विद्यालय का संस्कारक्षम वातावरण

 – राणा प्रताप सिंह

जिसके लिए प्रत्येक माता-पिता व शिशु तृषित नेत्रों से निहारते रहते हैं। बालक के विकास में वैयक्तिक प्रतिभा (वंश परम्परा की देन) के साथ उस वातावरण का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है, जिसमें वह पल्लवित व पोषित होता है। इसके तीन पक्ष हैं –

  1. विद्यालय 2. परिवार 3. समाज ।

विद्यालय में छात्र-छात्राएं प्रतिदिन 5-6 घंटे रहती हैं। परिवारों व विभिन्न क्षेत्रों के बच्चों के मध्य उनका शेष 18-19 घंटे का समय व्यतीत होता हैं। इसी कारण विद्यालय को ‘सांस्कृतिक पुनर्जन्म का स्थान तथा भावी समाज का लघुस्वरूप’ भी कहा जाता हैं। माता-पिता भी शिशु को प्रवेश दिलाते समय अच्छे विद्यालय की खोज में रहते हैं। आचार्य परिवार भी विद्यालय का वातावरण संस्कारक्षम बनाने का प्रयास करता है। यह भी संम्भव है कि कार्य का श्रीगणेश करते समय प्रत्येक आचार्य में अध्यापन का कौशल प्रगट न हो पाया हो। अत: इस चरण से प्रारंभ करके भी व सफलता की दिशा में पग आगे बढ़ा सकते हैं? वह कैसे विकसित किये जा सकते हैं? यही आगे का विचारणीय पक्ष हैं।

संस्कारक्षम वातावरण के स्वरूप निम्नांकित हैं –

  1. भौतिक वातावरण
  2. मनो-सामाजिक वातावरण
  3. सांस्कृतिक वातावरण
  4. शैक्षिक वातावरण
  5. आध्यात्मिक वातावरण

भौतिक वातावरण

विद्यालय के वातावरण में संस्कार क्षमता का विकास भौतिक वस्तुओं की व्यवस्था के आधार पर भी हो सकता है। भवन की रचना, भूखंड की विशालता तथा क्रीड़ा स्थल इन सब की उपलब्धता व साधन-सम्पन्नता पर निर्भर करते हैं। फिर भी कुछ बातों पर ध्यान रखा जा सकता हैं जैसे-

1 स्वच्छता – वातावरण में भौतिक दृश्य की स्वच्छता यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है। गंदगी भरा वातावरण मन पर दुष्परिणाम लाता है। स्नान करने व स्वच्छ वेश पहनने पर मन को सांत्वना मिलती है। अतः विद्यालय का परिसर, भवन, कमरे, फर्श, वेश, थैले, कापी व पुस्तिकाएँ इन सभी में स्वच्छता रखने के लिये मन में गंदगी के लिये चिढ़ तथा स्वच्छता के लिये परिश्रम करने की प्रेरणा सभी सहयोगियों में जगाना उपयोगी रहता हैं। इसके लिये प्रतियोगिताओं व पुरस्कारों का आयोजन तथा दायित्व को सौंपने का कार्य भी किया जा सकता है।

2 व्यवस्थिता – स्वच्छता के साथ-साथ दूसरा अनन्य आश्रित बिंदु हैं व्यवस्थिता। बच्चों के वेश, थैले, उपकरण तथा कक्षा की मेज-कुर्सी साफ-सुथरी तो है परंतु यदि अव्यवस्थित रहीं, लेखन-पुस्तिकायें उत्तम रहीं परंतु वे विषय व कार्य के हिसाब से अस्तव्यस्त रहीं, कार्यक्रमों के आयोजन में अव्यवस्था रही तो मन पर परिणाम अच्छा न होगा। कक्षा पंचम की कापियां तृतीय में व गणित की विज्ञान में मिल गई तो परेशानी होगी। वेश स्वच्छ तो है परंतु उन पर प्रेस नहीं हुआ है तो आकर्षण कम होता है। अतः स्वच्छता के साथ-साथ व्यवस्थिता भी अत्यावश्यक है।

