✍ अतुल कोठारी
दीक्षांत शब्द अपने आप में जहां एक ओर एक अवधि पर्यन्त प्राप्त ज्ञान अथवा नैपुण्य के एक पड़ाव का सूचक है, वहीं दूसरी ओर इस प्राप्त ज्ञान को व्यावहारिक रूप देने हेतु प्राप्त किए जाने वाले नैपुण्य अथवा दीक्षा का सूचक है।
भारत में शिक्षा की गुरुकुल परम्परा रही है। बच्चों के लिए शिक्षा ग्रहण करने का औपचारिक व्यवस्था गुरुकुल था। परन्तु शिक्षा की इस प्रक्रिया में अनौपचारिक एवं पारिवारिक भाव था। शिक्षा की यह परम्परा छात्रों को भावी जीवन के लिए तैयार करती थी।
शिक्षा की इस प्रक्रिया में तीन सोपान थे – श्रवण, मनन व निदिध्यासन
श्रवण अर्थात सभी इन्द्रियों द्वारा ज्ञान को ग्रहण करना। ‘मनन’ अर्थात जो श्रवण किया है, उसे मानस के माध्यम से विचार-चिंतन-मंथन इत्यादि की प्रक्रिया। ‘निदिध्यासन’ अर्थात श्रवण किए हुए ज्ञान को चिंतन-मंथन द्वारा अपने जीवन में उतारना अथवा उसे व्यवहारिक रूप देना। दूसरे शब्दों में कहें तो प्राप्त ज्ञान को आचरण में उतारने एवं व्यवहार में अभिव्यक्त करने की बात है। यही ज्ञान-प्राप्ति के उपरांत की दीक्षांत प्रक्रिया है। अपने यहां ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया हेतु ‘विद्या’ शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसमें सम्पूर्ण जीवन जीने की प्रक्रिया का भाव निहित है।
भारतीय परम्परा में ज्ञान-प्राप्ति की एक निश्चित अवधिपूर्ण होने के उपरांत आचार्य/गुरु दीक्षांत के समय शिष्य को कहते थे “सत्यं वदं धर्ममचर-स्वाध्यायन्मा प्रमदः”। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात आगे के जीवन में सत्य के मार्ग पर चलने हेतु संकल्पबद्ध हो। गुरुवाणी में कहा गया है कि “सत्य सबसे ऊपर है, यदि उससे भी ऊपर कुछ है तो वह है सत्य का आचरण।” जीवन में धर्म का आचरण करे। धर्म का तात्पर्य कर्तव्य-भाव है, सम्प्रदाय-पंथ नहीं। स्वाध्याय में प्रमाद न करे अर्थात आजीवन विद्यार्थी मानसिकता से सतत सीखने का प्रयास करते रहे।
भारतीय शिक्षा का आधारभूत लक्ष्य छात्रों के चरित्र निर्माण एवं व्यक्तितव का समग्र विकास है। स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, पं. मदनमोहन मालवीय, भगिनी निवेदिता आदि महापुरूषों ने इस बात को अपने-अपने शब्दों में व्यक्त किया है। हमारे गुरुकुलों एवं पाठशालाओं में चरित्रवान एवं समग्र व्यक्तित्व-सम्पन्न छात्रों का निर्माण इस प्रकार किया जाता रहा है। आज देश और दुनिया के समक्ष यदि सबसे बड़ी चुनौती है, तो वह चरित्र का संकट है (क्राइसिस ऑफ केरेक्टर)। देश और दुनिया की अधिकतर समस्याओं के मूल में चारित्रिक-संकट ही है। आज आवश्यकता है हमारी शिक्षा व्यवस्था के इसी आधारभूत लक्ष्य की ओर लोटने की। आनंद की बात है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ने इस बात को भली-भांति स्वीकार किया है। शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व के समग्र विकास पर विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक के पाठ्यक्रम तैयार किए है। जिन शैक्षिक संस्थानों ने इसको गंभीरता से लागू किया है, वहां आश्चर्यजनक एवं आनंददायक परिणाम प्राप्त हुए है।
हमारी शिक्षा का एक मंत्र था- “शिक्षार्थ आईए, सेवार्थ जाइए”। अर्थात “आप विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने हेतु आये थे, वह कार्य पूर्ण हुआ है। आपने जो ज्ञान प्राप्त किए हैं उसका उपयोग, समाज, राष्ट्र की सेवा हेतु करे।” इसका अर्थ यह नहीं है कि शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात आप आर्थिक उपार्जन न करे। इस हेतु अंग्रेजी का शिक्षा से अभिप्राय सम्बन्धित एक वाक्य है “एज्युकेशन फॉर लीविंग एंड लाईफ” अर्थात शिक्षा प्राप्त करने के बाद छात्रों में इतनी क्षमता का निर्माण होनी चाहिए कि वह स्वयं का और अपने परिवार का अच्छी तरह निर्वाह करते हुए समाज को भी कुछ दे सके। इसके साथ ही छात्रों में इस दृष्टि का भी विकास होना चाहिए कि हमने जो भी उपाधि प्राप्त की (यथा चिकित्सक, चार्टड एकाउन्टेन्ट, इंजीनियिरिंग आदि) – इसका उद्देश्य क्या है? इस दृष्टि से हमारा समाजिक एवं राष्ट्रीय कर्तव्य क्या है? उच्च शिक्षा के प्रारंम्भ में ही इसकी छात्रों में स्पष्टता हो, इस प्रकार की सामग्री का पाठ्यक्रम में समावेश होना चाहिए। उदाहरण, मैं चिकित्सक बनना चाहता हूँ तब देश में छः लाख से अधिक गांवों में डॉक्टर की सुविधा नहीं है। डायरिया, टी.बी. आदि सामान्य बीमारियाँ से भी देश में लाखों लोगों की मृत्यु हो जाती हैं और हमारे देश में 33 लाख बच्चे कुपोषित है। ऐसी परिस्थिति को ठीक करने हेतु मुझे चिकित्सक बनना है। इस प्रकार का संकल्प होना चाहिए। छात्रों में यदि इस प्रकार की दृष्टि का विकास होता हैं, तो आज की जो चुनौतियां है उनका समाधान प्राप्त किया जा सकता है। स्वयं के परिवार का निर्वाह करने के साथ समाज के गरीब, पीडित एवं वंचित लोगों की सेवा करना मेरा दायित्व है, ऐसा भाव निर्माण होना चाहिए। यही नैतिक मूल्यों, संस्कारों की शिक्षा का तात्पर्य है।
दीक्षांत के बाद आप में से अधिकतर लोग गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करेंगे। ज्ञान प्राप्त करने की परीक्षा से तो आप मुक्त होंगे, परंतु जीवन की वास्तविक परीक्षा यहां से आगे शुरू होगी। जब आप सत्य एवं धर्म के मार्ग पर चलने का प्रयास करते हैं, तब समाज से, परिवार के सदस्यों से एवं स्वयं अपने-आप से संघर्ष होता हैं। इन सभी संघर्षों को पार कर आप यशस्वी बन कर सफल एवं सार्थक जीवन की ओर अग्रसर हों- ऐसी हार्दिक शुभकामनाएं।
(लेखक राष्ट्रीय सचिव, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के राष्ट्रीय सचिव है।)
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