदय होता है, परन्तु ध्यान में सदृश वृत्ति का ही प्रवाह सतत बना रहता है। ध्यान की परिपक्व अवस्था का नाम ही समाधि है। चित्त आलंबन के रूप में प्रतिभासित होता है और जब उसका स्वरूप शून्यवत् हो जाता है और एकमात्र आलंबन ही प्रकाशित होता है तो यही समाधि की दशा कहलाती है। अंतिम तीनों अंगों का सामूहिक नाम ‘संयम’ कहा गया है जिसके फलित होने से विवेक ख्याति का आलोक प्रगट होता है । समाधि सिद्ध होने के उपरांत ऋतंभरा प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है।
अष्टांग योग का स्वरूप
महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्र के अंतर्गत निम्नलिखित अंगों को अष्टांग योग के रूप में प्रस्तुत किया है-
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि ॥ (योगदर्शन 2/29)
यम
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरग्रहाः यमा: ॥ (योगदर्शन 2/30)
पांच सामाजिक नैतिकता
- अहिंसा – अहिंसाप्रतिष्ठायांतत्सन्निधौ वैरत्याग: ॥ (योगदर्शन 2/35)
अर्थात अहिंसा से प्रतिष्ठित हो जाने पर साधक का वैरभाव छूट जाता है। शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना अहिंसा कहलाती है।
- सत्य -सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफ़लाश्रययत्वम् ॥ (योगदर्शन 2/36)
अर्थात सत्य में प्रतिष्ठित हो जाने पर साधक में क्रियाओं और उनके फलों की आश्रयता आ जाती है । अर्थात जब साधक सत्य की साधना में प्रतिष्ठित हो जाता है तब उसके किए गए कर्म उत्तम फल देने वाले होते हैं और इस सत्य आचरण का प्रभाव अन्य प्राणियों पर कल्याणकारी होता है।
- अस्तेय – अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ॥ (योगदर्शन 2/37)
अर्थात अस्तेय के प्रतिष्ठित हो जाने पर सभी प्रकार के रत्नों की उपस्थिति हो जाती है। अस्तेय से अभिप्राय चोरी की प्रवृति का न होना है।
- ब्रह्मचर्य – ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभ: ॥ (योगदर्शन 2/ 38)
अर्थात ब्रह्मचर्य के प्रतिष्ठित हो जाने पर वीर्य (अतुलित बल) का लाभ होता है। ब्रह्मचर्य दो अर्थ हैं-
चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना।
सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम का पालन।
- अपरिग्रह – अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध : ॥ (योगदर्शन 2/ 39)
अर्थात अपरिग्रह स्थिर होने पर (भूत, वर्तमान और भविष्य के) जन्मों तथा उनके प्रकार का संज्ञान होता है। अपरिग्रह का अर्थ आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना। यम किसी जाति, देश काल एवं आचार परम्परा से न बंधे होने कारण महाव्रत कहलाते हैं। यह समस्त स्थान पर समान रूप से आचरणीय हैं।
नियम
शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा: ॥ (योगदर्शन 2/32)
शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान- नियम के अंतर्गत आते हैं।
पाँच व्यक्तिगत नैतिकता-
- शौच – शरीर और मन की शुद्धि।
- संतोष – मन का संतुष्ट रहना।
- तप – शरीर और मन को साधना।
- स्वाध्याय – आत्मचिंतन एवं सद्ग्रंथ का अध्ययन करना।
- ईश्वर-प्रणिधान – ईश्वर के प्रति पूर्ण श्रद्धा होना, पूर्ण समर्पण होना।
आसन
स्थिरसुखमासनम् ॥ (योगदर्शन 2/46)
महर्षि पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। समान्यतय: योगासन शरीरिक नियंत्रण एवं शरीर को साधने का तरीका है। योगदर्शन में ने आसनों के नाम नहीं गिनाए हैं। लेकिन परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है।
प्राणायाम
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम: ॥ (योगदर्शन 2/49)
उस (आसन) के सिद्ध होने पर श्वास और प्रश्वास की गति में विच्छेद करना प्राणायाम है। वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध हुआ है कि प्राणायाम हमारे शरीर में हल्कापन, मन को स्थिर एवं दीर्घायुष्य प्रदान करता है। योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी की शुद्धता और चक्रों के जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन को धारणा योग्य और चेतना के ऊपर ढके आवरण को दूर करता है।
प्रत्याहार
इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है। प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है। अतः चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियों का व्यापार भी निरुद्ध हो जाता है।
धारणा
देशबन्धश्चितस्य धारणा; ॥ (योगदर्शन 3/1)
चित्त को एकाग्रचित्त करके किसी एक ध्येय विषय में लगाना धारणा कहलाता है।
ध्यान
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ॥ (योगदर्शन 3/2)
किसी एक स्थान पर या वस्तु पर निरन्तर मन स्थिर होना ही ध्यान है। जब ध्येय वस्तु का चिन्तन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
समाधि
तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि ॥ (योगदर्शन 3/3)
यह चित्त की एक अवस्था है जिसमें ध्येय वस्तु के चिंतन में चित्त पूरी तरह से लय हो जाता है। योगदर्शन यह मानता है कि समाधि से ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है। समाधि की श्रेणियां हैं: सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत है। असंप्रज्ञात में सात्त्विक, रजस और तम की सभी प्रवृत्तियां पूर्णतया समाप्त हो जाती हैं। महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग योग के सभी मार्गों में सबसे अधिक प्रचलित व उपयोगी होने के कारण इसे सभी योग मार्गों में श्रेष्ठ माना जाता है। योगसूत्र के रचियता महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग समाधि की प्राप्ति के उद्देश्य हेतु योग के आठ अंगों की रचना की इसलिए यह अष्टांग योग के नाम से विख्यात हुआ जो मानव के वर्तमान जीवन को सर्वांगीणता प्रदान करता है एवं कैवल्य मार्ग को प्रशस्त करता है।
(लेखक मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान नई दिल्ली योग शिक्षा विभाग में सहायक आचार्य है।)
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