3 सज्जा – स्वच्छता व व्यवस्थिता के बाद तीसरा महत्वपूर्ण बिंदु है सज्जा। कमरों का नाम ध्रुव, प्रहलाद, शिवाजी, विवेकानंद हैं परंतु उन कक्षों की नाम के अनुरूप सज्जा चाहिये। भूगोल, इतिहास व विज्ञान कक्षों की सज्जा उसके अनुरूप हो, भवन परिसर व बरामदों की भी सज्जा व्यवस्था अपेक्षित संस्कारों की योजना के अनुरूप करने से परिणाम प्रभावी होते हैं।

4 भवन – भवन निर्माण करवाते समय कमरों का आकार तो आवश्यकता के अनुरूप रखा ही जाता है परंतु भवन की रचना ऐसी चाहिये जिसमें आधुनिकता के साथ-साथ भारतीयता के स्वरूप का भी निखार होने लगे। विद्यालय का नाम है सरस्वती शिशु मंदिर। अतः मंदिर के पवित्रय की झलक मिले, मां सरस्वती के चित्र को आकर्षक व सम्मानपूर्ण स्थान मिले तो दृश्य प्रभावी रहेगा। वंदना स्थल का दृश्य पवित्र व भक्तिभाव पूर्ण चाहिये।

5 उद्यान – विद्यालय-परिसर में उद्यान की रचना, क्यारियों व गमलों की व्यवस्था, उत्तम व आकर्षक पौधों को पनपाने का प्रयास किया जाये, आकर्षक रंग-बिरंगे पुष्पों का दृश्य निर्माण किया जा सके तो दृश्य अत्यंत प्रभावी बन जाता है। भूखंड बड़ा है तो छोटे-छोटे उद्यानों में घटना प्रधान मूर्तियां भी लगाई जा सकती हैं। इन कार्यों में बच्चों को जुटाकर उससे उनमें दायित्व का भाव जागेगा। परिसर के लिए आत्मीयता पनपेगी तथा वातावरण में शांति व्यवस्था पनप उठेगी। मंदिर के अभाव में मां शारदा व भारत-माता के चित्र की सज्जा, पुष्पहार व समुचित सम्मान की दैनिक व्यवस्था दृश्य को प्रभावी बना देती है।

6 क्रीड़ा स्थल – भूखंड की व्यापकता को ध्यान में रखकर क्रीड़ा के उपकरणों को (बाह्य व आन्तरिक) जुटाकर बच्चों में उत्साह व आनन्द का माहौल पनपाया जा सकता है, बच्चों की आयु तथा बुद्धि-कौशल के अनुरूप क्रीड़ोपकरण जुटाना हितकर रहता है।

मनो-सामाजिक वातावरण

विद्यालय के वातावरण को संस्कार क्षमता प्रदान करने के लिए मनो-सामाजिक परिस्थितियां पर ध्यान देना आवश्यक है । तनिक सी सतर्कता व सतत प्रयास द्वारा उसे प्राप्त किया जा सकता है, इसके कुछ बिंदु निम्नांकित है-

1 शांति – विद्यालय में वातावरण की शांति एक प्रभावी तत्व है। कक्षाओं में सामूहिक उत्तरों को प्रोत्साहन, शोरगुल व परिसर में अत्यधिक भाग दौड़ से माहौल बिगड़ता हैं। कक्षाएं चल रही हैं, कार्यक्रम का आयोजन हो रहा है परंतु दर्शकों व बच्चों में तन्मयता है, वातावरण में अनुशासन व निस्तब्धता है, तो स्वत: ही सभी संस्कारित हो उठते हैं। कक्षाओं में विषय प्रस्तुतीकरण करते समय अन्य कक्षाओं में विघ्न पड़ना अहितकर होगा। इस विषय का संबंध भवन व क्रीड़ास्थल की विशालता से कम अपितु आचार्यों की सतर्कता से अधिक होता है।

