✍ गोपाल माहेश्वरी
छोटा सा पर हीरा हो तो तेज आँच भी सह जाता है,
बहुत बड़ा मिट्टी का ढेला पानी से गल बह जाता है।
जब बात अपने देश की आन-बान-शान की हो तो सच्चे देशभक्त बच्चे, ‘बच्चे’ होने का बहाना बना कर चुप नहीं बैठे रहते। स्वतंत्रता पाने में बच्चों का भी योगदान कम न था। वैसे तो जो काम अपने बड़ों को करते देखते हैं, बच्चे भी उसे करने को विशेष उत्सुक रहते हैं लेकिन ऐसा प्रायः ऐसे कामों में होता है जो उन्हें मजेदार भी लगें। कई बच्चे ऐसे भी होते हैं जो केवल मनोरंजन नहीं बल्कि साहसिक कामों को करने का अवसर ढूँढते रहते हैं। यह प्रसंग ऐसे ही बच्चों का है। इस बच्चों की टोली का नायक था शिवा झा। शिवाजी महाराज जैसा ही साहसी। बिहार के दरभंगा के हरिपुर का रहने वाला। उम्र थी- केवल बारह वर्ष।
1942 के अगस्त के महीने की वह बरसाती रात थी। रात आधी होने को थी पर शिवा का परिवार सोया न था। दरभंगा के थाने में एक देशभक्त जानकी मिश्र के पुलिस ने पीट-पीट कर प्राण ले लिए थे। सारा देश स्वतंत्रता पाने के लिए धधक रहा था। देश के हर कोने से ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ की गूँज अंग्रेजों को क्रूर से क्रूरतम बना रही थी।
शिवा के पिता बल्लेल झा एक गुप्त बैठक से लौटे और भोजन करने बैठे थे कि छोटा-सा शिवा उनके पास चिपट कर बैठ गया। माँ बैठक के बारे में पूछ रही थी, पिता बता रहे थे “कल जुलूस निकालना है और पुलिस से भिडंत हो तो पीछे नहीं हटना है।”
“अपना ध्यान रखिएगा। पुलिस बिल्कुल राक्षस बनी हुई है। बचकर रहना।” माँ कुछ चिंतित लगी तो शिवा बोल पड़ा “मैं नहीं डरता। मैं भी जाऊंगा जुलूस में।”
“शाबाश मेरे बहादुर बेटे।” पिता ने सहमति दी पर माँ ने टोका “आप इतने छोटे से बच्चों को कहाँ आन्दोलन में घसीट रहे हैं।” बल्लेल झा मुस्कुराते हुए सोने चले गए।
शिवा को नींद नहीं आ रही थी। बिस्तर पर लेटे-लेटे ही सोच रहा था, “जुलूस में क्या खाली हाथ जाऊँगा? नहीं, तिरंगा तो चाहिए ही हाथों में। और अकेले क्यों, अपने सारे मित्रों को भी साथ लेना होगा। स्वतंत्रता सबके साथ से मिलेगी। सुबह सबको बताता हूँ।” अपनी अलग ही बाल टोली की कल्पना करते-करते जाने कब उसे नींद आ गई।
उस दिन 22 अगस्त था। जय घोष और नारे लिखी तख्तियाँ लिए गाँव के निर्धरित स्थान से सत्याग्रही आगे बढ़े। शिवा की टोली भी पीछे-पीछे साथ थी।
अचानक खुसुर-पुसुर में बात हुई और यह बाल सेना पीछे की पीछे ही जुलूस से अलग होकर पाठशाला के रास्ते पर मुड़ चली। सामने से एक सैनिक टुकड़ी जुलूस की सूचना पाकर उन्हें कुचलने इधर से ही आ रही थी। आठ-दस बच्चे, हाथ में तिरंगा, वन्देमातरम् का नारा। उन्हें देख सैनिक ठिठके। चेतावनी दी “बच्चों! भाग जाओ नहीं तो गोली खाओगे।” मीठी गोली खाने की आयु वाले बच्चों को बन्दूक की गोली खिलाने की धमकी देने वालों को गोली से ज्यादा खतरनाक लगने वाली बोली में शिवा का उत्तर था “हमें कोई रोक नहीं सकता। आजादी के सिपाही चल पड़ें तो रुकते नहीं।”
राक्षसों में दया कहाँ होती है। ताबड़तोड़ गोलियाँ चलीं। शिवा का शरीर छलनी हो गया। बाकी बच्चे भागे। जुलूस से सूचना मिली तो लोग घटना स्थल की ओर दौड़े।
पिता बल्लेल की बाहों में शिवा की निर्जीव देह माँ को कितना विह्नल बना रही होगी, यह कल्पना की जा सकती है। पर बारह बरस का शिवा अपनी भारत माता की गोद में बलिदानी बनकर मुस्कुरा रहा था। उसका नाम स्वतंत्रता के इतिहास में अमर बन चुका था।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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