2 पारिवारिक भाव – विद्यालय में छात्र-छात्राओं व आचार्यों की संख्या एक परिवार की संख्या से कहीं अधिक होती है। इसीलिए विद्यालय, छात्र व समाज के मध्य पुल का कार्य करता है। अतः वातावरण में पारिवारिक भाव की आत्मीयता पनपाना आवश्यक है। इसके लिये छात्र-छात्राओं को भैया-बहिन कहकर पुकारना चाहिये, उन्हें ‘तुम’ व ‘तू’ कहकर बुलाने की जगह ‘आप’ कहकर सम्बोधित करना चाहिये। बच्चें के कानों में यदि उन्हें बेटा, बेटी, करो, लिखों, बोलो, उत्तर दो कहकर पुकारा गया तो वे भी बोला करेंगे “कहो बेटे क्या हाल है?” उससे कुसंस्कार पनपेंगे। अतः महत्व पारिवारिक भाव को देना चाहिये। इसी से “गुरुकूल” का शब्द सार्थक होगा। पारिवारिक भाव में स्नेह, संरक्षण, परहित कामना के साथ-साथ नि:संकोच पूर्वक काम करने का भाव निहित रहता है। अपने स्वजन, अपना काम यही प्रेरक व प्रभावी भाव हैं।

3 दायित्व बोध – छात्र-छात्राओं में प्रबंध क्षमता व नेतृत्व कुशलता विकसित करने के लिये, उसकी रुचि व प्रतिभा के अनुरूप उन पर विश्वास रखकर उन्हें विभिन्न प्रकार के दायित्व सौंपे जा सकते हैं। आचार्य को इस कार्य में प्रेरणा का स्त्रोत व दिशाबोधक के रूप में कार्य करना चाहिये। इससे वातावरण में सक्रियता व दायित्व बोध प्रस्फुटित होता हुआ दिख पड़ेगा।

4 श्रमनिष्ठा – व्यक्ति में जब कार्य के प्रति अपनत्व का भाव जागृत हो जाता है तो श्रमनिष्ठा का परिचय मिलने लगता है। चाहे स्वच्छता करनी हो या सज्जा, क्यारियाँ ठीक करनी हो या पौधे लगाना, प्रत्येक छोटे से छोटा कार्य यदि आचार्य स्वयं करने में संकोच नहीं करेंगे तो बच्चे उस कार्य में स्वत: ही सक्रिय होकर परिश्रम करने लगेंगे। उससे कार्य के प्रति हीनता के स्थान पर श्रमनिष्ठा का भाव पनप उठेगा।

5 सहयोग (सामंजस्य व गुण ग्राहकर्ता) – जब आठ-दस लोग मिलकर एक स्थान पर कार्य करते हैं तब आलोचना प्रत्यालोचना यह सामान्य बात देखने को मिलती है। दूसरों में दोष देखने व प्रत्येक विफलता के लिये दूसरों को दोषी ठहराने का भाव आज राजनीतिज्ञों की देश को देन है। हम भूल जाते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के कुछ गुण भी होते हैं व क्षमता भी। अतः उनके गुणों व क्षमता की चर्चा-वार्ता करके, स्वयं अपनी ओर से उन्हें सहायता प्रदान करके सहयोग का वातावरण बनाना अत्यंत प्रभावी कार्य होता है। इसी का विकास करना आवश्यक है।

6 वाणी की मृदुलता – शिशु को केवल एक ही भाषा समझ में आती है। उसे पांडित्य प्रभावित नहीं करता है। स्नेह का भाव, वाणी की मधुरता, व्यवहार की आत्मीयता उसे आकर्षित करती है, उसमें समरसता पनपती है व उसे उत्साह प्रदान करती है। अत: पारस्परिक बोलचाल की भाषा में माधुर्य का प्रयोग आवश्यक है।

सांस्कृतिक वातावरण

बच्चों में नैतिकता, चारित्र्य संपन्नता तथा अन्य गुणों की प्रधानता के जागरण में सांस्कृतिक वातावरण का दृश्य अत्यंत प्रभावी होता है। सरस्वती शिशु मंदिर योजना के अंतर्गत इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये विभिन्न प्रकार की कलाओं का उपयोग किया जाता है। उसके कुछ बिंदु निम्नांकित हैं –

1 सज्जा – परिसर, बरामदे, कमरे, उद्यान आदि में सज्जा का स्वरूप ही संस्कारों को विकसित करता हैं। सज्जा में आधुनिकता का प्रयोग तो हो परंतु माहौल भारतीयता का चाहिये।

2 उत्सव – शिशु मंदिर के कार्यक्रमों की रचना में साप्ताहिक शिशु सभायें, जयन्तियाँ, पर्व, उत्सव, वार्षिकोत्सव आदि मनाये जाते हैं। इन कार्यक्रमों में स्वच्छता, व्यवस्थितता व सज्जा से भी अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है कार्यक्रमों की विषयवस्तु, भाषा, अभिनय तथा प्रस्तुतीकरण की कला। गीतों व कविताओं में भक्ति (परिवार, देश व भगवान) स्वाभिमान, उत्साह व वीररस के भाव को जागृत किया जा सकता हैं। कथाओं में मनोरंजन को सर्वाधिक महत्व न देकर उद्देश्य को दिया जाता हैं। पाश्चात्य कला (जैसे नृत्य व संगीत) में मनोरंजन होता हैं परंतु भारतीय कला में साधना व भावना, पारस्परिक वार्ता (नाटक आदि) में विषयवस्तु व वाणी सर्तकता बरती गई तो कार्यक्रम रामायण, महाभारत व चाणक्य सीरियल की भांति प्रभावी बन सकता है। ‘स्व’ के जिस भाव को जागृत करना है उसी के अनुरूप विषय वस्तु का चयन करना हितकर रहता है।

3 वन्दना, भोजन मंत्र, विसर्जन – वंदना के समय मां सरस्वती की तथा विसर्जन के समय भारत मां की आराधना की जाती हैं। वंदना के साथ-साथ गायत्री मंत्र, शांति पाठ, ब्रह्मनाद तथा ध्यान साधना भी होती है। विसर्जन के समय भूमि पूजन (चरण वंदन) होता हैं। मध्यावकाश के अवसर पर भोजन मंत्र व भोजन गीत कहने के बाद ही सामूहिक स्तर पर अल्पाहार किया जाता है। उससे सामाजिक समरसता का भाव विकसित होता हैं। सम्पत व विसर्जन में अनुशासन का भाव पनपता हैं तथा गणगीत के द्वारा वातावरण में समरसता व राष्ट्रभक्ति पनपती हैं।

4 जयंती – महापुरुषों की जयन्तियों व पुण्य तिथियों के अवसर पर एक ओर जहां उनके चित्रों की साज- सज्जा होती हैं, उन्हें मान सम्मान दिया जाता हैं, वहीं दूसरी ओर उनके जीवन के प्रेरक प्रसंग व गौरवशाली गाथायें प्रस्तुत की जाती हैं। पुण्य तिथियों के अवसर, बलिदान के प्रसंगों द्वारा भक्ति जागृत होती है तथा भौगोलिक वर्णन व चित्रण द्वारा देश की माटी के प्रति स्वाभिमान पनप उठता है। इन पुण्य स्थलों को देखने की प्रेरणा पनपती हैं।

पर्वों के अवसर पर यज्ञ, पूजन (मकर संक्रांति, बसन्त पंचमी) तथा कुछ ऐसे भी कार्य किये जाते हैं। रक्षाबंधन पर राखी बांधना, होली पर हर्ष व उत्साह, व्यास पूर्णिमा पर समर्पण जिनसे सद्संस्कार व सामाजिक समरसता का भाव विकसित होता है।

5 शिशु-सभा – शिशु सभा का आयोजन तो प्रति सप्ताह मध्यावकाश के उपरांत एक दिन किया जाता है। उनमें गीत, कहानी, नाटक, कव्वाली, नृत्य, भाषण, चुटकुले व आनन्द युक्त कार्यक्रम होते हैं उसका संचालन शिशु भारती के पदाधिकारी ही करते हैं। इससे माहौल अनुशासन पूर्ण तथा संस्कार प्रधान बनता है।

शैक्षिक वातावरण

1 कथा कथन – भौतिक व सांस्कृतिक वातावरण के निर्माण में अपना सहयोग प्रदान करते-करते भैया बहिनों के मन में आचार्य परिवार के प्रति आत्मीयता का भाव पनप उठता हैं इसके परिणामस्वरूप कुछ न कुछ बच्चे प्रत्येक को घेर कर बैठते हैं, गप्प-शप्प मारते हैं। अपने स्वभाववश उनसे कहानियां सुनाने का आग्रह करते हैं। नवनियुक्त आचार्य में भले ही विषय के प्रतिपादन का कौशल न हो तो भी वह चुटकुले, हास्य, प्रसंग तथा लघुकथायें कहना प्रारंभ करते हैं। धीरे-धीरे वे कथा कहना सीख जाते हैं। कथा कथन की प्रतिभा पनपने का अर्थ हैं विषय प्रतिपादन की क्षमता का विकास।

2 भाषा – बच्चे के साथ परस्पर चर्चा-वार्ता तो दिन-प्रतिदिन होती हैं ही, विषय के English Medium, विद्यालयों में वार्ता का आधार विदेशी भाषा होती हैं। इसके परिणामस्वरूप पाश्चात्यीकरण होता हैं। सरस्वती शिशु मंदिरों में वार्ता संस्कृतनिष्ठा व परिष्कृत हिंदी भाषा में होती है। इसका सुखद परिणाम होता है राष्ट्रभाषा के लिये स्वाभिमान व शुद्ध तथा परिष्कृत भाषा में चर्चा, वार्ता के अभ्यास (खिचड़ी भाषा नहीं) का जागरण। महत्व शुद्ध व उत्तम भाषा प्रयोग को दिया जाना आवश्यक है।

3 उद्देश्य युक्त शिक्षण – भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल का उद्देश्य के अनुरूप शिक्षण विधि अपनाने पर ज्ञानार्जन के साथ-साथ देश की माटी व अपने पूर्वजों (वैज्ञानिक, साहित्यकार, गणितज्ञ, स्वाधीनता संग्राम सेनानी आदि) के प्रति अपनत्व का भाव पनपता है।

4 शैक्षणिक विधि – विषय को सरस, बोधगम्य बनाने की विधि का पालन करने पर वातावरण में आनंद, उत्साह, तन्मयता, एकाग्रता व जिज्ञासा का भाव पनप उठता हैं। बच्चों में क्रियाशीलता, भाव व्यक्त करने की क्षमता तथा वैचारिक विवेचन करने एवं उचित-अनुचित, योग्य-अयोग्य का निर्णय लेने की क्षमता का उनमें विकास होता है।

आध्यात्मिक वातावरण

अध्यात्म भाव का अर्थ है सृष्टि के कण-कण के प्रति अपनत्व के भाव का विकास। निर्जीव वस्तुओं की अपेक्षा, निर्धन व उपेक्षित व्यक्तियों का तिरस्कार, अन्य परिवारों व जातियों के व्यक्तियों के प्रति परायापन यह पाप है, आत्मा, परमात्मा व विश्वात्मा का तिरस्कार है। अतः विद्यालय के वातावरण में आध्यात्मिक भाव का जागरण नितान्त आवश्यक है। सरस्वती शिशु मन्दिर योजना में इसकी उपलब्धि के अनेक साधन हैं। जैसे-

1 ग्रामीण यात्रा – ग्रामीण, उपेक्षित बस्तियों तथा वनवासी क्षेत्रों में बच्चे इस यात्रा के अन्तर्गत ले जाये जाते हैं। निर्धनता व दयनीय स्थिति देखकर उनके हृदय में वेदना व सक्रिय सहयोग का भाव पनप उठता हैं। बाल स्वभाव के कारण वहाँ के बच्चे खेलते, कूदते व घूमते हैं। इससे सामाजिक समरसता जागृत होती हैं।

2 वन्दना व पर्व – इनके आयोजन में देवभक्ति व जीवन की पवित्रता का विकास होता है।

2 सामान्य ज्ञान यात्रा – इस यात्रा के अन्तर्गत विभिन्न कक्षाओं के भैया-बहिनों को कभी-कभी चिकित्सा केन्द्रों, संस्कार केन्द्रों पर भी ले जाया जाता है। उससे बच्चों के मन में दया, उदारता व सक्रिय योगदान का भाव विकसित होता हैं।

2 देवदर्शन यात्रा – इस यात्रा से तीर्थ स्थान व पुण्य स्थलों के प्रति भक्ति पनपती है।

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